शनिवार, 30 अगस्त 2014

'लव जिहाद'की बाढ़

'लव जिहाद' जो आजकल हर टीवी चैनल के साथ सोशल मीडिया में जोरों पर छाया हुआ है। हर तरफ जहाँ, लव जिहाद पर बहस तेज़ी पकड़ रही है।वहीँ दूसरी तरफ, चैनलों पर हर समय बहस-चौपाल सज रहा है और सोशल मीडिया की वाल पर हर कोई अपने विचार की छाप छोड़ रहा है। समाज के बुद्धिजीवी वर्ग से लेकर हाका-वर्ग तक, सभी के विचारों की मानो बाढ़ सी आ गई है। सभी दीवारों को अपने-अपने हिसाब के रंगों से रंग देने की होड़ में है। इनकी कवरेज से चैनलों की टीआरपी बढ़ रही है तो वहीं फेसबुक में लाइक और शेयर के आप्सन कम लगने लगे है।लेकिन इस बाढ़ की वजह वास्तव में सिर्फ बारिश ही है या कुछ और इसका पता अभी तक नहीं चल पाया है।
'लव जिहाद'जिसे 'रोमियो जिहाद'के नाम से भी जाना जाता है,जहाँ 'जिहाद' का मतलब होता है-'धर्मयुद्ध'।साधारण से शब्दों में,जब कोई मुस्लिम लड़का किसी गैर-मुस्लिम को प्यार का झासा देकर लड़की को धर्म-परिवर्तन के लिए मजबूर करे,तो इसे 'लव जिहाद'कहते है।2009 में केरल और कर्नाटक में सबसे पहले,लव जिहाद सम्बन्धित एक केस की शिकायत दर्ज की गई थी।लेकिन सीबीआई जांच के बाद पता चला कि ये एक अफवाह थी,जिसमें कोई गिरोह शामिल नहीं था।
ठीक उसी तरह,अगस्त 2014 में,रांची से एक ऐसा केस सामने आता है। तारा साहदेव का केस।तारा जो एक राष्ट्रिय-स्तर की गोल्ड मेडलिस्ट शूटर है। तारा की शादी जून 2014 में रंजीत कुमार कोहली नाम के शख्स के साथ हुई। शादी के बाद,रमजान के महीने में तारा को पता चलता है कि उसका पति मुस्लिम है,जिसका नाम रकीबुल हसन खान है। तारा को भी अपना धर्म-परिवर्तन करने के लिए एक महीने तक लगातार प्रताड़ित किया गया।आखिर, एक दिन तारा ने अपनी चुप्पी तोड़ी और दुनिया के सामने अपने फरेबी पति का सच रखा।
तारा ने रकीबुल से जुड़े कई चौका देने वाले खुलासे किए।जिनके आधार पर पुलिस में रकीबुल को तीन दिन की रिमांड पर ले लिया है। तारा ने बताया कि रकीबुल लड़कियों की सप्लाई भी करता था,जिसे न केवल रकीबुल में कबुल किया है बल्कि 34 सरकारी अधिकारों के नाम भी बताए है जिन्हें वो लड़कियां सप्लाई करता था। रकीबुल के पास अरबों की सम्पत्ति भी मिली है,जिनके आधार पर ये माना जा रहा है कि रकीबुल का जाल काफी दूर के ऊंचे टीलो तक फैला है।
ये तो अब तक की खबर थी और बाकी की खबर लेने के लिए सीबीआई कार्यरत है। लेकिन एक बात समझ नहीं आती कि अभी तक सारे तथ्य सामने नहीं आए है और इसके आने से पहले ही सबने अपने पसंदीदा मुद्दे-'धर्म' को पकड़ लिया है। फेसबुक पर धर्म-बचाओ के जैसे आन्दोलन छिड गये है जिनके समर्थन के लिए बकायदा कई पेज भी बनाये गये है।जिसमे कई भड़काऊ पोस्ट भी की जा रही है। इतना ही नहीं, कई संगठन भी सड़को पर उतर कर आये दिन हंगामा किए जा रहे है।अब भाई इतना सब हो और हमारे तथाकथित पूजनीय वर्ग कैसे पीछे हो सकते है?तो नेता भी अपनी विरोधी पार्टी पर कीचड़ उछाल रहे है और साधु-संत एक हिन्दू लड़की के बदले सौ हिन्दू लड़की की बात कर रहे है। क्या नेता और क्या साधु यहाँ तक की मीडिया भी जिन्हें हमारे समाज का अगुआ कहा जाता है,सब कीचड़ बनाने और उसे उछालने की प्रक्रिया में जुट गये है।
आखिर,सारे तथ्यों के सामने आए बिना समाज के अगुआ वर्ग का ये पशुवत व्यवहार कितना उचित है? ये जानते हुए कि धर्म जैसे सम्वेदनशील मुद्दे की आग फ़ैला देने से कोई लाभ नहीं होने वाला। हाँ हमारी व्यवस्था के उन कर्मचारियों के कच्चे चिठे सामने आने से पहले जरुर जल जायेंगे जो वास्तव में ऐसी आग की चिंगारी भड़काने का काम कर रहे है।

