शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

रज़िया सुल्तान :- ' इतिहास में दर्ज़,एक पहेली के लिए पहल और पहल से पहली तक का सफ़र'

भारतीय इतिहास में ,1236 ई. दर्ज़ है, एक शासक की ऐसी 'पहल'से जिसमें एक 'पहेली' को 'पहली' का दर्जा दिया गया और सुनहरी कलम से लिखी गई इस पहल की दास्तां।
        ग्यारहवी शताब्दी से भारतीय इतिहास में दर्ज किया गया 'गुलाम वंश' का इतिहास। जिसकी स्थापना की मुहम्मद गौरी के सबसे अज़ीज़ गुलाम- कुतुबुद्दीन ऐबक ने। और जिसके बाद, भारत की ज़मीन गवाह बनी एक और नए राजवंश की। गुलाम वंश के शासकों का कारवां उनके उजले इतिहास की रोशनी में अपने भविष्य की चाह लिए वर्तमान में दौड़ने लगा। कुतुबुद्दीन के बाद दिल्ली की गद्दी पर आरामशाह ने सत्ता सम्भाली लेकिन वो ज़्यादा दिन तक सत्ता में नहीं टिक सका। नतीज़न इल्तुतमिश ने 1211 ई. में गुलाम वंश की बागडोर सम्भाली।
        इल्तुतमिश सफलतापूर्वक 1211 ई. से 1236 ई. तक शासन किया और सुशासन की एक मिशाल खड़ी की। इल्तुतमिश द्वारा अपने उत्तराधिकारी का चुनाव, जिसमें उसने अपनी बेटी जलालात-उद-दिन-रजिया (रज़िया सुल्तान) को अपना उत्तराधिकारी बनाया, जो भारतीय इतिहास में दर्ज़ एक ऐसी पहल बना, जिसने उस समय समाज की एक पहेली को पहली में तब्दील कर दिया। रज़िया सुल्तान मुस्लिम व तुर्की इतिहास की पहली महिला शासक बनी।
         1231-1232 ई. में जब इल्तुतमिश ग्वालियर विजय के लिए गया तो उसने दिल्ली गद्दी रज़िया को सौंपीं। रज़िया ने एक वर्ष तक बड़ी योग्यता से शासन का संचालन किया। जिसने रज़िया के एक कुशल शासक होने पर मुहर लगा दी और जिसके बाद, इल्तुतमिश ने 1236 ई. में रज़िया को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। इल्तुतमिश ने बचपन से ही रज़िया को राजकुमारों के समान तालीम दी, उसे अच्छे राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ कुशल प्रशासक और सेनानायक के भी गुण सिखाये गए।
          रज़िया हमेशा से शासन से जुड़े कार्यों में हिस्सा लेती रहती थी। लेकिन इल्तुतमिश का ये फैसला तुर्क अमीर और उनकी मजहबी-परम्परा के अनुयायियों को नागवार गुजरा। उन्हें एक महिला को अपना 'सरताज़' बनाना कतई गवारा ना था। नतीज़न उनलोगों ने सुल्तान की मृत्यु के दूसरे दिन ही उसके जीवित पुत्र रुकनुद्दीन फिरोजशाह को सिंहासन पर बैठा दिया, लेकिन अपनी विलासिता और अयोग्यता के कारण वो ज़्यादा समय तक गद्दी पर ना टिक सका। जिसके बाद जनता में अराजकता फ़ैल गई और इस मौके का फ़ायदा उठाते हुए रज़िया गद्दी पर बैठी।
        यूँ तो रज़िया ने मात्र तीन वर्ष, छह माह तक ही शासन किया, लेकिन इन तीन वर्षों में रज़िया ने गुलाम वंश को एक नया मुकाम दिया। क्या राज्य विस्तार और क्या सुशासन रज़िया ने हर क्षेत्र पर सफलता का परचम लहराया। प्रसिद्ध इतिहासकार मिनहाज-उस-सिराज ने रज़िया की सफलता के बारे में लिखा है कि," लखनौती से देवल तथा समस्त मालिकों और अमीरों ने उसकी सत्ता स्वीकार कर ली "। इतना ही नहीं, फ़रिश्ता रज़िया के बारे में लिखते है कि," वह शुद्ध उच्चारण करके कुरान का पाठ करती थी तथा अपने पिता के जीवन काल में शासन कार्य भी किया करती थी"।
        रज़िया और उसके सलाहकार, जमात-उद-दिन-याकुत एक हब्शी के साथ की नजदीकी धीरे-धीरे लोगों की आँखों की किरकिरी बनने लगी थी। जिससे जनता में रज़िया के प्रति एक शक पनाह लेने लगा था। इसी बीच, भटिंडा के राज्यपाल मल्लिक इख़्तियार-उद-दिन-अल्तुनिया ने 1240 ई अन्य प्रान्तीय राज्यपालों, जिन्हें रज़िया का आधिपत्य नामंजूर था, उनलोगों के साथ मिलकर विद्रोह कर दिया और रज़िया को बन्धक बना लिया गया। अंत में रज़िया को अपनी जान बचाने के लिए अल्तुनिया से विवाह करना पड़ा।
              इस तरह एक पहल में पहेली से पहली तक का सफ़र तय करने वाली रज़िया सुल्तान के शासनकाल का अंत हुआ। लेकिन यदि इस अंत को रज़िया की योग्यता से जोड़ कर आंका जाए तो ये हम सभी की सबसे बड़ी भूल होगी। क्योंकि रज़िया को उत्तराधिकार में मिली गद्दी काँटों से भरी थी, जिसके साथ उसे मिला प्रजा का असहयोग और तुर्की सरदारों का रोष, जिन सभी पर रज़िया ने फतह का परचम लहराया। लेकिन वो कहते है कि जब आपकी आस्तीन से ही साँप पनपने लगे तो फिर बाहरी दुश्मनों की क्या ज़रूरत? ऐसा ही रज़िया के साथ भी हुआ जब उसके अपने उसके ख़िलाफ़ बगावत पर उतर आए तो उसे अपने पैर पीछे खींचने पड़े।
           दिल्ली के चांदनी चौक के नजदीक तुर्कान गेट से एक पतला रास्ता बुलबुली खान की तरफ जाता है, जहां रज़िया सुलतान की कब्र बनाई गई है। पर कहते है ना कि इंसान मरता है, विचार और एक इंसानियत की मिशाल नहीं। तो इसी तर्ज पर अपनी मृत्यु के इतने समय के बाद भी रज़िया एक विचार और एक सकारात्मक पहल की मिशाल की अमर मशाल बन चुकी है।

