शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

ये 'चरित्र' क्या होता है? सोचा है कभी......!

 पितृसत्तात्मक समाज में जब बात महिलाओं की हो, तो उनका भूगोल देह और चरित्रके इर्द-गिर्द ही चक्कर लगाता दिखाई पड़ता है। मन की गांठ तो कभी खुलती ही नहीं। कहीं न कहीं महिलाएं भी इसे अपने अस्तित्व के तौर पर स्वीकार कर लेती हैं। इस आधार पर जिंदगी जीने लगती हैं कि चरित्र को बेदाग रखना ही उनके जीवन का अंतिम लक्ष्य है। ऐसे में सवाल उठता है कि चरित्र की परिभाषा  क्या है? मानवीय विवेक में जिसकी थोड़ी भी आस्था होगी, वह आपको बतलाएगा कि चरित्र का मतलब है - आदमी का वह आंतरिक गुण, जिसकी बदौलत वह न केवल पशु-जगत बल्कि अपने ही जैसे अन्य मनुष्यों से भी अलग है। 





चरित्र का अर्थ क्या सिर्फ यौन शुचिता?

   मगर हमारे समाज में चरित्र की गढ़ी हुई परिभाषा सिर्फ पुरुषों के लिए सुरक्षित है। औरतों के लिए तो यह पूरी तरह वर्जित है। उनके लिए यह एक ऐसी लक्ष्मण-रेखा है, जिस पर पांव रखते ही पितृसत्तात्मकता का रावण उन्हें हर ले जाएगा। उनके लिए चरित्र का सिर्फ एक ही अर्थ है - यौन शुचिता,  कौमार्य की रक्षा और पतिव्रत धर्मका पालन। नारी चरित्र की यह विशेष व्यवस्था नारियों ने खुद नहीं की, बल्कि हमारे उन पुराण-पुरुषों ने की, जो कहते हैं कि दिन के उजाले में आठ-आठ बरस तक अपनी बीवियों का मुंह नहीं देखते थे, लेकिन रात के अंधेरे में इसी दरम्यान आठ-आठ बच्चे पैदा करना न भूलते थे। और जिन्होंने अपनी औरतों को बचानेके लिए छोटे-छोटे चोरदरवाजे भी बंद करने में कोई कोताही न की। चुनरी में दाग लगा नहीं कि ये शोर मचा देते हैं। क्या महज एक दाग भर से स्त्री का चरित्र तय हो जाता है?

         
पवित्रता की आड़ में पाखंड

   आज भी चरित्र की इस पाखंडपूर्ण व्यवस्था का रक्षक वही पुरुष-समाज है, जो अपनी चहारदीवारी में औरतों की पवित्रता के लिए नए नुस्खे ईजाद करता है और खुली सड़कों पर हर लहंगे के पीछे और कूल्हों की हर जुंबिश पर लार टपकाता नजर आता है। यानी घर में कौमार्य की रक्षा की नियमावली और पास-पड़ोस में उसके उल्लंघन के लिए चारेबाजी - यही है वह संतुलन-बिंदु, जिस पर हमारे समाज की सारी नैतिकता टिकी है।

  जाहिर है दोहरे मानदंडों वाले इस विकृत संसार में औरत की यौन-शुचिता सिर्फ एक गुलदस्ता ही हो सकती है, जिसे वह शादी की पहली रात पति नामक प्राणी को भेंट करेंगी। यह भेंट उसका अपना फैसला नहीं, बल्कि समाज के उन कर्णधारों का है, जिन्होंने एकतरफा निर्णय की पितृसत्तात्मक व्यवस्था के तहत पति को यह अधिकार दिया है कि वह पत्नी की इच्छा या सहमति की परवाह किए बगैर उसकी बरसों संजोई पवित्रताको भंग करे, उसे मानवीय संबंधों की दुनिया में एक गौण पुर्जे की तरह फिट कर दे और कुल मिलाकर,  उसके व्यक्त्वि को रसोईघर और बेडरूम से लेकर प्रसूति-गृह तक इस तरह बिखेर दे कि उसके टुकड़ों का जोड़ तक नजर न आए।