स्वाती सिंह


शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

अर्थों का अनर्थ करते फ़िल्मी-पोस्टर

लव,सेक्स,धोका और बदला...इन चार दीवार के बीच एक लड़की की कहानी पर 2012 में विवेक अग्निहोत्री के निर्देशन में बनी  फिल्म-Hate Story।ये कहानी है एक सशक्त महिला पत्रकार की,जो एक बड़े उद्योगपति के लव,सेक्स और धोका में बुने जाल में फसाई जाती है,जिससे वो बुरी तरह मानसिक और शारीरिक रूप से जख्मी होती है,और तथाकथित सभ्य इस समाज में रहने के लिए हर ज़रूरी चीज़-इज्ज़त,घर,रिश्ते और प्यार को खो बैठती है।इस साजिश का बदला लेने के लिए वो शहर की बड़ी वेश्या बनती है और एक पल में उस उद्योगपति के फैले बड़े बाजारू साम्राज्य को खत्म कर देती है।ये फिल्म समाज के ऐसे चमकते इन इज्ज़तदार अंधेरों को उजागर करती है,जहाँ लोग अपने इगो को संतुष्ट करने के लिए किसी भी हद तक चले जाते है। प्यार,विश्वास और रिश्तों को उन्हें सरे बाज़ार नीलाम करने ज़रा भी देर नहीं लगती। लेकिन अफ़सोस के बात ये है कि रिश्तों का सौदा करने वाले हर बार भूल जाते है कि-"जब औरत अपनी इज्ज़त बेचने को उतारू हो जाती है तो वो किसी भी मर्द खरीद सकती है'(फिल्म के एक डायलॉग में)।ये फिल्म महिला के एक सशक्त रूप को उजागर करती है।
                    जुलाई,2014 में विशाल पाण्डेय के निर्देशन में आई-Hate Story-2....ये कहानी है एक ऐसी लड़की की जो एक बड़े नेता के एक तरफे प्यार का शिकार होती है। अपनी ताकत के दम पर नेता लगातार उसका शोषण कर उसे जिंदा लाश बना देता है। जिसका मानना होता है कि-"औरत को जात और दुश्मन को उसकी औकात जितनी जल्दी बता दो अच्छा है, बाबा कहा करते थे"(फिल्म के डायलाग में)।एक दिन जिन्दा लाश बनी उस लड़की को अपनी अँधेरी जिंदगी में आशा की एक किरण दिखती है,जब उसे किसी से सच्चा प्यार होता है। लेकिन उसका प्यार सनकी नेता का शिकार हो कर दम तोड़ देता है। अपना सब कुछ गवां देने के बाद लड़की अपनी चुप्पी तोड़ती है और नेता की हत्या कर देती है। लड़की नेता को गोली मारते समय कहती है-"पागल कुत्ता और आवारा हाथी दोनों बंदूक की गोली के लिए बने है,काश ये तेरे बाबा ने बताया होता"।पिछली बार की तरह इस बार भी फिल्म ने सशक्त महिला के किरेदार को बखूबी उजागर किया है।
महिला सम्बंधित सम्वेदनशील मुद्दे पर बनी इस फिल्म के पोस्टर इसकी संवेदना को खत्म कर देते है और दर्शकों के समक्ष इसकी छवि 'हॉट-फिल्म'(सामान्य भाषा में-गन्दी फिल्म)के तौर पर प्रस्तुत करती है।फिल्म जगत में प्रचार के इन पैतरों का प्रयोग यूँ तो दर्शकों को आकर्षित करके पैसे कमाने के लिए होता है। लेकिन हर बार की इस तरह बिज़नेस करने वाली व महिला-केन्द्रित संवेदनशील मुद्दे पर बनी ये फिल्मे अपने पोस्टरों पर महिलाओं का ऐसा चित्रण कर देती है की ये संवेदना से हटकर अशलील फिल्म की सूची में शुमार हो जाती है। इनदोनों फिल्मों के पोस्टरों कइ साथ एक और बात कॉमन है -कि महिला किरेदार पर जब अत्याचार शिखर पर पहुँचता है तब वो इस बात का विरोध करती है,जो बेहद निराशाजनक है।आशा है अगली बार फिल्म में,कहानी की मुख्य महिला किरदार अत्याचार को शिखर में पहुचने से और जिन्दा लाश बनने से पहले इसका विरोध करें।

