शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

राष्ट्रीय अनुसंधान एवं विकास संगठन ( DRDO )

राष्ट्रीय अनुसंधान एवं विकास संगठन देश में राष्ट्र के प्रति निस्वार्थ सेवा भावना से जुड़ा एक अहम संस्थान है। ये संस्थान भारतीय सेना, नौसेना तथा वायु सेना के उपयोग  में आने वाले रणनीतिक,जटिल और संवेदनशील शस्त्र प्रणालियों के डिजाइन एवं विकास के जरिए डिफेन्स टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में देश को आत्म-निर्भर बनाने की दिशा में अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहा है। इस संस्थान की स्थापना सैन्य प्रौद्योगिक के विभिन्न क्षेत्रों के विश्व स्तरीय हथियार-प्रणाली का विकास करने एवं नवीनतम टेक्नोलॉजी के साथ भारत को स्वावलंबी व शक्ति संपन्न करने के लिए किया गया है।

आज भारत बहुस्तरीय सामरिक डिटरेन्स प्रणालियों से संपन्न विश्व के चार राष्ट्रों में से एक है। भारत उन पांच देशों में से एक है जो दुश्मन द्वारा दागी गई बैलस्टिक मिसाइल को नष्ट कर सकने की क्षमता रखता है। भारत उन सात देशों में शामिल है जिन्होंने स्वदेश में मुख्य युद्धक टैंक एवं उन्नत रडार प्रणालियां विकसित की है। ये एक व्यापक रेंज है लेकिन इसके पीछे एक लम्बी और कड़ी मेहनत शामिल है, जिसमें व्यापक प्रयोग, परीक्षण व कठिन परिश्रम द्वारा अर्जित सफलताएं शामिल है।

कष्टप्रद शुरुआत

आज़ादी के बाद से ही खतरों की आशंकाओं और आरएंडडी इंफ्रास्ट्रक्चर के नितांत अभाव में भारतीय रक्षा सेवाओं को वस्तुतः शून्य से शरुआत करनी पड़ी। इस क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए एक दुर्गम यात्रा से गुजरना पड़ा, क्योंकि उन्नत रक्षा प्रौघोगिकियों से संपन्न विकसित देशों ने "टेक्नोलॉजी डिनायल" एक अन्य प्रकार की चुनौतियों के बाद भी भारत को एक मजबूत व आत्मनिर्भर राष्ट्र के रूप में उदित करने की हरसंभव कोशिश की।

भारत को रक्षा के क्षेत्र में आयात पर काफी अधिक निर्भर रहना पड़ा, लेकिन विदेशी शक्तियां भारत को केवल ऐसे हथियार ही देने की इच्छुक थी, जो उनके लिए पुराने पड़ चुके थे।इन्हीं परिस्थितियों के बीच डीआरडीओ का वजूद सामने आया। इसका गठन 1958 में भारतीय सेना के पहले से ही काम कर रहे टेक्निकल डेवलपमेंट इस्टैब्लिशमेंट (टीडीई), डिफेन्स साइंस आर्गेनाइजेशन (डी एस ओ) तथा डकोरेटेड ऑफ़ टेक्निकल डेवलपमेंट एन्ड प्रोडक्शन (डी टी डी पी) निदेशालय के समन्वय के बाद हुआ।

डीआरडीयो ने उन अहम टेक्नोलॉजी को समझने पर ध्यान केंद्रित किया, जिसमें दूसरे देश हमारे साथ साझा करना नहीं चाहते थे। उस वक़्त ये केवल 10 Establishment या प्रयोगशालाओं का एक छोटा संगठन था। हमारे सैन्य बलों को विकसित देशों की निर्यात नियंत्रण व्यवस्थाओं का सामना करने में मदद करते हुए डीआरडीयो ने प्रगतिशील तरीके से अत्याधुनिक प्रतिरक्षा प्रणालियों के विकास के जरिए उनकी मुठभेड़ कुशलता को बढ़ाया है।

1980 में एक अलग डिफेन्स रिसर्च एंड डेवलपमेंट आर्गेनाइजेशन का गठन किया गया, जो अब डीआरडीयो तथा इसकी 52 प्रयोगशालाओं एवं इस्टेबिश्मेंट्स का संचालन करता है। 7700 वैज्ञानिकों एवं 20 हज़ार से अधिक टेक्निकल तथा सपोर्टिंग कर्मचारियों के साथ डीआरडीयो आज विभिन्न विषयों को कवर करने वाले रक्षा प्रौद्योगिकियों के विकास में गहरे रूप से जुड़ा हुआ है।

उपलब्धियाँ

डीआरडीयो के मिशन में रक्षा सेवाओं के लिए अत्याधुनिक सेंसर्स,हथियार प्रणाली,प्लेटफार्म तथा सहायक उपकरणों का उत्पादन करना, मुठभेड़ की प्रभावोत्पादकता को अधिनियम सीमा तक बढ़ाने के लिए सेना को तेचनोलॉजिकल साल्यूशंस मुहैया कराना, सैनिकों के कल्याण को बढ़ावा देना, प्रतिबद्ध क्वालिटी मैनपावर का विकास करना एवं एक मजबूत स्वदेशी टेक्नोलॉजी पर आधारित हथियारों एवं सैन्य उपकरणों का उत्पादन मूल्य, जिनके आर्डर रक्षा सेनाएं दे चुकी है।

अग्नि-5 की पहली उड़ान प्रोजेक्ट की मंजूरी मिलने से तीन साल में ही संभव हो गई क्योंकि  इसके पीछे तीन दशकों का समर्पण, इनोवेशन एवं डीआरडीयो की टीम की कड़ी मेहनत शामिल है।

