शनिवार, 24 दिसंबर 2016

अनसेफ रिलेशन से ज्यादा सेफ है अबॉर्शन


 मैं अबॉर्शन नहीं चाहती थी, लेकिन मैं बच्चे को एक बेहतर जीवन देने की स्थिति में नहीं थी।     




    सत्रह जून, 2015- यह तारीख दर्ज हैं मेरे जेहन में। इस दिन को मैंने खुद को सशक्त रूप में देखा था। यह वही दिन था, जब मैंने अपना गर्भपात करवाया था। इस फैसले ने मुझे मेरे अस्तित्व से रू-ब-रू कराया था, जब मैंने बिना किसी भावना से परे तर्कों के आधार पर समाज में महिलाओं के महिमंडित स्वरूप के विपरीत अपने जीवन, शरीर और उस भ्रूण के भविष्य के लिए एक निर्णय किया।

वेद और मैं दो साल से रिलेशनशिप में थे। दोनों का करियर उन दिनों भविष्य की सुनहरी मैपिंग पर चलने को तैयार करने था। हम दोनों में बेहद प्यार था या यूं कहें कि ये मेरा एक भ्रम था। बस इसका अहसास मुझे देर से हुआ। एक साल की इंटर्नशिप के लिए जब मैं बंगलुरु गई, तो पीरियड मिस होने पर मैंने प्रेग्नेंसी टेस्ट किया और मुझे पता चला कि मैं प्रेग्नेंट हूं।

मैंने तुरंत वेद को कॉल किया :   

वेद मेरे पीरियड्स मिस हो गए इस मंथ।

ओह! तो तुमने टेस्ट नहीं किया?’

हां किया था, इट वाज पॉजिटिव।

ओह! शिट यार, अच्छा तुम टेंशन न लो। मैं मेडिसिन का इंतजाम करवाता हूं।

मेडिसिन किसलिए?

अबॉर्शन के लिए और किसलिए? देखो,अब तुम लड़की वाला नाटक शुरू मत करो।

मैंने तो कुछ कहा ही नहीं?’

तो करना क्या है तुम्हें?’

तुम टेंशन न लो अब, मैं मैनेज कर लूंगी।

पक्का?’

हां।

ओके बाय, बाद में बात करते हैं।
बाय।


दो मिनट से भी कम की इस बातचीत के बाद दिल की हलचलों की जगह दिमाग ने ले ली। और शुरू हो गया, खुद से तर्कों पर चर्चा। मैं अबॉर्शन नहीं चाहती थी, लेकिन मैं बच्चे को एक बेहतर जीवन देने की स्थिति में नहीं थी। वेद के अचानक बदले व्यवहार ने मुझे हमकी बजाय मैंपर जोर देने के लिए मजबूर किया। वेद से मेरा रिश्ता कहीं-न-कहीं गलत साबित होने लगा था, पर अब मैं एक गलत फैसले से उपजे भ्रूण को गलत भविष्य नहीं देता चाहती थी। और मैंने फैसला कर लिया। यह इतना आसान नहीं था और इस पर अमल करना और भी मुश्किल था।
   
मैंने अपनी सबसे अच्छी दोस्त से अपनी मन की बातें साझा कीं और उसने भी मेरे फैसले का समर्थन करते हुए मेरी मदद की। डॉक्टर ने पहले मेडिसिन से टर्मिनेशन की कोशिश की, लेकिन दुर्भाग्यवश यह सफल न हो सका। नतीजतन मुझे मेडिकल प्रक्रिया से गुजरना पड़ा। रक्त और मांस के टुकड़े मेरे शरीर से निकलते रहे। इस पूरी प्रक्रिया ने मुझे मानसिक और शारीरिक रूप से बेहद कमजोर कर दिया था। वेद के बदले व्यवहार (पीछा छुड़ाने जैसा कुछ) को देख कर भावनाओं के उस जाल से निकलने में मैं थक गई थी।
 
इस दौरान वेद ने एक बार भी मुझसे बात नहीं की। शुरुआत में मुझे इस बात ने बेहद परेशान किया, लेकिन जीवन के उस अहम फैसले में जब हमकी जरूरत हो, तो मैंका होना खुद को सशक्त होने का अहसास कराने लगता है और यही अहसास मेरे साथ चलने लगा था। इस पूरी प्रक्रिया के बाद, बिना कुछ कहे-सुने मेरा और वेद का ब्रेकअप को गया। अबॉर्शन को दो साल बीतने को हैं और मुझे अपने इस फैसले के लिए एक पल के लिए भी पछतावा नहीं हुआ। क्योंकि एक असुरक्षित रिश्ते का कोई भविष्य नहीं होता। 

 

भ्रूण की उपज के लिए केवल नारी जिम्मेदार नहीं। पुरुष भी उतना ही भागीदार होता है। जब वही किनारा करने लगे तो जाहिर है कि वह मातृत्व का तो अपमान कर ही रहा है, उसे आने वाले बच्चे की भी उसे कोई चिंता नहीं। समाज ने महिलाओं को हमेशा एक इंसान समझने से पहले उसके जननीहोने के रूप में स्वीकार किया है। ऐसे में अपने महिमामंडित स्वरूप से हट कर जब महिला अपने इंसान होने के अस्त्तित्व को स्वीकार करती है, तो यह बात समाज की आंखों में चुभने लगती है। यही वजह है कि आधुनिकता के दौर में जब महिलाएं, पुरुषों के साथ कदम से कदम मिला कर चल रही हैं। लिव-इन-रिलेशनशिप में रहना स्वीकार कर रही हैं। अपनी पसंद से शादी करने को समर्थन देती हैं लेकिन गर्भधारण  करने या न करने के सवाल पर उनकी आवाज सन्नाटे में गुम हो जाती है।  