स्वाती सिंह


बदनाम गलियों के खरीदार

 पितृसत्तात्मक समाज का किस्सा भी बेहद अज़ीब है| यहां स्त्री-पुरुष के जिस रिश्ते को सबसे पवित्र बताया जाता है| उसी रिश्ते को दूसरे ही पल भद्दी गाली में तब्दील कर पितृसत्ता का रौब जमाया जाता है|  



बारिश के बाद खिलने वाली धूप के साथ आकाश में खिलता इन्द्रधनुष हर किसी के मन को मोह लेता है| कुदरत के इस नज़ारे का दीदार करने का मौका कुछ खास मौसमों में ही नसीब होता है| पर एक इन्द्रधनुष हमारे समाज का भी है जो हर मौसम में स्थायी रहता है| क्योंकि यह कुदरत की देन नहीं बल्कि हमारे समाज की देन है| इस इन्द्रधनुष के दो सिरे है – पहला, अमीरी और दूसरा,गरीबी। और इसके दो सिरों के बीच होती है – एक गहरी खाई| इस खाई में झांककर हम अपने समाज के कई कड़वे सच्च की परछाईयों को देख सकते है|

वैसे तो इस इन्द्रधनुष के दो सिरे अपने बीच की गहरी खाई की वजह से आपस में कभी नहीं मिलते है| पर इसकी सतरंगी चमक अक्सर अमीरी के सिरे से अपने स्वार्थों को लिए गरीबों की अँधेरी गलियों में गुम होती दिखाई है। गरीबी की इन गलियों में से एक है – वो बदनाम गली। यह वो गलियाँ है, जो सदियों से तथाकथित अमीर समाज की पैदाइश रहे 'वहशी मर्दों' की हवस भरी ज़रूरतों का बोझ अपने सिर लिए अपने जिंदगी काटने को मजबूर है।

कहते है कि हमारे समाज में वेश्याओं की आवश्यकता सुरक्षा बल्व की तरह पड़ती है जो पुरुषों की कामप्रवृति का भार वहन करती है।अगर इनका अस्तित्व न हो तो अवश्य ही अबोध स्त्रियों से बलात्कार किया जाएगा। इस संदर्भ में वेश्यावृति सामाजिक बुराई से प्रशंसनीय समाज सेवा में परिवर्तित हो जाती है। नतीजतन इन गलियों के खरीददार वहशी मर्द, लाचार औरतों के शोषकों की बजाय ज़िम्मेदार नागरिकों के सम्मान से सम्मानित कर दिए जाते है| और हमेशा की तरह औरतों के हिस्से आती है - भद्दी गालियाँ और तिरस्कार|

पितृसत्तात्मक समाज का किस्सा भी बेहद अज़ीब है| यहां स्त्री-पुरुष के जिस रिश्ते को सबसे पवित्र बताया जाता है| उसी रिश्ते को दूसरे ही पल भद्दी गाली में तब्दील कर पितृसत्ता का रौब जमाया जाता है|  

आज हमारे भारत को, एशिया में इन बदनाम गलियों के लिए भी खूब जाना जाता है| देश में इसका मुख्य केंद्र है - मुंबई। मानवाधिकार की रिपोर्ट के अनुसार, यह एशिया की सबसे बड़ी सेक्स इंडस्ट्री है, जहाँ 2 लाख से ज्यादा सेक्स वर्कर है।पर यह सिर्फ दिल्ली, मुंबई या कलकत्ता जैसे महानगरों तक ही सीमित नहीं है| बल्कि आगरा का कश्मीरी मार्केट, पुणे का बुधवर पेर और वाराणसी का मड़ुआडीह जैसे देश के हर छोटे-बड़े कोने में सालों से अपने व्यापार का जाल फैलाए हुए है। आज देश के हर कोने-कोने में शिक्षा व स्वास्थ्य की सुविधायें हो न हो पर इन बदनाम गलियों का बाज़ार ज़रूर होता है, जहां पर औरतें सभ्य समाज के दरिंदों से अपना शरीर नोचवा कर अपना पेट पालने को मजबूर है। 

साल 2009 में सीबीआई  द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार - 12 लाख से ज्यादा बच्ची आज वेश्यावृति की चपेट में है। और 90 फीसद लड़कियों को जबरदस्ती इस धंधे में धकेला जाता है। यहां इन्हें 'मगज धुलाई' (वेश्या बनाने की प्रक्रिया) के बाद इन बदनाम गलियों में गुम होने को मजबूर होना पड़ता है। इस प्रक्रिया के तहत लड़कियों को अलग-अलग किस्म की प्रताड़ना से वेश्या बनने पर मजबूर किया जाता है। इतना ही नहीं इस बाज़ार के दलालों के सामने घुटने न टेकने वाली लड़कियों को महीनों तक लगातार बलत्कृत किया जाता है| इसके बाद वे चाह कर भी इस सभ्य समाज की दहलीज पर कदम नहीं रख पाती और मजबूरन वेश्यावृत्ति को अपना पेशा बनाकर पेट पालती है।