यही नहीं, डीआरडीयो ने विभिन्न कंपोनेंट सब-सिस्टम तथा सिस्टम तथा कंप्लीट एयरबार्न प्लेटफार्म के लिए टेस्टिंग एवं सार्टिफिकेशन के क्षेत्र में भी विशेषज्ञता हासिल कर ली है।

डीआरडीयो ने सफलतापूर्वक मॉडलिंग एवं सिमुलेशन के जरिये इन्फैंट्री कॉम्बेट व्हीकल्स एओलिकेशन जैसे वर्चुअल प्रोटोटाइप,एडवांस्ड रनिंग गियर सिस्टम, आकिजलरी पावर यूनिट, वाटर लेट प्रोबेल्शन तथा शाक रेसिस्टैंस सीट्स के लिए टेक्नोलॉजी का डिजाइन एवं विकास किया गया।

स्वाती सिंह

दूरगामी क्रांति के नायक : पण्डित मदन मोहन मालवीय

भारतवर्ष जब दासता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था, तब जहां एक ओर आज़ादी की लड़ाई इस दासता की जंजीरों को तोड़ फेकने की दिशा में संघर्षरत थी। वहीं दूसरी ओर, एक क्रांति आज़ाद देश की परिपक्व नींव रखने की तैयारी में जुटीं थी। इस क्रांति में वे लोग शामिल थे, जिनका लक्ष्य सिर्फ देश को दासता से मुक्त कराना मात्र नहीं था, बल्कि आज़ाद देश की ऐसी मजबूत नींव का भी निर्माण करना था, जिससे देश विकास की दिशा में अग्रसरित हो सके।

                       आज़ादी के बाद, भारतवर्ष के उज्जवल भविष्य की नींव धरने में भारत के कई विभूतियो ने अदभुत योगदान दिया। जिनकी मेहनत और दूरगामी सोच की मिशाल के तौर में आज भी हमें देखने को मिलते। ऐसी ही एक मिशाल का साक्षी बना, वरुणा और अस्सी के बीच बसे शहर 'वाराणसी'। जहां स्थित है, एशिया में 'सर्वविद्या की राजधानी' के नाम से जाना जाने वाला - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय। शिक्षा के इस भव्य मन्दिर के निर्माण का श्रेय जाता है, पण्डित मदन मोहन मालवीय।
पं. मदन मोहन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन विभूतियों में से है, जिन्होंने तत्कालिक संग्राम में अपना अदभुत योगदान देने के साथ-ही-साथ देश के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए सुदृण नींव भी रखी।

पण्डित मदन मोहन का जन्म 25 दिसम्बर सन् 1891 में इलाहाबाद के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनकी माता का नाम 'मूना देवी' और उनके पिता का नाम 'बृजनाथ' था। वे अपने माता-पिता की पाँचवी संतान थे। मदन मोहन के पूर्वज मालवा में संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे, जिससे उन्हें 'मालवीय' के नाम से जाना जाता है। मालवीय जी ने जुलाई 1884 में इलाहाबाद जिला स्कूल में बतौर शिक्षक अपने करियर की शुरुआत की। दिसम्बर 1886 में, दादाभाई नैरोजी की अध्यक्षता में कांग्रेस का दूसरा सम्मेलन कलकत्ता में हुआ, जहां मालवीय जी ने भाग लिया । मालवीय जी के विचारों से न केवल दादाभाई नैरोजी प्रभावित हुए, बल्कि हिंदी  साप्ताहिक अखबार 'हिंदुस्तान' के सम्पादक राजा रामपाल सिंह भी बेहद प्रभावित हुए।

मालवीय जी चार बार ( 1990, 1918,1930 और 1932) भारतीय कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। सन् 1930 में, उन्होंने प्रथम गोलमेज सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व भी किया। मालवीय जी एक राष्ट्रवादी नेता होने के साथ-ही-साथ सफल पत्रकार भी रहे है। सन् 1924 से 1946 तक मालवीय जी 'हिन्दुस्तान टाइम्स' के प्रमुख भी रहे। उन्होंने 'द इण्डियन यूनियन' में सम्पादक के तौर पर भी काम किया। मालवीय जी ने 'अभ्युदय' नामक एक साप्ताहिक हिंदी पत्रिका की भी शुरुआत की।

            मालवीय जी ने राजनीति और पत्रकारिता के क्षेत्र में अपने योगदान से सफलता की एक अविस्मरणीय दास्तां लिखी। लेकिन इन दोनों क्षेत्रों के अलावा मालवीय ने शिक्षा के क्षेत्र में भी अपने अदभुत व्यक्तित्व के तेज़ से शिक्षा की दिव्य ज्योति को अखण्ड ज्योति में तब्दील किया। शिक्षा के क्षेत्र में मालवीय जी के योगदान की मिशाल है, वाराणसी में मालवीय जी द्वारा निर्मित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय। अप्रैल 1911 में जब मालवीय जी की मुलाकात एनी बिसेन्ट से हुई, तो उनदोनो ने वाराणसी में 'हिन्दू विश्वविद्यालय' के निर्माण कार्य का निश्चय किया। मालवीय जी ने विश्वविद्यालय के निर्माण-कार्य के लिए भारत के कई राजा-महाराजों से मदद ली। सन् 1915 में बी. एच.यू एक्ट के तहत, 1916 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का निर्माण हुआ।  मालवीय जी सन् 1919 से 1938 तक विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। आज काशी हिन्दू विश्वविद्यालय भारत में शिक्षा के प्रमुख केंद्रों में से एक है।