नाकहने या उस पर अमल करने के लिए उन्हें एक पर्दे की आड़ लेनी पड़ती है। क्योंकि मां बनना औरत की जिम्मेदारी है। समाज की यही सोच है। बच्चा पैदा करना औरतों का फर्ज माना गया है मगर फीटस को मार देना या बच्चा पैदा ही न करना उसका सबसे बड़ा गुनाह हो जाता है।

हाल ही में पोप फ्रांसिस ने कहा है- मैं एक बार फिर से जोर देकर कहूंगा कि अबॉर्शन एक पाप है, लेकिन दुनिया में ऐसा कोई पाप नहीं है, जिसकी माफी मांगी जाए और धर्म उसे माफ न कर सके। इयर ऑफ़ मर्सी पर भी यही बात कही जाती है। इयर ऑफ़ मर्सी के बाद ईसाई धर्म में हर 25 साल पर इयर ऑफ़ जुबली मनाया जाता है। इस बार यह दिसंबर 2015 से लेकर नवंबर 2016 तक मनाया गया।

इयर ऑफ़ मर्सी मनाने का मतलब यह था कि हर गुनहगार को माफ किया जाए। क्योंकि जीसस भी यही कहते थे कि माफ कर देने में ही आपका बड़प्पन है। इसी तर्ज पर उन औरतों को भी आसानी से माफी की सुविधा दे दी गई, जो अबॉर्शन करवाती है।
   
भारत में गर्भपात को 1971 में वैध करार दे दिया गया था। मगर सामाजिक तौर पर हर धर्म में इसको लेकर अलग-अलग धारणाएं हैं।
   
ज्यादातर धर्मों में यह पाप है। हम माफी तो गलतियों की मांगते है। मगर कोई भरोसा तोड़ कर स्त्री को गर्भवती बना दे या वह किसी वहशी दरिंदे की शिकार हो जाए, तब भी क्या उसे दूसरे के किए सजा भुगतनी होगी? देश के कानून के मुताबिक कोई भी महिला अगर गर्भपात कराना चाहती है, तो यह उसका अधिकार है। इसके लिए उसका पति या ब्वॉयफ्रेंड भी नहीं रोक सकता। उनसे रजामंदी लेने की भी जरूरत नहीं है। सिर्फ उसकी अपनी सहमति ही काफी है। हालांकि स्त्रियों के गर्भ को धर्म के अधीन मानते की चेष्टा, उनके जननी स्वरूप को सर्वोपरि मानने का ही समर्थन है। मगर वास्तव में यह किस्सा हर मर्दवादी धर्म का है, भले ही उनके नाम अलग-अलग हो। 

(फेमिनिज्म इन इंडिया में प्रकाशित लेख|)
https://feminisminindia.com/2017/01/09/safe-abortion-hindi/


सोमवार, 28 नवंबर 2016

और सबसे ज्यादा खतरनाक है इंटरनेट में आधी दुनिया के लिए हिंसा की साजिश

सदियों से हम जिस दुनिया के बाशिंदे हैं, उसमें समय के बदलाव के साथ मनुष्यों ने अब अपना एक नया राष्ट्रबना लिया है। यह एक ऐसा काल्पनिक राष्ट्र है, जिसकी कोई सरहद नहीं। इसे बने हुए अभी ज्यादा समय भी नहीं बीता है, लेकिन इसकी जनसंख्या अब एक अरब से भी ज्यादा हो चुकी है, जो इसे चीन और भारत के बाद तीसरे सबसे अधिक आबादी वाले देश का दर्जा प्रदान करती है। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि इस संख्या तक पहुंचने में आधुनिक मानव को दो लाख वर्ष लगे हैं।
 


वर्तमान समय में इंटरनेट की इस दुनिया ने सूचना व ज्ञान के प्रसार में अहम भूमिका निभाई है। इंटरनेट की सकारात्मक भूमिका को आंकने के लिए किए गए सर्वेक्षणों में ये तथ्य सामने आए हैं कि इंटरनेट वूमन एम्पॉवरमेंट का एक अदृश्य लेकिन सशक्त माध्यम बनता जा रहा है। इस माध्यम से जहां एक ओर महिलाओं के लिए आर्थिक संभावनाओं के द्वार खुले हैं, वहीं दूसरी ओर इसने सोशल मीडिया के जरिए उन्हें अपने विचार अभिव्यक्त करने का एक मंच भी दिया है। हाल ही में हुए कुछ सर्वे बताते हैं कि इंटरनेट उपयोग करने वाली महिलाओं में से आधी ने ऑनलाइन नौकरी के लिए अप्लाई किया और करीब एक तिहाई ने इस माध्यम से अपनी आय में वृद्धि भी की है। 

भारत में तीन साल पहले महिलाओं ने पैल्ली पूला जादा नामक ऑनलाइन स्टोर शुरू किया था, जिसमें अब करीब 200 से अधिक महिलाएं कार्यरत हैं। शोध बताते हैं कि जिन देशों में आय और शिक्षा के क्षेत्र में कम असमानता होती है, वहां बाल मृत्यु दर कम व आर्थिक विकास की दर अधिक होती है। महिलाएं इंटरनेट से प्राप्त मंचों की सहायता से अपने और समाज से जुड़े तमाम मुद्दों पर अपनी बुलंद आवाज पूरी दुनिया को सुनाने में सक्षम हैं। कांगो में महिलाओं ने अपने अनुभव साझा करने के लिए इंटरनेट कैफे खोले और देश के युद्धग्रस्त क्षेत्रों के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका के विशेष दूत की नियुक्ति करवाने में सफल हुर्इं। इसी तरह केन्या में महिलाओं ने लैंगिक भेदभाव और हिंसा का सामना करने के लिए इंटरनेट का सहारा लिया। उन्होंने पीड़ितों के समर्थन में ग्रुप बनाया और लीगल चेंज की मांग की।

ब्राजील में महिलाओं ने आई विल नॉट शट अपनामक ऐप बनाया जो महिलाओं पर होने वाले हमलों पर नजर रखता है। बांग्लादेश में महिलाएं मायानामक ऐप से लाभान्वित हो रही हैं। ये ऐप स्वास्थ्य से लेकर कानूनी मामलों तक हर प्रकार के सवालों का जवाब देता है। इससे दूर-दराज के क्षेत्रों की महिलाओं को एक्सपर्ट्स की सलाह मिल जाती है।