यूँ तो वेश्यावृति से जुड़ी अनेक किताबें, शोध-रिपोर्ट, लेख और आकड़े सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाओं ने इक्कठे किये गए है। और यह सभी भारत में वेश्यावृति के इस बढ़ते व्यापार के कई चौका देने वाले सच को भी हमारे सामने रखते है। पर यहां विचारणीय यह है कि  इस बढ़ते व्यापार की दुकान और समान के बारे में तो बड़ी आसानी से जानकारियां बटोर ली जाती है| पर इनके ग्राहकों के बारे में कोई-भी तथ्यात्मक जानकारियों को बटोरने का प्रयास क्यों नहीं किया जाता है? वेश्याओं को बनाने वाले और अपने दिए पैसे से पाल कर इनका व्यापार बढ़ाने वालों की, मानसिकता और उनके वहशी बनने के कारण; जैसे तमाम जरुरी तथ्यों पर  ना तो कोई शोध किए जाते है और ना इनसे सम्बन्धित आकड़ों को संकलित किया जाता है। जिससे हम यह कभी नहीं जान पाते कि आखिर किन खरीदारों के दम पर ये धंधे फलफूल रहे है?

हमारे समाज में वेश्याओं के लिए अनेक भद्दे शब्दों का प्रयोग करके सभ्य लोग अपना शुद्धिकरण तो कर लेते है। इसके साथ ही तकनीकी-युग का लाभ उठाते हुए सोशल मीडिया में भी इन गम्भीर मुद्दों पर अपनी भद्दी सोच लिए बहस करने से पीछे नहीं रहते| और अपने संकीर्ण कुतर्कों से समाज की इस बुराई को महिलाओं के माथे मढ़कर सदियों से चली आ रही इस सामाजिक बुराई का बीज रोपना भी नहीं भूलते। पर अब यह सवाल है कि – आखिर कब तक?

स्वाती सिंह



गुरुवार, 28 अगस्त 2014

सिमोन द बोउवार की बनाई हुई स्त्री

20 अगस्त,2008 में 'ब्रेकथ्रू' ने भारतीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय,यूनीफेम व द यू एन ट्रस्ट फण्ड के सहयोग से घरेलू-हिंसा को रोकने के लिए 'बेल बजाओ अभियान' लांच किया। जिसकी संस्थापक मल्लिका दत्त थी। इस अभियान का जमकर प्रचार-प्रसार किया गया। जिससे लोगों में जागरूकता फैले और वो घरेलू हिंसा के खिलाफ़ आवाज़ उठा सके। बेल बजाओ अभियान में,हिंसा सहने वाली महिला से ज्यादा हिंसा देखने वाले यानी की आसपास के लोगों को इसके खिलाफ़ अपनी आवाज़ उठाने पर ज़ोर दिया गया था।  

       


      जमीनी हक़ीकत की अगर बात करें,तो ऐसा देखने को मिलता है कि पड़ोसी घरेलू  हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठाने लगे है।जो लोगों की जागरूकता के बढ़ते स्तर का शुभ संकेत देता है। लेकिन वहीँ दूसरी ओर,जब हिंसा की शिकार महिला ही जब शेरनी बन कर आपसे पूछ बैठे कि-'ये हमारा निजी मामला है।आप कौन होते है बोलने वाले? या फिर वो मेरे पति है जो चाहे करे आपको इसे क्या?' तो इसके बाद मजबूरन हमें वापस होना पड़ता है। जिससे हिंसा के स्तर में बढ़ोतरी तो तय होती है लेकिन बेल बजा कर किसी पड़ोसी की मदद करने के आसार कम होते जाते है। 
         
 ऐसा मुझे तब महसूस हुआ,जब इसी तरह की कुछ घटनाएँ मेरे साथ भी हुई। बात सर्दियों की है,कड़ाके की ठंड थी,सुबह के पांच बज रहे थे।तभी किसी महिला की जोर-जोर से चीखने की आवाज आई। घर से बाहर निकल कर देखा तो कोहरे की धुंध में कुछ दिखाई नहीं दिया। कोहरा छटने पर जब पड़ोसियों से पूछा कि किसकी आवाज थी तो उनलोगों ने बताया कि सामने रहने वाला एक मजदूर अपनी पत्नी को बुरी तरह पीट रहा था। ये सुनने के बाद जब उस महिला से मिलने गई तो उसके शरीर में चोट के गहरे निशान थे और पति के पीटने की वजह जब उससे पूछी तो मुस्कुराकर बोली,'आज खाना बनाने में देर हो गई थी इसलिए उन्होंने ने मारा। नहीं तो वैसे वो मुझे बहुत मानते है"।