वर्ष 2015 में, मदन मोहन मालवीय जी को भारत के उच्च सम्मान 'भारतरत्न' से सम्मानित किया। मालवीय जी के महान कार्यों को सम्मानित करते हुए, उन्हें 'महामना' की उपाधि से भी सम्मानित किया गया। मालवीय जी के सम्मान में उनके नाम से इलाहाबाद,भोपाल,दुर्ग,लखनऊ,दिल्ली और जयपुर में 'मालवीय नगर' की स्थापना की गयी और मालवीय नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी, जयपुर व मदन मोहन मालवीय इंजीनीयरिंग कॉलेज, (गोरखपुर) की स्थापना की गई।

मदन मोहन मालवीय जी ने 12 नवम्बर, 1946 में दुनिया को अलविदा कह दिया। मालवीय जी उन हस्तियों में से एक जिन्हें याद करने की ज़रूरत नहीं होती, क्योंकि उनके महान कार्य की मिशालें आज भी उन्हें जीवन्त रखती है, जो उनके व्यक्तित्व को भूलने की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ते। मालवीय जी के महान विचार आज भी उनकी बसायी शिक्षा की राजधानी (बी.एच.यू) की फ़िज़ाओं में घुली है।

स्वाती सिंह
 

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

नक्सलवाद : एक परिचय

' कभी-कभी इतिहास एक गृहणी की तरह काम करता है। वह वर्तमान के कानों में फुसफुसा कर बताता है कि अतीत की घटनाओं का असर किस तरह भविष्य पर पड़ने जा रहा है। अब ये तो वर्तमान पर निर्भर करता है कि वह इस तरफ अपने कैमरे को घुमाएं या फिर चकाचौंध की अन्धी दौड़ में भागता रहा । '- अमुक

आज़ादी के करीब साढ़े छह दशकों में, सूचना और तकनीक के क्षेत्र में भारत ने अपना परचम दुनिया में लहरा दिया है। औद्योगिककिरण और भौगोलिकिकरण की दौड़ में हम दुनिया के साथ कदम-से-कदम मिला कर चल रहे है। इसी की देन है,जो आज दुनिया के हर एक कोने-कोने से हम इस कदर जुड़ चुके हैं कि सात समन्दर पार की हर एक हलचल की हमें पलक झपकते मिलती है।सूचना और तकनीक की तरक्की ने मानो "दूरी" शब्द को ही शहरी-जीवन के शब्दकोश से गायब कर दिया है।             

      लेकिन दुर्भाग्यवश! तरक्की की इस अन्धी दौड़ में हम अपने वर्तमान को बुरी तरह रौंद कर अपनी हिस्सेदारी इस अंधी दौड़ में  दर्ज़ कराने को आतुर है। इस दौड़ ने आज हमें वास्तविकता से इतनी दूरी पर पहुंचा दिया है, जहां हमें ना तो अपनी ज़मीनी हक़ीक़त दिखाई पड़ती है और ना ही अपनी समाज की छिपी कड़वी सच्चाई।आज हमारी बातों में 'देश के विकास' का मुद्दा सबसे लोकप्रिय है। जिसमें हम बात करते है, जीडीपी की, सेंसेक्स की और निवेश नीति इत्यादि की। लेकिन इन बातों में हम अक्सर हम ये भूल जाते है कि ये वो देश है जहां शहरों में विकास की चमकदार धूम तो दिख रही है लेकिन इसके विपरीत यहां के गांव आज भी गरीबी से संघर्ष और तमाम अन्य सामाजिक समस्यायों अँधेरी चादर में लिपटे है और देश में आज भी लगभग साठ फ़ीसद जनता गाँवों में निवास करती है।       

       भारतीय लोकतंत्र दुनिया का एक ऐसा अजूबा लोकतंत्र है,जिसके भीतर एक जनवादी लोकतंत्र की स्थापना के लिए शुरू से ही आन्दोलन होते रहे हैं। सभी आंदोलनों के रंग-रूप अलग-अलग वैचारिक समूहों में बंटे रहे हैं.भारतीय लोकतंत्र कुछ खास मुट्ठीभर परिवारों में सिमटा हुआ है। बड़े पैमाने पर बहुसंख्यक अवाम कोजल,जंगल और जमीन से बेदखल किया जा रहा है। भारतीय मीडिया में तकरीबन 80 फीसदी कार्पोरेट घरानों का कब्ज़ा। ’माईनिंग’ से लगायत ‘मीडिया’ तक इन्हीं का वर्चस्व है।छत्तीसगढ़ प्राकृतिक संसाधनों के परिपेक्ष्य में सबसे धनी राज्य माना जाता है। जहां ना केवल शाल और सागौन के इफ़रात जंगल है बल्कि यहां स्टील, बॉक्साइट, हीरे और सोने की खाने है। लेकिन इस सम्पदा के बावजूद ये राज्य विकास की चकाचौंध के विपरीत अँधेरे में गुम पिछड़े राज्य के नाम से जाना जाता है।यूँ तो छत्तीसगढ़ में 30 से अधिक विभिन्न समुदाय और भाषा के लोग एक-साथ निवास करते है लेकिन अगर उन्हें कोई एक चीज़ एकजुट करती है तो वो है-गरीबी और अलगाव।लेकिन ये कहानी सिर्फ छत्तीसगढ़ तक सीमित नहीं है बल्कि झारखण्ड, बिहार,उड़ीसा और बंगाल तथा भारत के अन्य कई राज्य जो प्राकृतिक सम्पदा से धनी है ये स्थिति हर उस राज्य की है। क्योंकि इन राज्यों के विकास के लिए सरकार द्वारा जो भी नीति बनायी जाती है वो इनके पास नहीं पहुंच पाती, जिससे यहां की स्थिति जस की तस बनी हुई है और इससे उपजा नक्सलवाद आन्दोलन अब धीरे-धीरे एक विकराल रूप धारण करता जा रहा है।स्वतंत्र भारत के इतिहास में नक्सलवादी आंदोलन एक महत्वपूर्ण किसान आंदोलन है। यह पहला ऐसा आंदोलन है जिसमें गरीब किसानों के साथ-साथ भूमिहीन खेतिहर मजदूरों ने हिस्सा लिया और बहुत हद तक उसे नेतृत्व भी प्रदान किया। मार्क्स,लेनिन और माओ-तने-तुंग के विचारों से प्रेरित इस आंदोलन की शुरुआत मई 1967 में पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी सब डिवीजन के नक्सलबाड़ी इलाके से हुई, जिसकी अगुआई की- चारु मजूमदार ने ।        