  चरित्र की इसी व्यवस्था को स्वीकार करके ही औरतों की अनगिनत पीढ़ियां अपनी पाकीजगी साबित करती आई हैं और इतिहास गवाह है कि जब भी किसी ने इस व्यवस्था से बाहर निकालने की हिमाकत की, उसे गार्गी की तरह याज्ञवल्क्यों ने उसके भी सिर के सौ टुकड़े कर डाले।

         
चरित्र के दोहरे मानदंड

   अगर आपने चरित्र के दोहरे मानदंडों की विकृति पर गौर किया हो, तो आप पाएंगे कि परिवार के अंदर यौन-शुचिता पर जोर देने का मूल कारण औरत के सम्मान और स्वतंत्रता की रक्षा करना नहीं, बल्कि हर निजी संपत्ति की तरह औरत नामक वस्तुपर भी पितृसत्ता का एकाधिकार मजबूत करना है। इस एकाधिकार की क्यों जरूरत है?  लेकिन वंशवृद्धि और रक्तशुद्धि के लिए- संपत्ति का उत्तराधिकार और वह भी जायज उत्तराधिकार सुनिश्चित करने के लिए, यह उन्हें जरूरी लगा हो। इसके अलावा अगर कोई और नेक उद्देश्य होता - मसलन, पुरुष की बेलगाम भोगेच्छा पर रोक लगाना- तो एकनिष्ठ विवाह के साथ रंडियों, रखैलों, गीशाओं और मिस्ट्रेसों की एक समानांतर व्यवस्था चलती न दिखाई पड़ती।


हाय! ये कुलमर्यादा  

   कुल की मर्यादा ही वह चीज़ है, जिसके सहारे पुरुष-समाज जीवनसाथी के चुनाव जैसे निहायत निजी मामलों में भी नारी के निर्णय करने के अधिकार का अपहरण कर लेता है और उसे महंगे दामों में खरीद कर किसी भी मनचाहे व्यक्ति को औरत नामक वस्तुका उपभोक्ता मुकर्रर कर देता हैे। 


और चुनवा दी जाती है अनारकली 

   रिश्तों के इस व्यापार में वह पूरा ध्यान रखता है कि उसके द्वारा मुकर्रर उपभोक्ता केवल पुरुष होने के कारण ही औरत से सुपीरियरन हो, बल्कि जातीय व सामाजिक हैसियत के लिहाज़ से खासा सुपर फाइनहो। यानी, ले-देकर कुलमर्यादा की मान्य व्यवस्थाएं औरत को बस बिस्तर में चिन देती हैं - इस गारंटी के साथ उस बिस्तर पर बिछी चादर रक्त रंजित होगी क्योंकि वह अक्षत योनि है। अगर औरत ने किसी भी रूप में इन व्यवस्थाओं का उल्लंघन किया, तो समाज उसे अनारकली की तरह दीवारों में चिनवा देगा।

   यह सच है कि जो लोग जाति और माली हैसियत-दोनों लिहाज से समाज के निचले पायदान पर पड़े हैं, उनके यहां कुलमर्यादा का सवाल इस तरह नहीं उठता। सामंत प्रभु जब चाहे अपने इन निरीह असामियों की निरीहता का फायदा उठा कर उनकी औरतों को अपनी रखैलों में तब्दील कर ले सकता है। प्रभु वर्ग की सर्वग्रासी शान के सामने कमजोर की बीवी के मान की बात करना शायद एक अनाधिकार चेष्टा है। 