दूसरी घटना,मेरे घर में काम करने वाली की है। वो रोज आकर घंटों अपने शराबी पति से बेरहमी मार खाने के किस्से बड़े मज़े से सुनाती थी। साथ में,ये कहना कभी नहीं भूलती कि वो हमें बहुत मानते है और मेरे लिए दवा भी लाते है। लेकिन दुःख सिर्फ इस बात का है कि दस में पढ़ने वाला उनके बेटे को जुए और नशे की लत लग चुकी है और उनके मना करने पर कहता है कि पहले पापा की दारू छुडवाओ फिर मै इस लत तो छोड दूंगा।

तीसरी,मेरे घर के पास ब्यूटी पार्लर चलाने वाली महिला की है। जिनकी शादी को 18 साल हो चुके है और उनके तीन बच्चे है,एक बेटी और दो बेटे। पिछले सात सालों से वो अपने पति से दूर रह रही है जिसकी वजह है पति के शराब और जुए की लत। जब उनका एक भी गहना नहीं बचा जिससे पति जुआ खेल सके तो उसने पत्नी को घर से निकाल दिया। मजबूरन पत्नी को अपने तीन बच्चों के साथ मायके में शरण लेनी पड़ी और आज वो एक छोटे से पार्लर से अपना और बच्चों का पेट पाल रहीं है। पति अब बीच-बीच में आकर उन्हें जान से मारने और बच्चों को उठा ले जाने की धमकी देता है। उन्होंने ये बात एक दिन मुझे बताई और बोली कि मुझे ठीक तरीके से जानकारी नहीं की किससे इसकी शिकायत की जा सकती और कौन मेरी मदद करेगा? इसके बाद,हमने इसकी चर्चा कुछ लोगों से की जो महिला-अधिकारों के लिए काम करते है और वे लोग राज़ी भी हो गये उनकी मदद करने को।लेकिन जब ये बात उनको बताई तो वो बोली की उनके भाई ने मना कर दिया।

इन घटनाओं को देखकर जहन में यह ख्याल आता है  कि  वास्तव में सिमोन की बनाई हुई स्त्री का विकास लवलीन द्वारा बताई काटी-छाटी गई,कोमल तन्तुओं वाली परजीवी लता के समान होता है या यूँ कहें कि ऐसा विकास वे पसंद करने लगी है। फिर इनसब के बाद सिर्फ पितृसत्ता पर सारे दोष मढ़ना उचित नहीं। माना अचानक किसी कि प्रकृति में परिवर्तन सम्भव नहीं लेकिन आँख मूद कर वर्तमान देखना और उजले भविष्य की मनोकामना करना भी कितना तर्कसंगत है?


स्वाती सिंह


मैला ढोने वालों के 'अच्छे दिन'

अच्छे दिन आने से पहले बनारस में सीवर की सफाई करते वक्त पंकज की मौत हो गयी। पंकज एक मैला ढुलाई करने वाला था।हमारे सभ्य समाज के लिए ये बहुत ही शर्म की बात है कि आज भी मैला ढोने की वजह से लोगों की मौत हो रही है। सामाजिक कार्यकर्त्ता एस.आनंद के अनुसार आज भी हमारे समाज में प्रतिदिन मैला ढोने की वजह से एक व्यक्ति की मौत होती है।
31 मार्च,2014 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने मैला ढुलाई करने वालों के पक्ष में अपना ऐतिहासिक फैसला दिया। और इस फैसले ने मैला ढुलाई करने वालों की स्तिथि में सुधार की उम्मीद की एक किरण दिखा दी। सर्वोच्च न्यायालय ने यह आदेश दिया कि 1993 से अब तक जितने भी लोगों की मौत सीवर की जहरीली गैस और मल की सफाई करने से हुई है उन सभी के परिवारों को 10 लाख रुपए का मुआवज़ा दिया जाएगा। इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने रेलवे लाइन में मैला सफाई करने की प्रणाली को जल्द ही खत्म करने का आश्वाशन दिया।
आज भी हमारे समाज में मैला ढोने और गंदे मलों की सफ़ाई करने वालों की स्तिथि बहुत दयनीय है। ये काम अमूमन दलितो के ही हिस्से में है। आमतौर पर इन्हें भारत में गुजरात,उत्तर प्रदेश,मध्य प्रदेश,राजस्थान और अन्य प्रदेशों में देखा जा सकता है,जहाँ वे मल साफ़ करने,नाली व् सीवर की सफाई करने में लगे रहते हैं। उत्तर प्रदेश का कसेला गाँव हो या फिर मध्य प्रदेश का देवास जिला,आज भी मेहतर जाति के लोगों को मैला ढोकर ही अपनी दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करना पड़ता है। क्यूंकि इनकी जाति के लोगों को किसी और पेशे से अपना पेट पालने की इज्जाजत हमारा सभ्य समाज नहीं देता।सदियों से,मैला ढोने का ये अमानवीय पेशा भारत में जाति-व्यवस्था की नींव पर कथित ऊची जातियों के द्वारा निचली श्रेणी पर जबरन लाद दिया गया। इस कुप्रथा से पीड़ित दलितों को हमारी सामाजिक व्यवस्था में अछूत माना जाता है। इतना ही नहीं, शारीरिक और सामाजिक रूप से समाज के ताने-बाने से भी इन्हें पृथक रखा गया है।21वीं शताब्दी के'शाइनिंग इंडिया'की ये एक ऐसी सच्ची तस्वीर है,जिसमें कालिख पुतीहुईहै। सरकारी आकड़ों के मुताबिक, वर्तमान समय में कुल 3,40,000 लोग मैला ढुलाई करते हैं। 