इंटरनेट की इस दुनिया ने वो काम कर दिखाया है, जिसे कई देशों की सरकारें नहीं कर पार्इं। यह अब एक ऐसी नई दुनिया बन कर उभरा है, जहां लिंग व जाति से परे सब बराबरहैं और निरंतर विकास की दिशा में एक साथ आगे बढ़ रहे हैं।  

लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि अनेक लाभों के बावजूद इंटरनेट तक महिलाओं की पहुंच न केवल पुरुषों की तुलना में बेहद सीमित है बल्कि यह चुनौतीपूर्ण भी है। क्योंकि उन्हें इस दुनिया में भी उन तमाम हिंसाओं का सामना करना पड़ रहा है, जिनसे वे अपने समाज या गली-चौराहों में दो-चार होती हैं। यहां उल्लेखनीय है फेसबुक का एक ग्रुप ब्लोक्स एडवाइस जो मई में शुरू हुआ, उसकी हरकत से आज पूरा सभ्य समाज शर्मसार है। दो लाख पुरुष सदस्यों का यह समूह  बलात्कार की बुराइयों के बारे में नहीं बल्कि उसकी अच्छाइयों पर चर्चा करता है। ये पुरुष बताते हैं कि लड़की का किस तरह रेप किया जाए। किस तरह उसकी मर्जी के खिलाफ उससे एनल सेक्स किया जाए और दूसरे मर्द उन बातों के मजे लेते हैं। उसमें अपने अनुभव जोड़ते हैं।

यह सीक्रेट ग्रुप आस्ट्रेलिया में शुरू हुआ था। इस पेज के बारे में लोगों को तब पता चला, जब राइटर क्लीमेंटीन फोर्ड ने अपने फेसबुक पेज से इस समूह के कुछ स्क्रीनशॉट पोस्ट किए। इस ग्रुप में बहुत कुछ लिखा पाया गया। देखिए उसके दो नमूने: -



-‘औरतों को अगर हमारे साथ सेक्स न करना हो, तो वो हमसे मीटर भर दूर ही रहें।
 
यह पहली बार नहीं है, जब ग्रुप की चर्चा हो रही है। मई में, जब यह ग्रुप शुरू हुआ था, तब मीडिया में इसका जिक्र हुआ था। इसे शुरू करने वाले ब्रोक पॉक ने डेली टेलीग्राफ को बताया था कि यह ग्रुप मर्दों ने एक-दूसरे को सहारा देने के लिए बनाया है। हमने ग्रुप के कुछ नियम बनाए हैं और जो उन्हें तोड़ता है, हम उसे ग्रुप से निकाल देते हैं। हम ये चाहते हैं कि जो बातें पुरुष किसी से नहीं कह पाते, वो आपस में कह सकें। हम टीशर्ट बनाते हैं और उन्हें बेच कर मिले पैसों को चैरिटी में दे देते है।
 
इस घिनौनी सोच से इंटरनेट पर महिलाओं की सुरक्षा का अंदाजा लगाया जा सकता है। यह विचारणीय है कि अगर यह चैरिटी रेप का आनंदलेकर होती है, तो ऐसी चैरिटी की किसी को जरूरत नहीं है। बात यह नहीं कि ये प्रो-रेप बातें किसी सीक्रेट ग्रुप में कही जा रही हैं, तो इनसे कोई नुकसान नहीं होगा। मुद्दा यह है, कि ये कैसी सोच है लोगों की, जिसमें यौन हिंसा पर मजे लिए जाते हैं?

हो सकता है आप कहें कि ये तो सिर्फ बातें हैं। आप ये भी  कह सकते हैं कि ऐसी बातें करने वाले लोगों का यह एक छोटा समूह है। सारे मर्द ऐसे नहीं होते। जी हां, सभी मर्द ऐसे नहीं होते, लेकिन दो लाख की संख्या कोई छोटी नहीं होती। सोचिए, इस सोच वाले मर्द दुनिया में घूम रहे हैं। और जाहिर है कि इंटरनेट के माध्यम से इनकी संख्या बढ़ती ही जाएंगी और ये मर्द हमारे आस-पास ही होंगे, अलग-अलग रूप में। आखिर इनकी भी बेटियां होंगीं, पत्नियां होंगीं। आज जब ये गैंग रेप जैसी अमानवीय यौन हिंसा पर मजे ले सकते हैं, तो कल ये ऐसा सच में होते हुए देख कर भी चुप ही रहेंगे।
 
कोई दो राय नहीं कि सेक्स की फंतासी सभी करते हैं, लेकिन रेप सेक्स नहीं होता। सेक्स यानी संयोग तो वह होता है, जिसमें दोनों पार्टनर की मर्जी हो और दोनों समान रूप से भोग  (आनंद) कर रहे हों। वो नहीं जिसमें मर्द औरत पर जानवर की तरह सवार हो और औरत रो रही हो। यह किसी की भी फंतासी का हिस्सा कैसे हो सकती है? जिस समाज में ऐसे ग्रुप चल रहे हों, वहां की महिलाएं सुरक्षित कैसे महसूस कर सकती हैं।

औरतें कैसे सेफ महसूस कर सकती हैं जब उन्हें लगे कि बसों, पार्कों, सुनसान जगहों या फिर मॉल में उनके सामने खड़ा मर्द उनके साथ रेप करने के बारे में सोच रहा है। और ऐसा न कर पाने की सूरत में किसी वेबसाइट पर उसे अपनी कल्पना में लाकर उसके साथ बलात्कार करेगा। पोर्न साइटों पर रोज-हर पल अस्मत लूटी जाती है। इस रेप कल्चर की सच्चाई सचमुच भयावह है और सबसे ज्यादा डरावनी है इंटरनेट पर आधी दुनिया के लिए ऐसी हिंसा की साजिशें, जो निरंतर चल रही हैं। पुरुषों की कल्पना में हर दिन जिस तरह स्त्रियां रौंदी जा रही हैं, उसकी चिंता करने का नहीं अब उससे कानूनी तरीके से निपटने का वक्त आ गया है। 

