मंगलवार, 5 जनवरी 2016

देश का शौर्य थे : स्वामी विवेकानंद

हमारा देश जिस वक़्त गुलामी की जंजीर में जकड़ा हुआ था, उस वक्त भारतदेश का शौर्य कहे जाना वाला धर्म, शिक्षा, भाषा सभ्यता और आध्यात्मिक बल अपना अस्तित्व खोते जा रहे थे। ऐसे समय में भारतभूमि की सरजमीं पर ऐसे सितारों का उदय हुआ, जिन्होंने भारत के शौर्य को एक बार फिर बुलन्दियों तक पहुंचाया। भारतीय संस्कृति को विश्वस्तर पर पहचान दिलाने वाले उन महान व्यव्क्तित्वों में से एक स्वामी विवेकानंद का आदर्श था -' उठो जागो और तब तक न रुको जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए '। इस आदर्श ने युवाओं के बीच एक ऐसे प्रेरणाश्रोत की जगह कायम की जो आज तक बनी हुई है। साल 1893 में अमेरिका में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व करते हुए स्वामी विवेकानंद ने शून्य पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने व्याख्यान से ये सिद्ध कर दिया कि भारत बौद्धिक, धार्मिक, चारित्रिक और दार्शनिक क्षेत्र में दुनिया में सबसे आगे है।

स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 में कलकत्ता के एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे। विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य संस्कृति में विश्वास रखते थे। वे अपने पुत्र नरेंद्र को भी अंग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढर्रे पर चलाना चाहते थे। लेकिन उनकी माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों वाली महिला थी। पिता की मृत्यु के बाद घर-गृहस्थी का भार संभालने के बजाय नरेंद्र ने सन्यास लेने का विचार किया। उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने नरेंद्र को सन्यास नहीं लेने की बात कहते हुए कहा कि, 'तुम स्वार्थी हो'। इसपर नरेंद्र ने अपना फैसला त्याग दिया और नौकरी की तलाश में जुट गए। लेकिन उन्हें नौकरी न मिल सकी। साल 1881 में नरेंद्र ने सन्यास ले लिया और अपना नाम विवेकानंद रखा।

मात्र उन्तालीस साल के जीवनकाल में स्वामी विवेकानंद ने अपने प्रभावी कार्यों से ऐसी मिशाल कायम की जो कई सालों तक पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे।उन्नीसवीं सदी के आखिरी सालों में विवेकानंद करीब हिंसक क्रांति के जरिये भी देश को आज़ाद कराना चाहते थे। लेकिन उन्हें जल्द ही ये विश्वास हो गया था कि परिस्थितियां उन इरादों के लिए अभी परिपक्व नहीं है। इसके बाद ही विवेकानंद ने 'एकला चलो' की नीति का पालन करते हुए भारत और दुनिया को खंगाल डाला। उन्होंने कहा था कि-' मुझे बहुत से युवा सन्यासी चाहिए। जो भरते के गांवों में फैलकर देशवासियों की सेवा में लगे' । वह पुरोहितवाद, धार्मिक आडम्बरों, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने धर्म को मनुष्य की सेवा के केंद्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया था।

स्वामी विवेकानंद केवल सन्यासी ही नहीं, बल्कि देशभक्त, वक्ता, विचारक और लेखक भी थे। साल 1899 में कोलकाता में भीषण प्लेग फैला, अस्वस्थ होने के बावजूद उन्होंने पीड़ित लोगों की सेवा की। उन्होंने 1 मई, 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। ये मिशन, दूसरों की सेवा और परोपकार को कर्मयोग मानता है जो कि हिंदुत्व में प्रतिष्ठित सिद्धांत है। विवेकानंद की ओजपूर्ण वाणी ने भारतीय जनता और राष्ट्रवादियों में एक नई शक्ति का संचार किया। उनका कहना था- 'संसार का इतिहास उन थोड़े से व्यक्तियों का इतिहास है जिनमें आत्मविश्वास था। यह विश्वास देवत्व को प्रकट कर देता था, तब व्यक्ति कुछ भी कर सकता है, सर्वसमर्थ हो जाता है। असफलता तभी प्रकट होती है जब तुम शक्ति को अभिव्यक्त करने का प्रयास नहीं करते। जिस क्षण व्यक्ति या राष्ट्र आत्मविश्वास खो देता है उसी क्षण उसकी मृत्यु हो जाती है'।