यूँ तो,समय-समय पर इस अमानवीय प्रथा पर रॊक लगाने के लिए कई वैधानिक प्रयास किए गए।मैला ढुलाईकर्ताओं के रोजगार और सूखे शौचालयों के निर्माण के लिए 1993 में कानून पारित किया गया। इसके बाद,2012 में मैला ढुलाईकर्ताओं के रोजगार और पुन:प्रतिस्ठा स्थापित करने के लिए कानून लागू किया गया,जिसके लिए कुल 4,825 करोड़ रुपए का बजट भी पास हुआ। लेकिन सामाजिक कार्यकर्ताओं के विभिन्न शोध, इस बजट के खर्च-क्षेत्र का पता न लगा सके।

इसके साथ ही इन दोनों कानूनों की कई कमियाँ भी सामने आई। इनमें मैला ढुलाई करने वालों के रोजगार और पुन:प्रतिस्ठा स्थापित करने की बात तो कही गई। लेकिन इसकी क्रियान्वयन-प्रणाली का कोई भी स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया। और ना ही इनमें पहले से मैला-ढुलाई करने वालों और सीवर के जहरीली गैस से मरने वालों के लिए किसी भी प्रकार की मदद का जिक्र किया गया। इस तरह ये आधे-अधूरे वैधानिक प्रयास राज्य-मशीनरी के जाल में फँस कर पूरी तरह पीड़ित दलितों से कोसों दूर रह गए।
अब देखना है कि अच्छे दिन लाने के वादे पर बनी सरकार से समाज के हाशिए पर जीने वाले इस वर्ग की कितनी उम्मीद पूरी होती है।

स्वाती सिंह


पेशेवरों का शिकार 'भगाणा की निर्भयाए'