      पांच सौ वर्ग किलोमीटर में फैला पश्चिम बंगाल का नक्सलबाड़ी का इलाका तीन पुलिस थानों के अधीन था-नक्सलबाड़ी, खारीबड़ी और फांसीदेवा। नक्सलबाड़ी का क्षेत्र नेपाल और पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से लगा हुआ था और यहां की आबादी में ज़्यादातर आदिवासी थे जो संथाल, ओरांव, मुंडा और राजवंशी समुदायों से आते थे।     

  चारू मजमुदार –सिलीगुड़ी के एक जमींदार परिवार में 1918 में चारू मजमुदार का जन्म हुआ। पिता एक प्रतिष्ठित स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, अतः स्वाभाविक ही कोलेज छोड़ने के बाद 1937 – 38 में उन्होंने कांग्रेस ज्वाईन की तथा बीडी मजदूरों को संगठित करने में शक्ति लगाई। किन्तु बाद में सीपीआई में सम्मिलित होकर किसान आन्दोलन से जुड़े। जल्द ही जलपाईगुडी के गरीबों में उनका सम्मान बढ़ गया ।1942 के विश्वयुद्ध काल में सीपीआई पर प्रतिबन्ध लगाया गया तो चारु को भी भूमिगत होना पडा।  1948 में पुनः सीपीआई पर प्रतिबन्ध लगा और तीन वर्ष चारु मजमुदार को जेल में रहना पडा। जनवरी 1954 में जलपाईगुड़ी की ही अपनी साथी भाकपा सदस्य लीला मजूमदार सेनगुप्ता के साथ वे मंगल परिणय सूत्र में बंधे।बीमार पिता और अविवाहित बहिन के साथ नवयुगल सिलीगुड़ी में रहने लगे ।अतिशय गरीबी में भी उन्होंने मजदूरों, चाय बगान मजदूरों व रिक्शा चालकों को संगठित करना जारी रखा।1962 के भारत चीन युद्ध के समय उन्हें फिर जेल में रहना पडा, जहां खराब स्वास्थ्य के बीच भी उन्होंने माओ के विचारों का अध्ययन किया। 1964 में जब सीपीआई का विभाजन हुआ तब वे सीपीआई (एम) के साथ गए ।65 से 67 के बीच दिए गए उनके भाषण और लिखे गए लेख आगे चलकर “ऐतिहासिक आठ दस्तावेज” कहलाये, जो नक्सलवादी विचार का आधार बने।         

       1967 में जब सीपीएम ने चुनाव लड़ने व उसके बाद बंगला कांग्रेस के साथ मिलकर साझा सरकार बनाने का निर्णय लिया तो चारु ने इसे क्रान्ति के साथ धोखा करार दिया। उसी वर्ष पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के नक्सलवाडी में अपनी जमीन जोतने का न्यायालयीन आदेश होने के बाबजूद 2 मार्च को स्थानीय जमींदारों के गुंडों ने एक आदिवासी युवा पर हमला किया तथा जबरदस्ती भूमि पर कब्जा कर लिया । इस के बाद चारू मजूमदार के नेतृत्व में विद्रोही कार्यकर्ताओं ने किसानों के विद्रोह का प्रारम्भ किया । किसानों के विद्रोह शुरू करने पर सीपीआई (एम) के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार ने विद्रोहियों को सख्ती से दबाने का प्रयास किया और " विद्रोह " के 72 दिनों में एक पुलिस उप निरीक्षक सहित नौ आदिवासियों की मौत हो गई । केंद्र की कांग्रेस सरकार ने भी इस दमनात्मक कार्रवाई का समर्थन किया । इस घटना की गूँज पूरे भारत में हुई और इस प्रकार नक्सलवाद का जन्म हुआ ।         