स्वाती सिंह 


शनिवार, 5 नवंबर 2016

एक थी अमृता

हम आधुनिक हैं। पढ़े-लिखे हैं, किसी भी मुद्दे पर बात करने में हमें हिचक नहीं होती हैयह बड़ा ही आम विचार है, जो मौजूदा समय में हमारे, आपके या यूं कहें कि जमाने के साथ कदम-से-कदम मिला कर चलने वाले हर शख्स के जेहन में रहता है, लेकिन जब बात हो अपनी जिंदगी की, रिश्तों की या फिर कड़वे अनुभवों की, तो अक्सर हमारी आवाज़ को खामोशी के साये ढक लेते हैं। यह बड़ी ही आम बात है; जितनी हमारे और आपके लिए, उतनी ही किसी कलाकार या लेखक के लिए भी, जिनका तो काम ही अपने जज्बातों को एक रूप देना होता है, लेकिन जब बात महिलाओं के संदर्भ में हो, तो इस खामोशी का अंधेरा और गहरा होता दिखाई पड़ता है। जिसकी वजह है-समाज में महिला-चरित्र के संकीर्ण मानक। 


   कहते हैं जहां बंदिशें होंगी, आजादी के नारे भी वहीं लगते हैं इसी तर्ज पर। भारतीय साहित्य में भी कई ऐसी लेखिका रहीं हैं, जिन्होंने देश-दुनिया की परवाह किए बगैर अपने जज्बातों, विचारों और अनुभवों को बेबाकी से रखा। इन्हीं में से एक लेखिका अपनी समूची जिंदगी का सार (जो इतना आसान काम नहीं) बताते हुए लिखती हैं - मेरी सारी रचनाएं, क्या कविता, क्या कहानी और क्या उपन्यास, मैं जानती हूं, एक नाजायज बच्चे की तरह हैं। मेरी दुनिया की हकीकत ने मेरे मन के सपने से इश्क किया और उनके वर्जित मेल से यह सब रचनाएं पैदा हुर्इं। जानती हूं, एक नाजायज बच्चे की किस्मत, इसकी किस्मत है और इसे सारी उम्र अपने साहित्यिक समाज के माथे के बल भुगतने हैं।

  मन का सपना क्या था, इसकी व्याख्या में जाने की जरूरत  नहीं। यह कम्बख्त बहुत हसीन होगा, निजी जिंदगी से लेकर कुल आलम की बेहतरी तक की बातें करता होगा, तब भी हकीकत अपनी औकात को भूल कर उससे इश्क कर बैठी और उससे जो रचनाएं पैदा हुईं, हमेशा कुछ कागजों में लावारिस भटकती रहीं।ये शब्द है अमृता प्रीतमके, जिसे उन्होंने अपनी आत्मकथा रसीदी टिकटमें लिखा। 



   जी हां, वही अमृता प्रीतम, जिन्हें पंजाबी की पहली लेखिका माना जाता है और जिनकी लोकप्रियता कभी किसी सीमा की मोहताज नहीं रही। जो कई बार अपने रिश्तों की वजह से चर्चा में भी रही। 

  अमृता प्रीतम का जन्म 1919 में गुजरांवाला (पंजाब) में हुआ था। बचपन लाहौर में बीता और शिक्षा भी वहीं पर हुई। उन्होंने पंजाबी लेखन से शुरुआत की। किशोरावस्था से ही कविता, कहानी और निबंध लिखना शुरू किया। अमृता जी 11 साल की थीं, तभी इनकी मां का निधन हो गया। इसलिए घर की जिम्मेदारी भी इनके कंधों पर आ गई। यह उन विरले साहित्यकारों में से हैं, जिनका पहला संकलन 16 साल की आयु में प्रकाशित हुआ। 

जब बालिकावधू बनीं अमृता 

फिर आया 1947 का विभाजन का दौर। उन्होंने बंटवारे का दर्द सहा और इसे बहुत करीब से महसूस किया। इनकी कई कहानियों में आप इस दर्द को महसूस कर सकते हैं। विभाजन के समय इनका परिवार दिल्ली आ बसा। अब उन्होंने पंजाबी के साथ-साथ हिंदी में भी लिखना शुरू कर दिया। उनका विवाह 16 साल की उम्र में ही एक संपादक से हुआ, ये रिश्ता बचपन में ही मां-बाप ने तय कर दिया था। यह वैवाहिक जीवन भी 1960 में, तलाक के साथ टूट गया।
नारीवादी वो लेखिका 

तलाक के बाद से अमृता ने वैवाहिक-जीवन के कड़वे अनुभवों को अपनी कहानियों और कविताओं के ज़रिए बयां करना शुरू किया। इससे उनकी रचनाएं धीरे-धीरे नारीवाद की ओर रुख करने लगीं। अमृता प्रीतम के लेखन में नारीवाद और मानवतावाद दो मुख्य विषय रहे है, जिसके जरिए उन्होंने समाज को यथार्थ से रू-ब-रू करवाने का सार्थक प्रयास किया।  

बेबाक अमृता 

हिंदी-पंजाबी लेखन में स्पष्टवादिता और विभाजन के दर्द को एक नए मुकाम पर ले जाने वाली अमृता प्रीतम ने समकालीन महिला साहित्यकारों के बीच अलग जगह बनाई। अमृता जी ने ऐसे समय में लेखनी में स्पष्टवादिता दिखाई, जब महिलाओं के लिए समाज के हर क्षेत्र में खुलापन एक तरह से वर्जित था। एक बार जब दूरदर्शन वालों ने उनके साहिर और इमरोज़ से रिश्ते के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, दुनिया में रिश्ता एक ही होता है-तड़प का, विरह की हिचकी का, और शहनाई का, जो विरह की हिचकी में भी सुनाई देती है - यही रिश्ता साहिर से भी था, इमरोज़ से भी है......।