स्वाती सिंह
    

बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

हमज़मींन :- 'एकता' का पैग़ाम , बर्फ़ीली पड़ती इंसानियत के नाम

     
        'मीडिया' यानी कि संचार का एक ऐसा माध्यम, जो 'लोक' को 'तंत्र' से और 'तंत्र' को 'लोक' से जोड़ने का काम करता है। लेकिन इस मीडिया का काम सिर्फ यहीं खत्म नहीं होता, ये माध्यम समाज को आईना दिखाने और अपनी संस्कृति व इतिहास को समेटे भविष्य की ओर बढ़ने की तरफ़ भी मार्गदर्शिका के तौर पर एक प्रभावी माध्यम है।
        'नाटक' संचार माध्यमों में से सबसे प्रभावशाली माध्यम है। जो ना केवल समाज के इतिहास और उसके संस्कृति को अपने साथ लिए चलता है, वरन् ये समाज के उन छिपे कोनों को भी उजागर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जो समाज की चमकदार चादर के पीछे छिपाए या यूँ कहें कि, रौंद दिए जाते है।
                वर्तमान समय में जहां एक ओर नाटक की संस्कृति विलुप्त होती दिख रही है, तो वहीं दूसरी ओर आज के दौर के युवाओं का संचार कला की इस विधा की ओर बढ़ते रुझान ने इस विलुप्त होती संस्कृति में मानो दुबारा जान फूंकने का काम किया है। युवाओं द्वारा लिखित नाटकों की विशेषता है,' इन नाटकों का वर्तमान-समाज से सरोकार होना'।
             इलेक्ट्रॉनिक सदी में जीने वाली ये युवा-पीढ़ी द्वारा निर्मित इन नाटकों का मंचन चकाचौंध वाली हाईवोल्टेज वाली रंगीन रोशनी में तो अक्सर देखा जाता है, लेकिन जब इसी युवा-पीढ़ी द्वारा निर्मित नाटकों का मंचन मशालों की रोशनी में किया जाता तो ये हर दर्शक के मानस-पटल पर अपनी एक विशेष छाप छोड़ती है। और जब ऐसे नाटक समाज के उन मुद्दों पर आधारित होते है जिन्हें मुठ्ठी भर लोग अपने स्वार्थों की रोटी सेंकने के काम लाते है और जिनकी आंच में जलती है-इंसानियत, तो ऐसे नाटक लोकप्रियता की बुलंदी छुने के साथ-साथ नाटक की सार्थकता और सफलता को भी प्रमाणित करती है।
            कुछ दिन पहले, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के राधा कृष्णनन हाल (कला संकाय) में ऐसे ही एक नाटक का मंचन पत्रकारिता एवमं जनसम्प्रेषण विभाग के युवा-छात्रों ने किया।