23 मार्च 2014 को भगाणा में, जाट बिरादरी के कुछ लोगों ने चार नाबालिग लड़कियों का बलात्कार किया। पीड़िताओं के परिजनों ने, जब मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुडा से गुनाहगारों को फ़ास्टट्रैक कोर्ट के जरिए जल्द सज़ा दिलाने की मांग की, तो बदले में उन्हें पुलिस की लाठियां मिली। इसके बाद,16 अप्रैल को हरियाणा के पूर्व बसपा नेता वेदपाल तंवर ने पीड़िताओं के परिजनों को दिल्ली आकर सरकार से न्याय की गुहार लगाने की नसीहत दी। परिजनों ने भी सोचा की अगर सरकार के पास जा कर न्याय की गुहार लगाई जाएगी तो हो सकता सुनवाई जल्दी हो। उम्मीद की ये किरण लिए परिजन दिल्ली पहुंचे।
दिल्ली के जन्तर-मन्तर को धरना देने के लिए चुना गया। धरने के शुरूआती दिनों में,वेदपाल तंवर के साथ अनीता भारती(लेखिका व् समाजिक कार्यकर्ता),प्रमोद रंजन(सलाहकार व् सम्पादक) व जितेन्द्र यादव(जे.एन.यू के शोध छात्र) ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। धरने को एक बड़े आन्दोलन का रूप देने के लिए बकायदा योजनाबद्ध तरीके से'भगाणा संघर्ष समिति' का गठन भी किया गया। इन सब में,नेशनल कन्फ़ेडरेशन आफ दलित आर्गेनाइजेशन(नेक्डोर) नाम के एनजीओ ने भी हिस्सा लिया। जिनके मालिक का नाम अशोक भारती था।
संघर्ष की इस लड़ाई का आगाज़ जितना ज़ोरदार था,दुर्भाग्यवश ये यथास्थान भी उतनी ही ज़ोरदार तरीके से पहुंचा। जैसे-जैसे चीज़े सही मार्ग की ओर बढ़ने लगी,वैसे-वैसे सारे पेशेवर अपने प्रदर्शन में जुट गये और प्रदर्शन सफल ना होने पर धीरे-धीरे पीछे होते गये। नेतृत्व करने को लेकर इन पेशेवरों का बिखराव शुरू हुआ। सबसे पहले,अशोक भारती और वेदपाल तंवर ने नेतृत्व करने की मांग की और बागडोर ना मिलने पर चलते बने।
फिर बारी आई,अनीता भारती की उन्होंने ने अपने फेसबुक पर पोस्ट डाली कि 'इस आन्दोलन में कई एनजीओ काम कर रहे है' और इसके बाद वो पीछे हो गई। जितेन्द्र यादव ने हवाला दिया कि आन्दोलन में मजदूर विगुल दस्ता हो गया है।फिर क्या वो भी चलते बने। प्रमोद रंजन ने भी मई में नेतृत्व करने की मांग कि और परिजनों के ना मानने पर बात गाली-गलौच तक पहुँच गई और वो पीछे हो गए।
इन सब के बाद,एंट्री होती है दुसाध प्रकाशन के सर्वेसर्वा एचएल दुसाध की। उन्होंने एक किताब निकालने की राय दी। परिजनों की सहमति पर एक बार फिर अपनी सफल आजमाइश के लिए प्रमोद रंजन,जितेन्द्र यादव और एचएल दुसाध किताब के सम्पादक बने। किताब आई जिसका नाम रखा गया 'भगाणा की निर्भयाए'।इसकी 200 प्रतियाँ पीडिताओं को भी दी गई और कहा गया कि जो भी उनसे मिलने आये उन्हें वे ये किताबें बेचे। जिन्हें ये तक पता नहीं कि,उनके बारे में किताब में क्या लिखा है ?खुद किताब की दुकान बना दी गई। किताब से होने वाले लाभ का बराबर बटवारा भी किया गया।जिसमे आधा हिस्सा पीडिताओं को और आधा सम्पादक टीम को जाना था।
एक तरफ,पेशेवर इन निर्भयाओं का शिकार करते रहे। वहीं दूसरी तरफ, फेसबुक के बड़े-बड़े हाकाओं ने भी इस मुद्दे पर जमकर लिखा और फिर अपने धर्म का पालन करते हुए,कुछ दिन बाद दूसरे मुद्दे की तरफ मुड़ गए। 'तहलका' में इस मुद्दे पर आई रिपोर्ट के बाद आन्दोलन के सभी अगुओं ने मीडिया के भरपूर प्रयोग से अपना शुद्धिकरण करने में जुट गए।
आज से दो साल पहले16 दिसम्बर,2012 को दिल्ली में हुई गैंगरेप की घटना से एक ऐसे जनांदोलन का आगाज हुआ,जिसने न केवल दिल्ली की सत्ता का तख्ता-पलट कर दिया।बल्कि देश की तमाम निर्भयाओं को न्याय के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करने का हौसला भी दिया।
इसी हौसले को लिए न्याय की उम्मीद में हरियाणा से ये पीड़िताये और उनके परिजन दिल्ली आए। लेकिन अफ़सोस,अभी तक उन पीड़िताओं की ना कोई सुनवाई हुई ना ही मीडिया को ये दिखाई पड़ी। जो आज भी जन्तर-मन्तर पर अपने परिजनों के साथ ये उम्मीद लिए बैठी है कि कभी तो उनकी गुहार इस बर्फीली सत्ता के कानों तक पहुचेगी और उन्हें न्याय मिलेगा।