  अमृता जी की बेबाकी ने उन्­हें अन्­य महिला-लेखिकाओं से अलग पहचान दिलाई। जिस जमाने में महिलाओं में बेबाकी कम थी, उस समय उन्­होंने स्­पष्­टवादिता दिखाई। यह किसी आश्­चर्य से कम नहीं था।




अमृता की महिलाएं

पितृसत्तात्मक समाज में, परिवार के पुरुष सदस्यों पर महिलाओं की आर्थिक-निर्भरता होती है, जिसकी वजह से वे अपने वजूद को पुरुषों के तले सीमित मानती थीं। अमृता प्रीतम ने समाज की नब्ज को कुशलता से पकड़ा और अपनी रचनाओं के जरिए उस जमी-जमाई सत्ता पर सेंध मारते हुए महिलाओं के मुद्दों को सामने रखा। जिन्हें हम उनकी किताब- पिंजर, तीसरी औरत और तेरहवें सूरज जैसी रचनाओं में साफ देख सकते है। 

सामाजिक वर्जनाओं के विरूद्ध 

अमृता में सामाजिक वर्जनाओं के विरूद्ध जो भावना थी, वह बचपन से ही उपजने लगी थीं। जैसा वे स्वयं लिखती हैं - सबसे पहला विद्रोह मैने नानी के राज में किया था। देखा करती थी कि रसोई की एक परछत्ती पर तीन गिलास, अन्य बर्तनों से हटाए हुए, सदा एक कोने में पड़े रहते थे। ये गिलास सिर्फ तब परछत्ती से उतारे जाते थे, जब पिताजी के मुसलिम दोस्त आते थे और उन्हें चाय या लस्सी पिलानी होती थी और उसके बाद मांज-धोकर फिर वहीं रख दिए जाते थे।


और आडंबर के भेंट चढ़ जाती है औरत की ‘सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा’

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में सदियों से इंसानों के बीच औरतों की हैसियत दोयम दर्जे की बनी हुई है। ऐसे में उनकी महत्त्वाकांक्षाओं को लेकर अक्सर यह सवाल जेहन में आता है कि क्या मनुष्य-मात्र की सामान्य आकांक्षाएं ही उसकी सबसे बड़ी महत्त्वाकांक्षा नहीं बन जाती? तो जवाब आता है- हां। अब यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते की तमाम गुलाबजामुनी दुहाइयों के बावजूद, वास्तविकता यही है कि औरत की महत्त्वाकांक्षा जितनी बड़ी और उसे हासिल करने की ललक जितनी तेज होती है, सामाजिक रूप से उसे दबाने की कोशिश भी उतनी ही तल्खी से होती है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तमाम निषेधों से मनुष्य के नैतिक  अस्तित्व को तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है, उसके मन के रेशों को उधेड़ा नहीं जा सकता। 


घर की दहलीज और सामाजिक प्रतिबंध की बेड़ियों में आप औरतों को लाख जकड़ कर रखें, उसके मन के आदिम चरवाहेको उस शाश्वत यायावरको, जो हर इंसान के अंदर गति और ऊर्जा का आंतरिक स्रोत बन कर बैठा होता है- खुले आकाश और फैली हुई धरती पर अपना दावा पेश करने से नहीं रोक सकते। यों भी  औरतों का वजूद पुरुषों से कोई अलग वहीं है। तन से परे भी उसकी दुनिया है। उसके मन की उड़ान की थाह लेना आसान नहीं।   

 


और वो कहती है मुझे हक है...!


हर इंसान की तरह औरत भी यह दावा पेश करती है- और कामना करती है सौ बसंत जीने की, जीवन को हंसी और आंसू के सौ-सौ इंद्रधनुषी रंगों से सजाने की, विचार और कर्म के सौ-सौ रूपहले सूत्रों से जोड़ कर उसे ज्यादा-से-ज्यादा अर्थवान बनाने की। हर इंसान की तरह वह भी चाहती है कि उसे अपना फैसला खुद करने की आजादी हो। समाज की हर प्रक्रिया में उसकी बराबरी ही हिस्सेदारी हो। अधिकारों की समानता और व्यवहार के खुलेपन के साथ वह स्वस्थ सामाजिक संबंधों की दुनिया में प्रवेश करे -और उसे प्रेम, सौंदर्य और संवेदना के घिरे मानवीय स्पर्श से संवारा जाए। समाज में उसका एक विशिष्ट स्थान हो - एक संपूर्ण व्यक्तित्व हो, जिसे तमाम लोग स्वीकार करें और जिसके सम्मान में हैट्स ऑफ़करना फख्र की बात समझी जाए। इन्हीं कामनाओं को मुकम्मल तस्वीर देते हुए वो अक्सर कहती है - मुझे भी तो हक है औरों की तरह।


 लेकिन हम उन्हें क्या देते हैं.....!


यही तो होती है एक औरत की महत्त्वाकांक्षा। मगर, हम उसे बदले में देते क्या हैं? जी हां, हम- जो कुल की नाक ऊंची रखने के लिए औरत को हजार वर्जनाओं से घेर कर रखते हैं और पौरुष के नपुंसक प्रदर्शन के लिए सारी वर्जनाएं तोड़ कर उसे भोगते हैं - हम उसकी सीधी-सरल महत्त्वाकांक्षाओं का बदला क्या चुकाते हैं? कुछ भी तो नहीं, सिवाय अपेक्षाओं के या अपने स्वार्थ को पूरा करने का साधन बनाने के । 