                       जुस्तजू थी जमाने को जिसकी सुबहों-शाम।
                           कब्र में बैठा मिला, देखो मुझे वो राम।।

         'कब्र में राम'?????????
                     अरे साहब! ये कल्पना नहीं,  हक़ीक़त है, अपने समाज की। जो दिखाई पड़ती है, मानव-निर्मित 'आडम्बर-धर्म' के नाम पर कत्ले-आम करते वक़्त।
        जब इंसानियत ताक़ पर रख कर एक खूनी जूनून लोगों के सर चढ़ कर बोलने लगता है। तब क्या राम? क्या रिज़वान?....!!! समाज की ये कड़वी सच्चाई लोगों को नज़र तो आती है। अंदाज-ए-ब्यान में कहा जाए तो,
      'दिलों की दूरी मिटाने में कहीं इतनी देर ना हो जाए,कि कब्र में जाकर ये दूरी मिटानी पड़ जाए, क्योंकि ये शहर जिन्दा मुर्दों से सजता है.....'।
                     इसी तर्ज पर आधारित नाटक -"हमज़मींन" का मंचन इन छात्रों ने किया। नाटक रजनीश मणि द्वारा लिखा गया। 'एकता' की एक आवाज, बर्फ़ीली पड़ती इंसानियत के नाम पर लिखा गया नाटक 'हमज़मींन'। ये नाटक आधारित है, कब्र में दफ़न दो मुर्दों के बीच हुए संवाद पर। जिस संवाद में बयां करते है अपनी दर्दनाक मौत की दास्तां। जब उनके अपनों ने उन्हें 'आडम्बर-धर्म' के अंधेपन में उन्हें मौत के घाट उतार दिया।
          नाटक में जहां एक ओर समाज के पुरौधों द्वारा भड़काए दंगों में झुलसती इंसानियत को दर्शाया गया, वहीं दूसरी ओर, शमसान की उन कड़वी सच्चाई को भी बखूबी उभारा गया, जब कुछ बेकसूर बेजुबानों को जन्म लेते ही दफना दिया जाता है।
           नाटक में हिन्दू-मुस्लिम के प्रेम-विक्षोभ को कविता और शयराना अंदाज़ में दिखाया गया। नाटक के ये दृश्य जहां समाज की इस कड़वी सच्चाई का सजीव चित्रण कर आत्मा को झकझोरने पर मजबूर करती है, तो वहीं दूसरी ओर हर दृशय में उठायी गयी समस्याओं के बीच शायराना अंदाज़ में ब्यान उम्मीद, इंसानियत और जिंदादिली भरे संवाद, जैसे-
मजहब की ऊँची दीवारों के तले, अपनी अंतिम सांसे लेते प्यार को कुछ इस अंदाज़ में अपनी नयी दुनिया बसाने को कहा गया-
                                  'गमों की आंच पर आँसू उबाल कर देखो,
                                     बनेंगे रंग किसी पर डाल कर देखो।
                                  तुम्हारे दिल की चुभन भी जरूर कम होगी,
                                   किसी के पाँव का कांटा निकाल कर तो देखो।

वहीं दूसरी ओर, समाज के मुठ्ठी भर मठाधीशों की ऊँचीं कोठियों और बस्तियों की बीच की गहरी फांक को कुछ इस अंदाज-ए-ब्यान किया गया-
         
                               'आज के दौर में ऐसी गलतियां नहीं होती
                               कत्ल करने वालों को फांसियां नहीं होती।
                                 हर तरफ गरीब की ही बस्ती जलती है
                               वर्क के निशाने पे ये कोठियां नहीं होती।।