 16 जुलाई को 1972 को कोलकाता में चारु मजूमदार को गिरफ्तार कर लिया गया तथा 28 जुलाई को लाल बाजार पुलिस लॉक अप में उनकी मृत्यु हो गई । लाल बाज़ार लॉक अप की पुलिस हिरासत में वे दस दिन रहे किन्तु इस दौरान किसी को भी उनसे मिलने या देखने की अनुमति नहीं दी गई । यहाँ तक कि वकील, परिवार के सदस्य या डॉक्टर को भी नहीं । लाल बाजार लॉक अप सबसे भयानक और क्रूर अत्याचार के लिए देश भर में जाना जाता था ।उसी लॉक अप में 28 जुलाई 1972 को 4:00 पर चारू का निधन हो गया । क्रांतिकारी संघर्ष को गंभीर झटका लगा ।भाकपा (माले) की केंद्रीय सत्ता बिखर गई । अन्याय अत्याचार और शोषण का विरोध करने वाले किसी नायक की स्वतंत्र भारत में इस प्रकार की त्रासद मृत्यु निश्चय ही कलंक है । कितनी विचित्र बात हैकि उनके सहयोगी कनु सान्याल ने भी 2010 में आत्मह्त्या का मार्ग अंगीकार किया।      

सामन्तवाद सबसे बड़ा कारण है, जिसने नक्सलवाद के शुरू होने में भूमिका निभायी। नक्सल विचारक और कवि वखरा राव ने अपनी जेल-डायरी में एक बड़े सामन्त विशनूर देशमुख के खेतों में काम करने वाली मजदूर महिलाओं की पीड़ा का जबर्दस्त वर्णन किया है। एक बार की घटना है जब उन महिलाओं ने उससे विनती की कि अपने बच्चों को दूध पिलाने के लिए वह उन्हें थोड़ी देर के लिए खेत से बाहर जाने दे। तो बताया जाता है कि उसने एक मिट्टी का घड़ा मंगवाया और उन औरतों से कहा कि वे उस घड़े में अपने स्तन से दूध निकालकर भरे। इसके बाद, उसने उन औरतों के हाथ से घड़ा छीन लिया और दूध अपने खेतों में बिखेर दिया। इस तरह, क्रूर सामन्तवादियों की रोंगटे खड़ी कर देने वाली घटनाओं ने लोगों को एकजुट होकर आंदोलन करने के लिए मजबूर कर दिया।

इसके साथ-ही-साथ, आन्दोलकरियों ने प्रारंभिक समय में तीन मुद्दों ने इस संघर्ष की शुरुआत में आग में घी का काम किया :-

1-  खेतिहर मजदूरों की मजदूरी में वृद्धि को लेकर नक्सलवादी अपने प्रभाव क्षेत्र में जबर्दस्त आंदोलन जारी रखे हुए है। भूस्वामियों का एक बड़ा हिस्सा स्वयं खेती नहीं करता क्योंकि एक तो सामंती परम्परा उन्हें इसकी इज़ाज़त नहीं देती और दूसरा कि यहां मजदूर सस्ते है। ऐसी स्तिथि में आंदोलन को व्यापक आधार तो मिल रहा है।

2-  नक्सली आंदोलन का दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा है हदबंदी से फाजिल जमीन पर कब्जा करना। हदबंदी से फाजिल जमीन पर वहां के भूस्वामियों ने बेमानी और जबर्दस्ती कब्जा कर रखा है। नक्सलवादी ऐसी जमीनों को उनके कब्जे से छीन कर गरीबों और भूमिहीनों में वितरित करने का दावा करते है। बड़े किसानों के अलावा ऐसी जमीन पर कुछ मध्यम किसानों का भी कब्जा करने के संघर्ष को दायरा विस्तृतहो जाता है और परिणामस्वरूप संघर्ष हिंसक हो उठता है।

3-  नक्सली आंदोलन का तीसरा युद्ध दलितों एवं भूमिहीनों की इज़्ज़त का है। चूँकि यह मुद्दा सामाजिक अपमान से जुड़ा हुआ है और दलित जातियॉ इसका स्वाभाविक शिकार होती है, इसलिए इज़्ज़त के सवाल पर उन्हें संगठित करना आसान हो जाता है। वर्ण और अर्थ विहीन चमार,दुसाध,मुसहर आदि जातियों की औरतों का बड़ी जातियों द्वारा शोषण एक ऐतिहासिक-सामाजिक सच्चाई है ।          

     अतः उपयुक्त तीन प्रमुख मुद्दों पर नक्सलवाद नाम के आंदोलन की नीव पड़ी। नक्सलवाद कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के उस आन्दोलन का अनौपचारिक नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के फलस्वरूप उतपन्न हुआ। नक्सलवाद की उपज मूलतः जमींदारों और खेतिहरों के बीच फसल के बंटवारे को लेकर हुई या यों कहें कि भूमि सुधार इसके केंद्र थे,यानी जो जमीन को जोते वही जमीन का मालिक हो। आज़ादी का भी सबसे बड़ा वादा भूमि सुधार ही था । आज की तारीख में भूमि सुधार सरकार और नक्सली दोनों एजेंडों से बाहर हो चुका है और बहुत से नक्सलवाद के विचारात्मक विचलन की सबसे बड़ी मार आंध्र प्रदेश, छतीसगढ़, उड़ीसा, झारखण्ड और बिहार को झेलनी पड़ रही है। आमतौर पर नक्सल प्रभावित जिले को केंद्र और राज्य सरकार द्वारा इतना पैसा मुहैया करवाया जाता है कि अगर उस पूरे पैसे को ठीक तरह से खर्च किया जाय तो जिले और राज्य की तस्वीर बदल सकती है। मगर ऐसा नहीं हो पाता। आज नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की अधिकांश आबादी बिना बिजली और शौचालय में रहती है।नक्सली हिंसा की शुरुआत को यूँ तो मध्य व पूर्वी भारत के कई हिस्सों में पुलिस ने कुचल दिया लेकिन वे इस विचार को कुचल नहीं सके और वर्तमान समय में भारत में कुल लगभग ग्यारह राज्य नक्सलवाद की समस्या से प्रभावित है।    