 उनके अनचाहे होने का एहसास 


हमारे घरों में लड़की हमेशा एक अनचाही बला की तरह पैदा होती है, जिसकी आकांक्षाओं को विकसित के बजाय, नियंत्रित करने की कोशिशें जन्म से ही शुरू हो जाती हैं। हम उसके जीवन की गति के लिए रास्ते नहीं खोलते, ताउम्र उसे बांधे रखने के लिए चौहदियां निश्चित करते हैं। हम उसे करने योग्य कामोंका नफीस गुलदस्ता दिखा कर उत्साहित नहीं करते, ‘न करने योग्य कामोंकी डरावनी तस्वीर दिखा कर धमकाते हैं। हम उसे निर्णायक नहीं, निर्णयों का वाहक बनाते हैं, व्यक्तित्व-निर्माण की सामाजिक प्रक्रिया से नहीं जोड़ते,‘कुलवधूबनने के वे घरेलू नुस्खे सिखाते हैं, जिनके बल पर वह परिवार के अंदर गृहदासी और देवदासीके दायित्व एक ही साथ निभा सकती है।

 ‘इज्जतनाम का वो कंटीला जामा 


शील-शुचिता-कौमार्य के तमाम मिथकीय उपदेश, ऊंची तालीम, तहजीब और रहन-सहन के बेहतर-से-बेहतर शउर और यहां तक कि उसकी कथित आर्थिक आत्मनिर्भरता’ के चालू दावे भी - उसे सामाजिक नजरबंदीके इस दुष्चक्र से बाहर नहीं निकलने देते और इस तरह वह नैतिक कत्लगाह तैयार होता है, जो औरत के सारे ओज और उत्ताप को सोख लेता है और उसकी महत्त्वाकांक्षाओं को रेत-रेत कर खत्म कर देता है। इसके बाद बची रहती है सिर्फ एक यातनाप्रद कुंठा, जो भीतर-ही-भीतर उसके व्यक्तित्व को काटती, कुतरती और खोखला बनाती चली जाती है....।

पर वो हार नहीं मानती


लेकिन, हर इंसान की तरह औरत भी किसी चलती प्रक्रिया का तटस्थ दर्शक नहीं। वह उससे टकराती है, उसे झेलती है और उस पर प्रतिक्रिया भी करती है। इसीलिए महत्त्वाकांक्षाओं केखूनसे पैदा हुई कुंठा कहीं उसे तोड़ती है, तो कहीं दुस्साहसी भी बनाती है, कहीं झुकाती है, तो कहीं अनम्य भी बनाती है, कहीं सर झुका कर सब कुछ स्वीकार करने को विवश करती है, तो कहीं हर चीज के चरम नकार का बायस भी बन जाती है। 

 
मिटाने लगी है वो पाखंडी पहचान को 


सामाजिक श्रेणी और सांस्कृतिक चेतना के निचले पायदान पर पड़ी औरतों के अंदर उनकी कुंठा या तो स्थाई घुटन बन कर भीतर-ही-भीतर रिसती है या फिर दुनिया-धंधाके अहम सवालों से टकरा कर अपना निस्तार खोज लेती है। मगर वे औरतें, जो सामाजिक श्रेणी और सांस्कृतिक चेतना के लिहाज से अपेक्षाकृत ऊपर हैं, जिनकी संवेदना अधिक परिष्कृत है और जिनके संस्कार आधुनिक विचारों की रोशनी में घुले हुए हैं - उनके अंदर यह कुंठा एक चरम नकार का- एक विस्फोटक दुस्साहस का - रूप ले लेती हैं; और परिवार, समाज, आचरण और चरित्र के तमाम पाखंडपूर्ण मान-मूल्यों को तहस-नहस करके रख देती हैं....।

पैसे में डूब गई उनकी महत्त्वाकांक्षा 


बहरहाल, विस्फोटक चाहे जितना दिखे, बुर्जुआ अंध-पिशाचों की दुनिया में कुल मिला कर बड़ा निस्सहाय होता है यह नकार। क्योंकि, यह वह दुनिया है जहां विल्कप के नाम पर राज करता है - सर्वशक्तिमान पैसा! जिससे जीवन की तमाम आनंदमय रंगीनियों पर कब्जा किया जा सकता है....जिससे शोहरत और सामाजिक प्रतिष्ठा कब्जे में की जा सकती है....जिसकी खनक के सामने देह की वीणा और आत्मा के संगीत की कोई वकत नहीं होती....और जिसकी चमक के आगे हर मानवीय संबंध की आंच मंद पड़ जाती है। 

इस दुनिया से घिरी बागी औरत के लिए पैसा बन जाता है उसकी महत्त्वाकांक्षाओं का मूर्त रूप, जीवन के बसंत को हासिल करने का सबसे आसान जरिया, अपनी पहचान का सिक्का मनवा लेने का एक लुभावना माध्यम और पाप-पुण्य, नीति-अनीति, करणीय-अकरणीय के परंपरागत पाखंड से परे- उसकी स्वतंत्रता का सर्वोच्च प्रतिमान। उसके अनुभव बताते हैं कि जिस पैसे आगे सारा संसार झुकता है, उसे पाने के लिए श्रम बल नहीं, बुद्धि का कौशल चाहिए। और एक तरफ पूंजी के मायालोक और दूसरी तरफ पुरुष प्रधान समाज की उपभोक्तावादी दृष्टि से आक्रांत बुद्धि, हर साधन-स्रोत से वंचित इस औरत को, सहज ही इस निष्कर्ष तक पहुंचा देती है कि इंसान की आदिम बर्बरता से लड़ने के लिए सौंदर्य और यौवन को भी  सट्टाबाजार में निवेश-पूंजी की तरह उछाला जा सकता है।