             उम्मीद की उस अलख ज्योति का दीदार कराते है, जो ये एहसास दिलाती है कि 'इंसानों के जहन के किसी कोने में अब भी इंसानियत के कुछ जर्रे बाकी है।'
नाटक में समस्या से समाधान तक, जिन्दगी से श्मसान तक,महफ़िल से वीरान तक और हैवान से इंसान तक के सफ़र को बेहद बख़ूबी और जिंदादिली से दर्शाया गया। जो इस नाटक को देखने वाले हर एक दर्शक को ना केवल एक बार सोचने पर मजबूर करती है, बल्कि ये दर्शकों के मानस-पटल पर अपनी एक अमिट छाप भी छोड़ती है।
इस नाटक में, अनुपम सिंह, विकास चंद्रा, सविता उपाध्याय, दिव्यांशु श्रीवास्तव, वरुण गुप्ता,सौरभ यादव,रिचर्ड होरो,प्रियंका सिंह व स्वाती सिंह ने अपने अभिनय से नाटक के किरेदारों को बखूबी निभाया। वहीं अनामिका हल्दर, चमरं व विकास के अपने सुरों को जोड़कर इस नाटक को और भी प्रभावशाली बनाया।

तो

         सलाम! युवाओं की इस सोच को,
सलाम! युवाओं के इस जोश को,
        सलाम! युवाओं की रचनात्मकता को,
और हर हमज़मींन को।

स्वाती सिंह

सोमवार, 9 फ़रवरी 2015

गौहर जान : पहली रिकॉर्ड सिंगर का 'गुम रिकॉर्ड'