  माना जाता है कि भारत के कुल छह सौ से ज़्यादा जिलों में से एक तिहाई नक्सलवादी समस्या से जूझ रहे है। विश्लेषक मानते है कि नक्सलवादियों की सफलता की वजह उन्हें स्थानीय स्तर पर मिलने वाला समर्थक है। नक्सलवादियों का कहना है कि वो उन आदिवासियों और गरीबों के लिए लड़ रहे हैं जिन्हें सरकार ने दशकों से अनदेखा किया है। माओवादियों का दावा है कि वो जमीन के अधिकार और संसाधनों के वितरण के संघर्ष में स्थानीय सरोकारों का प्रतिनिधित्व करते है।              

        कुछ समय पहले एक साक्षात्कार में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह कह रहे थे—“ बस्तर में पिछले 30-40 सालों से नक्सली हैं। वहां पर गरीबी व पिछड़ेपन का मूल कारण भी नक्सली ही हैं। विकास की परिभाषा है कि वहां पर सड़कें बनें, स्कूल बनें, आंगनवाड़ी बने, बिजली हो, संचार व्यवस्था हो, लेकिन नक्सली सभी का विरोध करते हैं। वे विकास करने ही नहीं देना चाहते है। इस देश में विकास और लोकतंत्र के सबसे बड़े विरोधी कोई हैं तो वे नक्सली ही है।“                 

       उधर नक्सली कहते हैं कि सरकार के शोषण के खिलाफ ये लालक्रान्ति है. 2050 तक हम इस देश में मज़दूरों का शासन स्थापित कर देंगे। 21 सितबंर 2004 को पीपुल्स वार ग्रुप और माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर के विलय के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) गठन हुआ। इनका सैनिक संगठन पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) काफी मजबूत है।          

      गरीबों और शोषितों को इंसाफ दिलाने का दावा करने वाले नक्सलियों को भारतीय लोकतंत्र पर विश्वास नहीं है। वे चुनावों का बहिष्कार करते हैं। बदलते वक्त के साथ नक्सलवाद का ढ़ांचा और विचारों में परिवर्तन हो चुका है। सरकारी भवनों को उड़ाना, स्कूल और स्वास्थ्य केंद्रों को नुकसान पहुंचाना इनका प्राथमिक लक्ष्य होता है। इसके पीछे इनका तर्क है कि स्कूलों में शिक्षा की बजाए सुरक्षा बलों को पनाह दी जाती है।           

   एक तरफ, नक्सली जिस रास्ते पर चल रहे हैं उससे अंतत: लाभ होगा वॉर इंडस्ट्री को। खास कर उन्हें जो हथियारों की चोरी-छिपे भारत में अस्त्र-शस्त्र की आपूर्ति को निरंतर बनाये रखना चाहते हैं । इनकी घोर क्रांतिकारिता जैसी शब्दावली ही बकवास है। उसे मानवीय गरिमा की स्थापना की लड़ाई कहना नक्सलवाद का सबसे बड़ा झूठ है । अदृश्य किंतु सबसे बड़ा सत्य तो यही है कि वह सत्ता प्राप्ति का गैर प्रजातांत्रिक और तानाशाही वैचारिकी का हिंसक संघर्ष है । इसकी वैचारिकी के लिए नक्सली माओ की आड़ लेते हैं. सच्चाई तो यही है कि माओत्से तुंग अति राष्ट्रवादी थे। माओ ने लिन प्याओ को अपना उत्तराधिकारी बनाया। वह हमेशा राज्य के हित में और कौमी राज्य के हित में संलग्न रहता था । फिर ये नक्सली किन एजेंडों पर काम कर रहे हैं और किस तरह की नैशनलिज्म की राह पर चल रहे हैं, किसी से छुपा नहीं है अब । नक्सली या माओवादी यदि खून खराबा और हिंसा त्याग दें और बाकी मांगें रखें तो ज्यादा संभव है कि उनका यह संघर्ष समाज और देश के लिए बेहतर साबित हो । लेकिन खेद है कि यह उनका लक्ष्य कम से कम अब तो वह कतई नहीं रहा । यदि ऐसा होता तो वे भी समाज की, देश की अन्य बुराईयों और दासतावादी मानसिकता के विरूद्ध लड़ते । यदि ऐसा होता तो वे न्याय व्यवस्था में सुधार, न्यूनतम मजदूरी या वेतन, मादा भ्रूण हत्या, सांप्रदायिकता, धर्मांधता और अशिक्षा के विपरीत भी एकजूट होते । यदि ऐसा होता तो ये भ्रष्ट्राचार के विरूद्ध सबसे बड़ी लड़ाई लड़ते जो आज वनांचलों की ही नहीं समूचे भारत की सबसे बड़ी समस्य़ा है ।            

    दूसरी तरफ, नक्सलवाद को लेकर सरकारें जिस तरह राजनैतिक रोटी सेंकती रही हैं वह आम जनता की समझ से बाहर कतई नहीं है । नौकरशाह यानी वास्तविक नीति नियंताओं के बीच जनता के कितने हितैषी हैं, ऐसे चेहरों को भी आज जनता पहचानती है । उन्हें समय पर सबक सिखाना भी जानती है पर नक्सलवाद का सबसे चिंताजनक तथ्य यह है कि उसके परिणाम में केवल गरीब, निर्दोष, आदिवासी और कमजोर व्यक्ति ही मारा जा रहा है ।       