स्वाती सिंह


मंगलवार, 26 अगस्त 2014

मीडिया का बाज़ार

लोक को तंत्र से जोड़ने का काम करने वाले 'मीडिया' को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है'।लेकिन आज मीडिया की स्तिथि देखकर ये स्तम्भ खोखला मालूम पड़ता है। मीडिया ने प्रारंभ से ही, संविधान द्वारा प्रद्क्त'स्वतन्त्रता के अधिकार'को अपने पक्ष में करते हुए पूरी निष्ठा के साथ अपने पाठ्यक्रम में इसका बाकायदा व्याख्यान किया। लेकिन जब ये पाठ्यक्रम जमीनी हकीकत से कोसों दूर,एजेंडा-सेटिंग और टेक्नोलॉजी के उपयोग से ख़बर बनाने की कला सिखाने पर जोर देते है, तो मूल-कर्तव्यों की बात पर मीडिया की यादाश्त और व्याख्यान के दायरे बेहद कमज़ोर दिखते है।मीडिया के जिस कैमरे को देश की तथाकथित विकसित व आधुनिकता की चादर में घुटते वर्गों को उजागर करना था। आज वो कैमरे ग्लैमर की चकाचौध की चमक बटोरने में मस्त है। मीडिया के जिस माइक को समाज में वर्षो से गूंगे घोषित वर्गों की आवाज बनना था,वो आज अपने खरीदारों की बेतुकी बयानबाजी बटोरने में व्यस्त है। मसाला खबरों से बढ़ती टीआरपी की बढती आंच पर मीडिया की सिकती रोटियों ने मीडिया के मतलब को ही पूरी तरह पलट कर रख दिया है।दुःख की बात ये है कि 'मीडिया-मसाला' की इस दुनिया में,सबसे ज्यादा मरण उन पत्रकारों की है जो पूरी निष्ठा के साथ मीडिया से लोक और तन्त्र को जोड़ने का काम रहे है। उन पत्रकारों को यूँ तो हमेशा आधे पेट से अपना काम चलाना पड़ता है,इतना ही नहीं, बेरोजगारों की कतार में इन्हें शामिल होने में ज्यादा देर नहीं लगती। कुल मिलाकर इन्हें पूरा भुगतान करना होता है एक सच्चे पत्रकार होने का।
भारत की लोकतांत्रिकता के लिए ये बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि,वर्षो पहले जिस मीडिया से स्वतन्त्रता-आन्दोलन का सफल आगाज हुआ था। आज वो मीडिया अपने खरीदारों की खरीद पर हरसंभव खबर बनाने वाली तकनीकी दुकान बन चुकी है।

स्वाती सिंह


गुरुवार, 14 अगस्त 2014

धर्म की दुकान

आजकल धर्म-बाज़ार के दो बड़े नाम शंकराचार्य और साईं बाबा मंहगाई की तरह सुर्खियों में है। शंकराचार्य ने साईं बाबा की धार्मिक दुकान की शुद्धता पर प्रश्न खड़े कर दिए,जिससे साईं बाबा के समर्थकों ने विरोध करना शुरू कर दिया।धर्म-बाज़ार में एक-दूसरे को कुचल कर आगे बढ़ने की प्रवित्ति ने धर्म की वास्तविक परिभाषा को इतिहास के पन्नों तक सीमित कर दिया। सदियों पहले मानव-जीवन को व्यव्स्तिथ रूप से संचालित करने के लिए धर्म की खोज की गई। ग्रंथो में 'अपने कर्तव्यों के उचित निर्वहन को 'धर्म बताया गया। लेकिन समय के साथ-साथ धर्म की यह परिभाषा भी परिवर्तित होती गई। यूँ तो धर्म का आविर्भाव मानव-जीवन को व्यव्स्तिथ करने के लिए हुआ था। लेकिन आज उसी धर्म के नाम पर समाज में विभाजन और अव्यव्स्त्था की प्रक्रिया शुरू हो गई।
मनुष्य के विचारों की विविधता ने विभिन्न धर्मों को जन्म दिया। आज पुरे विश्व में इक्कीस बड़े धर्म है। इन धर्मो की मूल जड़ तो एक है लेकिन स्वरूप एक-दूसरे से अलग है। धर्मो के इन्ही भिन्न स्वरूपों में मानव-सभ्यता गुम होती दिख रही है,जहाँ उनका जीवन विभिन्न बाह्य-आडम्बर और धर्म के प्रति डर तक सीमित रह गई है।
धर्म के इस तकनीकी और चमकदार स्वरूप में बाह्य आडम्बरो की भरमार है। धर्म के इस स्वरूप को लोगों ने डर से अपनी जीवन -शैली में लागू कर लिया। वास्तव में जो धर्म उनके आत्म से कोसों दूर रह गया। आज धर्म के आधार पर सत्ता,समाज और संरचना का निर्धारण होने लगा है,जिनका मूल आधार डर और आडम्बर है।
ऐसा नहीं है की धर्म के इस आडम्बर का कभी विरोध नहीं हुआ। अनेक समाज-सुधारकों ने इसका विरोध किया और वास्तविक धर्म को परिभाषित किया। लेकिन कुछ समय बाद इनके विचार भी आडम्बर की डरावनी चादर में लिपट कर नए धर्म में तब्दील हो गई।
मानव-सभ्यता के लिए यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है ,कि जिस धर्म का निर्माण मानव -सभ्यता के मार्गदर्शन के लिए हुआ था। लेकिन आज वह विभिन्न आडम्बरों की तकनीकी दुकान बन चुका है।इतना ही नहीं,इन आडम्बरों की पैदाइश रहे शंकराचार्य ,आशाराम,निर्मल तथा साईं जैसे नाम एक-दुसरे की धर्म-आडम्बर की दुकान बंद करने में तूले है।

स्वाती सिंह