विकास-मार्ग पर तेज़ी से दौड़ता 'हमारा भारत', आज अपने समृद्ध इतिहास से लेकर अपने तकनीकी विकास तक की दूरी तय करके दुनिया के एक शक्तिशाली देश के तौर पर उभर रहा है। लेकिन जब भारतीय इतिहास के उन गायब पन्नों पर नज़र पड़ती है जिन पर भारत की कई अविस्मरणीय हस्तियों के नाम दर्ज़ थे, तो विकास की ये दौड़ अन्धी-सी नज़र आने लगती है। मानो वर्तमान अपने इतिहास को छोड़ते हुए भविष्य की एक ऐसी दौड़ में भाग रहा है, जिसका कोई निर्धारित लक्ष्य नहीं। जिसके विकास की कोई परिभाषा नही, लेकिन हाँ इस दौड़ के हर कदम पर वो अपने इतिहास को रौंदता नज़र आता है, जिससे दब कर ये सुनहरा इतिहास अपनी अंतिम सांसें गिन रहा होता है।
        बरसों से भारत दुनिया भर में अपनी अदभुत कला, साहित्य और संस्कृति के दम पर अपनी एक अलग पहचान बनाई है। इसलिए इन्हें अदभुत कहा जाता है, क्योंकि भारत ने हर नयी सभ्यता और संस्कृति को अपने दिल में जगह दी और इन सभी का समन्वय इन्हें अदभुत बनाता है।
        बात की जाए, भारतीय संगीत की, तो दुनिया में संगीत के सात सुरों को पहचान कर उनकी ताल पर इस भारतीय संस्कृति ने संगीत की एक नयी परिभाषा गढ़ी। मुग़ल काल के तानसेन से लेकर वर्तमान समय की स्वर-कोकिला 'लता मंगेश्कर' तक, इन सभी हस्तियों ने दुनिया भर में अपना यश फैलाया। लेकिन दुर्भाग्यवश हमारा इतिहास संगीत से जुड़ी कई ऐसी हस्तियों को समेटने में असफल रहा, जिन्होंने भारतीय संगीत को एक बुलंदी तक पहुंचाया।
         जैसे भारतीय संगीत के इतिहास की रिकॉर्डिंग से गुम 19 वीं सदी की गौहर जान वो हस्ती है, जिन्होंने भारतीय संगीत के इतिहास में पहली बार रिकॉर्डिंग की। या यूँ कहें कि गौहर पहली गायिका थी, जिन्होंने भारतीय संगीत के इतिहास में अपने गाए गानों की रिकॉर्डिंग करवायी। इसलिए गौहर जान को 'भारत की पहली रिकॉर्डिंग सुपरस्टार' भी कहा जाता है।
       सन् 1873 में पटना में जन्मी एनजलिना योवर्ड, आगे चलकर 'गौहर जान' कहलायी। गौहर के पिता विल्लियम रोबर्ट योवर्ड एक अमेरिकी थे,जिनका व्यापर आजमगढ़ में था और उनकी माता का नाम विक्टोरिया था। लेकिन दुर्भाग्यवश विल्लियम और विक्टोरिया की शादी ज़्यादा दिनों तक नहीं चल सकी और 1879 में इनदोनों ने एक-दूसरे से तलाक़ ले लिया। तलाक़ के बाद, विक्टोरिया ने कलकत्ता में रहने वाले मलक जान नाम के एक इस्लामी शख्स से निक़ाह किया और अपनी बेटी एनजलिना का नाम बदलकर उन्होंने 'गौहर जान' रखा।
         गौहर की माता एक अच्छी नृत्यांगना थी, नतीज़न वे जल्द ही पुरे कलकत्ता में अपने इस हुनर के विख्यात हो गयी। गौहर ने भी रामपुर के उस्ताद वज़ीर खान , लखनऊ के बिन्दादिन और कलकत्ता के प्यारे साहिब से गायन की तालीम हासिल की। इतना ही नहीं, गौहर ने चरण दास के निर्देशन में द्रुपद, खेयाल, ठुमरी और बंगाली कृतन में भी महारत हासिल की। गौहर ने बहुत जल्द अपनी कलाओं से पुरे देश का ध्यान अपनी ओर कर लिया। जिसके बाद, भारत में पहली बार सन् 1902 में 'ग्रामोफ़ोन कंपनी' ने गौहर से उनके गाए गीतों की रिकॉडिंग करवायी। गौहर को उनके हर गीत के लिए 3000 रुपए दिए गए। सन् 1902 से लेकर 1920 तक गौहर ने दस भाषाओँ में कुल 600 गीतों की रिकॉर्डिंग करवा कर, एक नया इतिहास रचा।
       गौहर जान अपने समय की सबसे विख्यात और अमीर गायिका थी। उन्हें पुरे देश में उनकी कलाओं और शाही जीवन-शैली के लिए जाना जाता था। गौहर ने जमींदार निमाई सेन से विवाह रचाया, लेकिन जल्द ही आपसी तालमेल ना हो पाने की वजह से दोनों अलग हो गए और  गौहर को वैवाहिक जीवन का सुख नसीब ना हो सका। 1 अगस्त 1928 को मैसूर के राजा कृष्ण राजा वडियार -चतुर्थ ने गौहर को अपने दरबारी संगीतकार के तौर पर नियुक्त कर सम्मानित किया। और 17 जनवरी 1930 को गौहर जान इस दुनिया से रुख़्सत हुई।
     इस तरह भारतीय संगीत के रिकॉर्ड में पहली रिकॉर्ड आवाज की मल्लिका ने भारतीय संगीत को एक नए मुक़ाम तक पहुंचाया। पर दुर्भाग्यवश हमारा इतिहास इस हस्ती के पन्ने को सहेज ना सका। कहते है ना कि इंसान मरते है उनके विचार नहीं। ठीक उसी तर्ज़ पर शायद हाल में आयीं फ़िल्म 'सत्याग्रह' के गाने 'रस के भरे तोरे नैन' में गौहर जान के बोल मानों दुबारा जी उठे।

स्वाती सिंह

शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

कई बार, ऐसा होता है.....

कई बार, ऐसा होता है.........!!!!!!

कई बार,
ऐसा होता है.....
कि किसी शख्स से हम ये उम्मीद कर बैठते है.....
कि वो बिना कहे हमारी अनकही बातों को समझ लें.....
लफ्जों से परे हमारे जज़्बात समझ लें....

यूँ तो ये उम्मीद बड़ी ख्याली.....
या यूँ कहें नासमझ-सी लगती है।
लेकिन अब क्या किया जाए.....

कमबख्त ये उम्मीद अक्सर जिन्दगी के कई मोड़ पर यूँ ही आ टिकती है।
जब हमारी नजरें उस शख्स की तलाश करने लगती है.....
जो है ही नहीं......
या जो कभी था ही नहीं.....!!!!!!!!

स्वाती सिंह

कभी-कभी

'कभी - कभी '.....!!!