   उधर नक्सलियों की जनजातियों के अतिरिक्त, पुलिस, न्याय व्यवस्था, जनप्रतिनिधियों और मीडिया में अच्छी पकड़ बन गई है। जब कभी पुलिस मुखबिर, दलाल आदि को गिरफ्तार करती है तो नक्सलियों के पे-रोल पर काम करने वाले सिविल सोसायटी, एनजीओ के सदस्य मानवाधिकार हनन की गुहार लगाकर अदालत को गुमराह करने में सफल हो जाते हैं।       

पिछले वर्ष 9 सितम्बर को एस.पी.ओ. लिंगाराम जब एस्सार और नक्सलियों के बीच बिचौलिये की भूमिका में धरा गया तो कई राज खुले। इस सत्य को स्वीकारने के बजाय नक्सलियों ने अपने कथित मानवाधिकार हनन के नेटवर्क के जरिये स्वामी अग्निवेश और प्रशांत भूषण से प्रेस कान्फ्रेंस कराकर प्रशासन को दागी बनाने का कुचक्र किया। हिमांशु ने बयान दिया कि लिंगाराम ने नोयडा स्थित इंटरनेशनल मीडिया इंस्टीट्यूट ऑफ इण्डिया में पढ़ाई की और उसकी संलिप्तता नहीं है। विगत एक दशक से छत्तीसगढ़ में रह रहा हिमांशु वनवासी चेतना आश्रम के बैनर तले नक्सलियों की मदद करता है। उसकी पैदल यात्रा का वनवासियों ने काफी विरोध भी किया था। पुलिस के मुताबिक, ऐसे कई लोग नक्सलियों के पे-रोल पर काम करते हैं। पी.यू.सी.एल. लंबे अर्से से मानवाधिकार की रक्षा के नाम पर वाम उग्रवादियों की मदद करता है।           

  बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ में सक्रिय नक्सली संगठन भाकपा माओवादी द्वारा इन दिनों सैकड़ों की संख्या में 10 से 16 साल की उम्र के बच्चों को हथियार चलाने और बारूदी सुरंग बिछाने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है.जिस उम्र में बच्चों के हाथों में क़लम और किताब होने चाहिए थे, इन बच्चों के हाथों में घातक हथियार हैं.झारखंड के लगभग हर ज़िले में नक्सलियों का ऐसा बाल दस्ता है, जिनमें 18-20 बच्चे शामिल हैं. कुछ इलाके में तो ऐसे बाल नक्सली दस्ते की संख्या दर्ज़नों में है.नक्सली दस्ते में शामिल अधिकांश बच्चे दलित, पिछड़े और आदिवासी वर्ग के हैं.चतरा इलाके में सक्रिय सब ज़ोनल कमांडर आकाश कहते हैं- "अशिक्षा, ग़रीबी और शोषण की मार सहने वाले इन बच्चों को हम संगठन में शिक्षा देने का भी काम कर रहे हैं. आम तौर पर इन्हें हथियारबंद दस्ते में सक्रिय भूमिका नहीं दी जाती. लेकिन ज़रुरत के हिसाब से इन्हें हथियारों का प्रशिक्षण देना ही पड़ता है."

आकाश का दावा है कि इन बच्चों को नक्सली संगठन में शामिल करके वो एक ऐसी क्रांतिकारी फ़ौज़ का निर्माण कर रहे हैं, जो आने वाले दिनों में शारीरिक और मानसिक रुप से हर ख़तरे का सामना कर पाने में सक्षम होगा.नक्सलियों की इस तथाकथित लालक्रान्ति का एक जबरदस्त आर्थिक पहलू भी है. कुछ दिनों पहले तक मघ्यप्रदेश और राजस्थान के अलावा कहीं और अफीम की खेती करने के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था। किंतु अब उत्तरप्रदेश में भी इसकी खेती होने लगी है। हाल ही में इस श्रेणी में बिहार और झारखंड का नाम भी शामिल हो गया है। दरअसल बिहार और झारखंड के कुछ जिलों में गैरकानूनी तरीके से अफीम की खेती की जा रही है।अफीम की खेती पठारों और पहाड़ों पर भी हो सकती है। अगर पठारों और पहाड़ों पर उपलब्ध मिट्टी की उर्वराशक्ति अच्छी होगी तो अफीम का उत्पादन भी वहाँ अच्छा होगा।इस तथ्य को बिहार और झारखंड में कार्यरत नक्सलियों ने बहुत बढ़िया से ताड़ा है।        