......और एक आवाज तक नहीं उठती

     बात चाहे जितनी कड़वी लगे, पर सच्चाई यही है कि हमारे पास भी अपनी औरतों को दिखाने के लिए कोई दमदार सपना नहीं है। वरना ऐसा क्यों होता है कि हत्या और बलात्कार की घटनाएं घटती रहती हैं, मगर प्रगतिकामी ताकतों की ओर से प्रतिवाद की एक आवाज़ तक नहीं उठती? जाहिर है कि उनके इस नकारात्मक (और कई बार घातक) व्यवहार ने न केवल महिलाओं को और अधिक असहाय बना दिया है, बल्कि सामाजिक परिवर्तन के चक्र को - धनतंत्र बनाम जनतंत्र के निर्णायक संघर्ष को - स्वतंत्रता और समानता पर आधारित समाज-निर्माण के स्वप्न को कहीं कहीं पितृसत्तात्मक व्यवस्था के सामने सिर झुकाने को विवश कर दिया है।
   
आज जिस चीज की सख्त ज़रूरत है, वह है चिंतन के धरातल पर पितृसत्तात्मक व्यवस्था और पुरुष-प्रभुत्ववाद के खिलाफ एक ज़बरदस्त, वास्तविक और दूरगामी सांस्कृतिक संघर्ष की। एक ऐसे संघर्ष की, जो हमारा आत्मसंघर्ष भी हो और नारी-विरोधी माहौल के खिलाफ हमारा संग्राम भी.... वह संघर्ष, जो न केवल मध्यकालीन जड़ मानसिकता और आधुनिक जीवन के विकृत उपभोक्तावाद पर तीखी चोट करे, बल्कि औरत-मर्द के रिश्तों को एक नए मानवीय आलोक में फिर से परिभाषित करे - उनकी स्वतंत्रता और समानता के ठोस व वास्तविक आधारों की खोज करें।



 (महेश्वर के महिला विषयक लेखों का संग्रह परचम बनता आंचलसे कुछ भावांश साभार)


बुधवार, 19 अक्तूबर 2016

मेरे सशक्त रूप को तुम ‘ये गाली’ देते हो तो ‘मुझे कबूल है’ - टू बी अ बिच

आज महिलाओं ने अपना सशक्त मुकाम हासिल करने के लिए कितनी कुर्बानी दी है, मालूम भी है आपको? रात-रात भर जाग कर पढ़ी हैं वो। उसने खुद को काबिल बनाया है। उसके संघर्ष में घर के पुरुषों ने ही साथ नहीं दिया। वह अकेली लड़ी है आगे बढ़ने के लिए। फिल्म, फैशन वर्ल्ड और कॉरपोरेट से लेकर साहित्य व मीडिया तक, पुलिस और प्रशासनिक सेवाओं से लेकर मेडिकल और इंजीयिरिंग तक वे अपनी प्रतिभा से पहुंची हैं। आज जब वह अपने हिस्से की दुनिया जीना चाहती हैं, तो पुरुष उन्हें पितृसत्ता की आड़ में कठपुतली की तरह नचाना चाहते हैं। कमाल है....! 




अब इसे महज संयोग कहा जाए या साजिश, एक पितृसत्तात्मक समाज में जो पुरुष का होता है वह वैध है, वरना बाकी सब अवैध है। खासकर महिलाओं के संदर्भ में। लड़की ने अगर पितृसत्ता के अनुसार शादी की, तो वह शरीफऔर अगर नहीं की तो छिनालया चरित्रहीन। शारीरिक-संबंध अगर सिर्फ पति के साथ हुआ तो लड़की पतिव्रताऔर अगर नहीं हुआ या कभी किसी और के साथ रहा हो, तो लड़की रंडीया वेश्या। अगर यही पुरुष करे तो कोई बात नहीं। संस्कार, इज्जत, कायदे या तहज़ीब के नाम पर क्या खूब रची गई है न ये मर्दों की दुनिया....! 