आपकी गलाजतों को बहाने का बन गई वो नाला 


समझ और एहसास के व्यवसायीकरण के इसी बिंदु से टैक्सी डांसर्स, फैन डांसर्स, कैबरे डांसर्स, ‘पेड कंपेनियंस’, मॉडल गर्ल्स, पिन-पिन गर्ल्स, कॉलगर्ल्स, सोसिएत गर्ल्स की एक लंबी-चौड़ी शृंखला बनती चली जाती है आजाद (?) औरतोंकी एक ऐसी श्रेणी-जिनके रूप की आंच में समाज की तमाम बंदिशें पिघल जाती हैं....जो नीति-नियमोंसे जकड़ी गृहणियों की तरह अनिवार्य श्रम-सेवाके बतौर किसी मर्द के कदमों में अपने रूप और यौवन की बलि नहीं चढ़ाती, बल्कि अपनी मर्जी के मालिकव्यापारियों की तरह, बिना किसी से बंधे हुए तन का सौदा करती हैं और उसका मनचाहा दाम वसूलती हैं....जिनके कदमों में- दिन के उजाले में नहीं, तो रात के अंधेरे में सही, यथार्थ की बस्ती में नहीं, तो कल्पना के वीराने में सही आदिम विकृतियों का मारा सारा-का-सारा पुरुष-समुदाय किसी-न-किसी रूप में सर झुकाता है, और शायद, किसी-न-किसी हद तक अपने को लुटा कर औरतों पर किए गए अपने अत्याचारों का बदला चुकाता है....।

जी हां, वह बदनाम है। आप उस पर उंगलियां उठाइए, उसकी निंदा-भर्त्सना कीजिए, उसका सामाजिक बहिष्कार कीजिए। मगर याद रखिए, वह आपके सड़ियल समाजतंत्र की उपज है। और बेशक उसकी जरूरत भी गर वह न हो, तो आपकी गलाजतों को बहाने का नाला कौन बने? अगर वह न हो तो अखबार-बिकाऊ स्कैंडल्स कैसे बने और आटे-दाल की स्वादहीन जिंदगी में आपको बारह मसाले की चाटकहां से मिले?.....बुर्जुआ समाजतंत्र के हर दांवपेच खोलने पर यह मालूम पड़ता है कि उसमें इन रूपजीवा लड़कियों की जरूरत कदम-कदम पर नजर आएगी। बुर्जुआ अपनी तमाम विकृत सामाजिक जरूरतों के लिए उनका भरपूर इस्तेमाल करता है, और एक दिन जब किसी स्कैंडल में, उनके इस्तेमाल का कच्चा चिट्ठा खुल जाता है या उनकी जवानी का जाम खाली हो जाता है- तो उन्हें चुपचाप गुमनामी, गरीबी और मनोदैहिक बीमारियों के गर्त में धकेल कर आगे बढ़ जाता है....।


स्वाती सिंह  

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

ये 'चरित्र' क्या होता है? सोचा है कभी......!

 पितृसत्तात्मक समाज में जब बात महिलाओं की हो, तो उनका भूगोल देह और चरित्रके इर्द-गिर्द ही चक्कर लगाता दिखाई पड़ता है। मन की गांठ तो कभी खुलती ही नहीं। कहीं न कहीं महिलाएं भी इसे अपने अस्तित्व के तौर पर स्वीकार कर लेती हैं। इस आधार पर जिंदगी जीने लगती हैं कि चरित्र को बेदाग रखना ही उनके जीवन का अंतिम लक्ष्य है। ऐसे में सवाल उठता है कि चरित्र की परिभाषा  क्या है? मानवीय विवेक में जिसकी थोड़ी भी आस्था होगी, वह आपको बतलाएगा कि चरित्र का मतलब है - आदमी का वह आंतरिक गुण, जिसकी बदौलत वह न केवल पशु-जगत बल्कि अपने ही जैसे अन्य मनुष्यों से भी अलग है। 





चरित्र का अर्थ क्या सिर्फ यौन शुचिता?

   मगर हमारे समाज में चरित्र की गढ़ी हुई परिभाषा सिर्फ पुरुषों के लिए सुरक्षित है। औरतों के लिए तो यह पूरी तरह वर्जित है। उनके लिए यह एक ऐसी लक्ष्मण-रेखा है, जिस पर पांव रखते ही पितृसत्तात्मकता का रावण उन्हें हर ले जाएगा। उनके लिए चरित्र का सिर्फ एक ही अर्थ है - यौन शुचिता,  कौमार्य की रक्षा और पतिव्रत धर्मका पालन। नारी चरित्र की यह विशेष व्यवस्था नारियों ने खुद नहीं की, बल्कि हमारे उन पुराण-पुरुषों ने की, जो कहते हैं कि दिन के उजाले में आठ-आठ बरस तक अपनी बीवियों का मुंह नहीं देखते थे, लेकिन रात के अंधेरे में इसी दरम्यान आठ-आठ बच्चे पैदा करना न भूलते थे। और जिन्होंने अपनी औरतों को बचानेके लिए छोटे-छोटे चोरदरवाजे भी बंद करने में कोई कोताही न की। चुनरी में दाग लगा नहीं कि ये शोर मचा देते हैं। क्या महज एक दाग भर से स्त्री का चरित्र तय हो जाता है?

         
पवित्रता की आड़ में पाखंड

   आज भी चरित्र की इस पाखंडपूर्ण व्यवस्था का रक्षक वही पुरुष-समाज है, जो अपनी चहारदीवारी में औरतों की पवित्रता के लिए नए नुस्खे ईजाद करता है और खुली सड़कों पर हर लहंगे के पीछे और कूल्हों की हर जुंबिश पर लार टपकाता नजर आता है। यानी घर में कौमार्य की रक्षा की नियमावली और पास-पड़ोस में उसके उल्लंघन के लिए चारेबाजी - यही है वह संतुलन-बिंदु, जिस पर हमारे समाज की सारी नैतिकता टिकी है।