स्वाती सिंह

रविवार, 3 जनवरी 2016

देश की पहली शिक्षिका :- सावित्रीबाई फुले


फ़रवरी की हल्की सर्दी आते ही बचपन के वो दिन याद आने लगते है, जब हम अपने बोर्ड एग्जाम की तैयारी में जोर-शोर से लगे रहते थे। और हमें अपनी शिक्षिका की दी हुई सभी नसीहतें याद आने लगती थी। जिसपर अमल करके हम सभी कड़ी मेहनत किया करते। उस समय भी आज के समय की ही तरह हमारी कक्षाओं में लड़कियां अव्वल दर्जे पर आती थी। पर आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि आज से करीब 160 साल पहले लड़कियों के लिए स्कूल खोलना भी पाप माना जाता था। इतना ही नहीं, जब लड़कियां स्कूल जाती थीं, तब लोग पत्थर मारते थे। ऐसे में ये जानना भी दिलचस्प होगा कि देश की पहली शिक्षिका कौन होगी? जिन्होने देश में महिला शिक्षा की नींव रखी। आइये तो आज हम आपको देश की पहली शिक्षिका से रु-ब-रु करवाते है......।

               सावित्रीबाई फुले भारत की पहली शिक्षिका और पहले किसान स्कूल की संस्थापिका  थी। सावित्रीबाई को महाराष्ट्र और भारत में सामाजिक सुधार आंदोलन में एक ख़ास व्यक्तित्व माना जाता है। उन्हें महिलाओं और दलितों को शिक्षित करने के प्रयासों के लिए जाना जाता है। सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को हुआ था। इनके पिता का नाम खन्दोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मी था। सावित्रीबाई फुले का विवाह 1840 में ज्योतिबा फुले से हुआ था।                

      सावित्रीबाई ने अपने जीवन को एक मिशन की तरह से जीया जिसका उद्देश्य था-विधवा विवाह करवाना, छुआछूत मिटाना, महिलाओं की मुक्ति और दलित महिलाओं को शिक्षित बनाना। वे एक कवियत्री भी थीं, उन्हें मराठी की आदिकवियत्री के रूप में भी जाना जाता था। अपने पति ज्योतिराव गोविन्दराव फुले के साथ मिलकर स्त्रियों के अधिकारों और शिक्षा के लिए बहुत से कार्य किए।जब सावित्रीबाई कन्याओं को पढ़ाने के लिए जाती थीं, तो रास्ते में लोग उन पर गंदगी, कीचड़ और गोबर तक फेंका करते थे। वो एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थी और स्कूल पहुंचकर गन्दी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं। इस तरह वे लोगों को हमेशा अपने पथ पर चलते रहने कीं प्रेरणा देती थी। साल 1848 में, पुणे में अपने पति के साथ मिलकर कई जातियों की नौ छात्राओं के साथ उन्होंने एक विद्यालय की स्थापना की। एक साल में सावित्रीबाई और महात्मा फुले पांच नए विद्यालय खोलने में सफल हुए। सरकार ने उनकी इस सफलता को सम्मानित भी किया। एक महिला प्रिंसिपल के लिए साल 1848 में बालिका विद्यालय चलाना कितना मुश्किल रहा होगा, इसकी कल्पना आज के समय में नहीं की जा सकती है। लड़कियों की शिक्षा पर उस समय सामाजिक पाबंदी थी।

सावित्रीबाई उस दौर में न सिर्फ खुद पढ़ी, बल्कि उन्होंने दूसरी लड़कियों की भी शिक्षा-व्यवस्था पर ध्यान दिया।सावित्रीबाई की मृत्यु भी समाजसेवा के क्षेत्र में एक बलिदान ही थी। 10 मार्च 1897 को प्लेग की वजह से सावित्रीबाई का निधन हो गया। प्लेग महामारी में सावित्रीबाई प्लेग के मरीजों की सेवा किया करती थी। एक प्लेग के छूत से प्रभावित बच्चे की सेवा करने की वजह से वह भी प्लेग ग्रसित हो गयी और उनकी मृत्यु हो गयी।

स्वाती सिंह