कभी-कभी ज़ेहन में कई सवाल उठते है,
कई ख्याल आते है,
पिछ्ली धोखे की तबाही को लेकर....!!!

( पर एक बार फिर, ये कमबख्त शब्द )

       'लेकिन'

किससे की जाए ये बातें.....!!!
भरोसे का चीराग आँखों में लिए.....!!
लबों से लेकर दिल तक की जुबां को बन्द कर जाती है।

और एक बार फिर,

लाखों लोगों के बीच, एक अकेलापन;
दिल में सिमट कर,
खुद को एक झूठी मुस्कान की चादर से ढ़क लेता है।

स्वाती सिंह

सोमवार, 2 फ़रवरी 2015

भारत-पाक समस्या: उपजी? या उपजाई.?

राजमोहन गाँधी( प्रसिद्ध इतिहासकार,दार्शनिक और पत्रकार) ने  भारत के सन्दर्भ में कहा था कि, "भारतीय इतिहास की कई घटनाएं इस बात की गवाह हैं कि दुश्मन का मुकाबला करने के लिए तो हमारी एकता कई बार बनी लेकिन दुश्मन पर विजय पाने के बाद हम क्या करेंगे,भावी मुकम्मिल योजना क्या होगी,यह विचार देश में मुकम्मिल ढंग से आगे नहीं बढ़ पाया। आज़ादी तो मिल गयी लेकिन आज़ादी के बाद की दुनिया हम कैसे बनाएँगे उसके बारे में बहुत स्पष्टता नहीं थी"।भारत-पाकिस्तान सीमा पर लगातार बढ़ते तनाव की घटनाओं को देख कर राजमोहन की ये बातें सच लगने लगती है।अंग्रेजी हुकूमत से यूँ तो हमारा देश 1947 में आज़ाद हुआ लेकिन क्या ये एक वास्तविक आज़ादी थी? ये कह पाना मुश्किल था, क्योंकि उन्होंने भारत की अखण्डता और एकता में 'फूट डालों,राज करो' नीति के तहत एक ऐसा विष घोला कि भारत में लोकतन्त्र की स्थापना के साथ पाकिस्तान का एक अलग राष्ट्र के रूप में उदय हुआ। भारत से पाकिस्तान का अलगाव खून-खराबें के साथ हुआ,जिसके फलस्वरूप नव-निर्मित दोनों राष्ट्रों के नागरिकों के बीच विद्वेष का स्थायी भाव उपजा जो निरंतर कम-ज़्यादा होते हुए आज भी कमोबेश उसी रूप में परिलक्षित होता है। रहीमदास जी का एक दोहा है-
             ' रहिमन धागा प्रेम का,मत तोरेहु चटकाय।
                टूटे से फिरि ना जुरै, जुरै गांठ परि जाय।।'
जो भारत और पकिस्तान के रिश्तों के लिए एकदम सटीक मालूम होता है। तत्कालीन नेताओं की सत्ता को लेकर लोलुप्ता इस विभाजन का मूल कारण बनी। जिसका भुगतान तब से लेकर आज तक दोनों देशों के नागरिक कर रहे है। कभी सीमा पर अपने-अपने देशों के सिपाही बन शहीद होकर, तो कभी सुरक्षा के नाम पर अपने घरों को छोड़ कर पलायन करने में। मानव-निर्मित इन तमाम परिस्थितियों ने भले ही इन दो देशों के दिलों को जुदा कर दिया हो,लेकिन कुदरत आज भी इन्हें एक मानती है। हिमालय पर्वत इन तमाम विद्वेष को नज़रअंदाज कर आज भी इन दोनों राष्ट्रों का शिरमौर्य है। हिमालय की तलहटी से निकलने वाली नदियां बिना किसी भेदभाव के दोनों राष्ट्रों की प्यास बुझाती है। भाषा हो या लोगों की रूप रेखा दोनों राष्ट्रों में ज़्यादा फ़र्क नहीं दिखाई पड़ता, यदि देखने वाले की नज़र का नजरिया एकता हो।
भारत पकिस्तान के बीच सम्बन्ध दिन-प्रतिदिन बिगड़ते जा रहे है, जिनका समाधान करना दोनों राष्ट्रों के विकास और सुरक्षा के लिए एक अनिवार्य पहलू है। लेकिन अब प्रश्न आता है कि आखिर इनके सम्बन्ध कैसे सुधारे जा सकते है? ऐसा नहीं कि पाकिस्तान से सम्बन्ध सुधारने की कोशिश नहीं की गई, लेकिन अगर कोशिश की गई तो आखिर कमी कहाँ रह गई? इस बात पर गौर करने के बाद ही कोई योजना बनाई जा सकती है।