  जाहिर है दोहरे मानदंडों वाले इस विकृत संसार में औरत की यौन-शुचिता सिर्फ एक गुलदस्ता ही हो सकती है, जिसे वह शादी की पहली रात पति नामक प्राणी को भेंट करेंगी। यह भेंट उसका अपना फैसला नहीं, बल्कि समाज के उन कर्णधारों का है, जिन्होंने एकतरफा निर्णय की पितृसत्तात्मक व्यवस्था के तहत पति को यह अधिकार दिया है कि वह पत्नी की इच्छा या सहमति की परवाह किए बगैर उसकी बरसों संजोई पवित्रताको भंग करे, उसे मानवीय संबंधों की दुनिया में एक गौण पुर्जे की तरह फिट कर दे और कुल मिलाकर,  उसके व्यक्त्वि को रसोईघर और बेडरूम से लेकर प्रसूति-गृह तक इस तरह बिखेर दे कि उसके टुकड़ों का जोड़ तक नजर न आए।

  चरित्र की इसी व्यवस्था को स्वीकार करके ही औरतों की अनगिनत पीढ़ियां अपनी पाकीजगी साबित करती आई हैं और इतिहास गवाह है कि जब भी किसी ने इस व्यवस्था से बाहर निकालने की हिमाकत की, उसे गार्गी की तरह याज्ञवल्क्यों ने उसके भी सिर के सौ टुकड़े कर डाले।

         
चरित्र के दोहरे मानदंड

   अगर आपने चरित्र के दोहरे मानदंडों की विकृति पर गौर किया हो, तो आप पाएंगे कि परिवार के अंदर यौन-शुचिता पर जोर देने का मूल कारण औरत के सम्मान और स्वतंत्रता की रक्षा करना नहीं, बल्कि हर निजी संपत्ति की तरह औरत नामक वस्तुपर भी पितृसत्ता का एकाधिकार मजबूत करना है। इस एकाधिकार की क्यों जरूरत है?  लेकिन वंशवृद्धि और रक्तशुद्धि के लिए- संपत्ति का उत्तराधिकार और वह भी जायज उत्तराधिकार सुनिश्चित करने के लिए, यह उन्हें जरूरी लगा हो। इसके अलावा अगर कोई और नेक उद्देश्य होता - मसलन, पुरुष की बेलगाम भोगेच्छा पर रोक लगाना- तो एकनिष्ठ विवाह के साथ रंडियों, रखैलों, गीशाओं और मिस्ट्रेसों की एक समानांतर व्यवस्था चलती न दिखाई पड़ती।


हाय! ये कुलमर्यादा  

   कुल की मर्यादा ही वह चीज़ है, जिसके सहारे पुरुष-समाज जीवनसाथी के चुनाव जैसे निहायत निजी मामलों में भी नारी के निर्णय करने के अधिकार का अपहरण कर लेता है और उसे महंगे दामों में खरीद कर किसी भी मनचाहे व्यक्ति को औरत नामक वस्तुका उपभोक्ता मुकर्रर कर देता हैे। 


और चुनवा दी जाती है अनारकली 

   रिश्तों के इस व्यापार में वह पूरा ध्यान रखता है कि उसके द्वारा मुकर्रर उपभोक्ता केवल पुरुष होने के कारण ही औरत से सुपीरियरन हो, बल्कि जातीय व सामाजिक हैसियत के लिहाज़ से खासा सुपर फाइनहो। यानी, ले-देकर कुलमर्यादा की मान्य व्यवस्थाएं औरत को बस बिस्तर में चिन देती हैं - इस गारंटी के साथ उस बिस्तर पर बिछी चादर रक्त रंजित होगी क्योंकि वह अक्षत योनि है। अगर औरत ने किसी भी रूप में इन व्यवस्थाओं का उल्लंघन किया, तो समाज उसे अनारकली की तरह दीवारों में चिनवा देगा।

   यह सच है कि जो लोग जाति और माली हैसियत-दोनों लिहाज से समाज के निचले पायदान पर पड़े हैं, उनके यहां कुलमर्यादा का सवाल इस तरह नहीं उठता। सामंत प्रभु जब चाहे अपने इन निरीह असामियों की निरीहता का फायदा उठा कर उनकी औरतों को अपनी रखैलों में तब्दील कर ले सकता है। प्रभु वर्ग की सर्वग्रासी शान के सामने कमजोर की बीवी के मान की बात करना शायद एक अनाधिकार चेष्टा है। 


......और एक आवाज तक नहीं उठती

     बात चाहे जितनी कड़वी लगे, पर सच्चाई यही है कि हमारे पास भी अपनी औरतों को दिखाने के लिए कोई दमदार सपना नहीं है। वरना ऐसा क्यों होता है कि हत्या और बलात्कार की घटनाएं घटती रहती हैं, मगर प्रगतिकामी ताकतों की ओर से प्रतिवाद की एक आवाज़ तक नहीं उठती? जाहिर है कि उनके इस नकारात्मक (और कई बार घातक) व्यवहार ने न केवल महिलाओं को और अधिक असहाय बना दिया है, बल्कि सामाजिक परिवर्तन के चक्र को - धनतंत्र बनाम जनतंत्र के निर्णायक संघर्ष को - स्वतंत्रता और समानता पर आधारित समाज-निर्माण के स्वप्न को कहीं कहीं पितृसत्तात्मक व्यवस्था के सामने सिर झुकाने को विवश कर दिया है।
   
आज जिस चीज की सख्त ज़रूरत है, वह है चिंतन के धरातल पर पितृसत्तात्मक व्यवस्था और पुरुष-प्रभुत्ववाद के खिलाफ एक ज़बरदस्त, वास्तविक और दूरगामी सांस्कृतिक संघर्ष की। एक ऐसे संघर्ष की, जो हमारा आत्मसंघर्ष भी हो और नारी-विरोधी माहौल के खिलाफ हमारा संग्राम भी.... वह संघर्ष, जो न केवल मध्यकालीन जड़ मानसिकता और आधुनिक जीवन के विकृत उपभोक्तावाद पर तीखी चोट करे, बल्कि औरत-मर्द के रिश्तों को एक नए मानवीय आलोक में फिर से परिभाषित करे - उनकी स्वतंत्रता और समानता के ठोस व वास्तविक आधारों की खोज करें।



 (महेश्वर के महिला विषयक लेखों का संग्रह परचम बनता आंचलसे कुछ भावांश साभार)