    अब तक हुए आंदोलनों में नक्सलवाद ही एक ऐसा आंदोलन है,जो तमाम सरकारी दमन के बावजूद न केवलटिका है,बल्कि जिंदा है.केंद्र और राज्य की सरकारें नक्सलवाद को कानून और व्यवस्था की समस्या मानकर इसका इलाज गोला-बारूद,अत्याधुनिक असलहों और बड़े पैमाने पर पुलिस थाना खोलकर कर रही हैं.कुल मिलाकर सरकारें,नक्सलवाद का हल बंदूक की नोंक पर तलाश रही हैं.आए दिन सर्च आपरेशन और मुठभेड़ आम बात हो गयी है.सरकार की इस आपरेशन नीति से न केवल बड़े पैमाने पर निर्दोष,गरीब और मजलूमों की हत्याएं हो रही हैं,बल्कि समय-समय पर पुलिस-पीएसी के जवानों को भी अपने जीवन से हाथ धोना पड़ रहा है.यह प्रकरण ठीक वैसे ही है,जैसे कोई डाक्टर ‘कैंसर’ के मरीज का उपचार ‘बुखार’ समझ कर कर रहा हो.नक्सलवाद को लेकर अब तक जितने शोध हुए हैं,वे बताते हैं कि नक्सलवाद,शैक्षिक-सांस्कृतिक भेद-भाव,सामाजिक गैर-बराबरी, आर्थिक असमानता.मसलन भूख, गरीबी, बेरोजगारी,शोषण और सरकारी दमन के‘गर्भ’ से पैदा हुआ है.बंगाल हो या बिहार,उत्तर प्रदेश हो छत्तीसगढ़.झारखण्ड हो या आन्ध्र प्रदेश,जहाँ कहीं भी नक्सलवाद है,उसका एक बड़ा कारण राजसत्ता, सरकारी मशीनरी और देशी-विदेशी पूंजीपतियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीच साठ-गाँठ है.  उड़ीसा से लगायत झारखण्ड और छत्तीसगढ़ में जहाँ कहीं भी ‘माईनिंग’ के कारोबार के लिए लाईसेंस दिए गए हैं या अवैध रूप से खनन हो रहे हैं,वहाँ के स्थानीय जनता मौलिक के अधिकारों और जरूरतों को ख़ारिज कर,संचालित हो रहे हैं.देश में आर्थिक विकास का जो सरकारी माडल है,उससे गरीब आदमी और गरीब और आमिर आदमी और अमीर होता जा रहा है.

इन दिनों हो रहे ‘भारत निर्माण’ के एक विज्ञापन का नमूना देखिये- “भूख अब इतिहास बनेगा.81 करोड़ लोगों को खाद्य सुरक्षा विधेयक से... सस्ता अनाज मिलेगा”जरा सोचिये !मौजदा समय में देश की आबादी करीब 1 अरब,25 करोड़ है,जिसमें 81 करोड़ लोग भूखे हैं.ये आंकड़े सरकार के हैं.यदि इन आंकड़ों पर भी भरोसा किया जाये तो सवाल तो उठेगा ही कि आखिरकार एक लोकतान्त्रिकदेश की सरकारें 67 सालों कितना कितना भयंकर विकास की हैं कि 81 करोड़ लोग अब भी भूखे हैं.इस विकास के माडल के बारे में तो कोई भी कहेगा,कैसा विकास,किसका विकास,जिससे 81 करोड़ लोगों को दो जून की रोटी का ठिकाना नहीं है.इन सब के जड़ में जाने से पता चलता है कि गुलामी के समय भारतीय जानता,जिनकी गुलाम थी,आज़ादी के बाद भी उनमें से बहुसंख्यक राज घराने ‘पार्लियामेंट्री पालिटिक्स’ में न केवल सक्रिय हैं,बल्कि मंत्री-विधायक बने बैठे हैं. 
                  दूसरा न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में,उन्हीं वर्गों का वर्चस्व रहा है,जिनके शोषण के खिलाफ नक्सलवाद जन्म लिया था.जाहिर है,आज बहुसंख्यक समाज,जिस व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष कर रहा है,उसे,उन्हीं लोगों से न्याय और आजादी की भीख भी मांगनी पड़ रही है,जो इसके पोषक हैं.

इन सबके बाद बात आती है , लोक को तंत्र से जोड़ने का काम करने वाले 'मीडिया' को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी कहे जाने वाले की भूमिका की। किसी भी आंदोलन में मीडिया सबसे प्रभावी माध्यम होता है जो आन्दोलनकारी और शासक वर्ग के बीच की कड़ी का काम करता है । जिसके माध्यम से ना केवल आन्दोलन के उद्देश्य  और आंदोलनकारी वर्ग का पता चलता है, बल्कि आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार करने वाले कारकों का भी पता चलता है ।

नक्सलवाद एक ऐसा जन-किसान आंदोलन रहा है जिसमें शुरूआती दौर से प्रिंट मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। उस समय ना केवल आंदोलनकारियों की मांग को उन्होंने सरकार तक पहुँचाने का काम किया, बल्कि इसके साथ-ही-साथ सामन्तवाद की चमकदार चादर के नीचे दबे-कुचले तमाम शोषित वर्गों की आवाज भी बुलन्द करने में अदभुत योगदान दिया।              

     आज भी नक्सलवाद आंदोलन जारी है, लेकिन अब आन्दोलन से जुडी खबरें सरकारों के कानों तक उनकी बात ले जाने और सरकार की बात आंदोलनकारियों के कानों तक ले जाने में शिथिल सी मालूम पड़ रही है। आजकल अक्सर हम अख़बारों और टीवी चैनलों में नक्सलवाद से जुडी वही खबर देखते है जहां नक्सलवाद का ताल्लुक हिंसा मात्र से दिखायी पड़ता है। या तो किसी नक्सलवादी को एनकाउंटर में ढेर करने की खबर मिलती है या फिर सेना के किसी जवान के नक्सली मुठभेर में शहीद हों जाने की। लेकिन इन दोनों खबरों के प्रस्तुतिकरण में भी काफी गहरी फांक देखने को मिलती है। अब प्रश्न ये उठता है कि क्या नक्सलवाद का मतलब सिर्फ हिंसा से है? क्या इस समस्या के और कोई पहलू नहीं? अगर नहीं तो, तो इसके पीछे कारण क्या है? क्या इसे जानने का प्रयास क्यों नहीं किया गया? और यदि हाँ तो इनपर प्रकाश क्यों नहीं डाला जाता?

लेकिन इन सवालों का जवाब कौन दे, ये अपने आप में एक सवाल.....!!

स्वाती सिंह