            सिक्के के दो पहलुओं को तरह भारत और पाकिस्तान के बीच जितनी समानताएं है उतनी ही विषमताएं भी विद्यमान है। भारत में जहां सरकार लोगों के द्वारा चुनी जाती है तो वहीं पकिस्तान की निर्धारित राजनीति-प्रणाली के विरुद्ध सैन्य शक्ति के आधार पर सरकार चुनी जाती है,जिनका मूलाधार होता है 'आतंक'( जैसे -परवेज मुशर्रफ द्वारा आतंक के बल पर सत्ता में आना )। अब बात की जाय लोकतन्त्र के चौथे स्तंभ यानी मीडिया की तो जहां भारत में मीडिया को एक अच्छे लोकतन्त्र की विशेषता के अभिव्यक्ति की स्व्तंत्रता के तहत पूर्ण-स्व्तंत्रता प्राप्त है। वहीं पाकिस्तान में मीडिया का नाम तो है लेकिन उनकी स्वतन्त्रता की वैद्यता सत्ताधारी के फ़ायदे पर शुरू होती है और वहीं पर खत्म। भारत और पाकिस्तान के बीच की ये दो विषमताएं मूलतः दोनों राष्ट्रों के बीच दूरियों का कारण है।
जैसा की हम सभी जानते है किसी भी राष्ट्र की राजनीतिक-प्रणाली उस देश की स्तिथि के लिए जिम्मेदार होती है। यदि सत्ता की नींव आतंक पर रखी गई है तो हमेशा आतंक को बढ़ावा देगी, फिर क्या मुम्बई की 26/11 की घटना और क्या पेशावर के सैनिक स्कूल में बच्चों  को मौत के घाट उतारना। पाकिस्तान में चुनाव के वक़्त कश्मीर के मुद्दे का इस्तेमाल एक गड़े हुए मुर्दे की तरह सालों से चला आ रहा है,जिनके दम पर वहां अपनी सत्ता लायी जा सके। नतीज़न भारत में मीडिया जहां आँख बन्द करके आतंकवाद के मसले पर पाकिस्तान का प्रदर्शन इस तरह करता है कि मानों हर पाकिस्तानी आतंकवादी है, तो वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तानी मीडिया आतंकवाद की भेंट चढ़े अपने बच्चों की मौत पर सब जानते हुए भी चुप्पी साधने को मजबूर कर दिया जाता है।
पाकिस्तान की बुनियाद, मजहबी घृणा को बढ़ावा देकर,निजी महत्वक्षाओं की पूर्ति का सेतु बनाकर और विनाशक एवं विभाजनकारी प्रवित्तियों को जन्म देते हुए रखी गई थी। नतीज़न 63 वर्षों में एक अलग देश के रूप में स्थान पाने के अलावा यदि कुछ पाया है तो वो है देश की राजनीतिक अस्थिरता के सायों में बनती बिगड़ती ऐसी सरकारें जो सीमाओं के अंदर सम्पन्नता के मजबूत आधारों को सुनिश्चित करने में असफल रहीं। और अपनी इस विफलता पर बखूबी पर्दा डालते हुए हर बार कश्मीर के मुद्दे को जीवित रख कर असंख्य लोगों की मजहबी भावनाओं को बार-बार उभरता आया है।
         भारत-पाकिस्तान की स्तिथि के विवरण के उपरांत, अब सवाल उठता है कि आखिर कैसे इन दो देशों के बीच घुली इस कड़वाहट को कम किया है? महात्मा बुद्ध ने अपने बताए हुए चार आर्य सत्यों में बताया था कि यदि दुनिया में दुःख है तो दुःख का कारण भी है और यदि कारण है तो निवारण भी है। इसी तर्ज़ पर भारत-पाकिस्तान के रिश्ते बिगड़ने के तमाम कारण रहें हो,लेकिन उन्हें सुधारने के भी कई उपाय है। बस इंतज़ार है तो इन उपायों को खोज कर इनपर काम करने का।

स्वाती सिंह