   यहां सब का आधार बपौती है। यानी बाप-भाई या पुरुष रिश्तेदार जो कहें या करें, वह सही। और बंधन तोड़ कर एक मुकाम हासिल कर रहीं परिवार और समाज की महिलाएं अपने मन की करें, तो भइया वह सब गलत है। आप करो तो सब ठीक और हम करें तो संदेहास्पद चरित्र। शायद यही वजह है कि इन मर्दों ने अपनी भड़ास निकालने के लिए अधिकांश गालियां महिलाओं पर ही केंद्रित करके बनाई गई है। यहां तक कि उन्होंने अपनी मां और बहन को भी इसमें नहीं बख्शा। 

   इसी तर्ज पर, आजकल लड़कियों के संदर्भ में कथित कुलीन लोगों में एक गाली- बिचऔर अपने देसी समाज में कुतियाके इस्तेमाल का चलन तेजी से बढ़ा है। घर में तो ये आम है। मगर सोशल मीडिया हो या सड़क-चौराहा, कॉलेज-कैंपस हो या आॅफिस का कैफेटेरिया, बड़ी आसानी के किसी लड़की को कुतियाघोषित कर दिया जाता है। और क्या आपको पता है कि कुतियाघोषित किए जाने के मानक क्या हैं? अगर नहीं जानते तो आइए हम बताते हैं - 

 कुतिया हो तुम अगर’-


   -मर्दों की गढ़ी हुई संस्कारी औरतकी परिभाषा में तुम खरी नहीं उतरती।



   -चीज़ों को देखने-सोचने का तुम्हारा एक अपना नज़रिया है या यूं कहें कि तुम्हें किसी की बातें यूं ही मान लेना पसंद नहीं।


   -तुम अपने आपको वो इंसान समझती हो, जो सोचने-समझने और उन पर कायम रहने की हरसंभव कोशिश करता है। मगर ऐसा है नहीं।


   -तुम्हारे पास बहुत सारे काम हैं करने को। इसलिए तुम्हारे पास किसी के बहाने सुनने का वक्त नहीं है।



    -स्तन व हार्मोन्स के होते हुए भी तुम्हारे जीवन के कुछ लक्ष्य हैं और तुम महत्त्वाकांक्षी हो। गोया कि सिर्फ पुरुषों की ही होती है यौन आकंक्षा, तुम्हारी नहीं। 


   -तुमने अपने पिछले बॉयफ्रेंड या पति को इसलिए छोड़ दिया क्योंकि उसने तुम्हारे आत्मसम्मानको ठेस पहुंचाई थी।



  -तुम अपनी ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जीना चाहती हो।


  -तुम्हें समझौते के नाम पर अपने आत्म को खत्म करते हुए जीना गवारा नहीं है।



हाल ही में, अभिनेत्री, निर्देशक और रॉकस्टार श्रुति हसन ने अनब्लशके बैनर तले एक विडियो बी द बिचलांच किया। इस विडियो में श्रुति ने महिलाओं की उन खासियत को उजागर किया, जो उन्हें मर्दों के अनुसार बिचयानी कुतिया बनाती है। कहा जाता है कि नियति बदली जा सकती है अगर नीयत बदल दी जाए, मगर पुरुषों के इस माइंडसेट को बदलना इतना आसान नहीं है। 



  आज हम बड़ी आसानी से कह देते हैं कि महिलाएं तो अब बहुत सशक्त हो चुकी हैं, तभी तो हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं। मगर इसके लिए उसने कितनी कुर्बानी दी है, मालूम भी है आपको?। रात-रात भर जाग कर पढ़ी हैं वो। उसने खुद को काबिल बनाया है। उसके संघर्ष में पुरुषों ने साथ नहीं दिया। वे अकेली लड़ी हैं आगे बढ़ने के लिए। फिल्म, फैशन वर्ल्ड और कॉरपोरेट से लेकर साहित्य व मीडिया तक, पुलिस और प्रशासनिक सेवाओं से लेकर मेडिकल और इंजीयिरिंग तक वे अपनी प्रतिभा से पहुंची हैं। आज जब वह अपने हिस्से की दुनिया जीना चाहती हैं, तो पुरुष उन्हें पितृसत्ता की आड़ में कठपुतली की तरह नचाना चाहते हैं। कमाल है! मेहनत हम करें और जीवन भर के लिए आपके गुलाम हो जाएं.....! न भाई ये हम से न होगा। जो करना है कर लो, हम अपने मन की जिएंगे।      


औरतों को कुतिया कहने वालो को कहो-थैंक यू


   सवाल यह है कि आप....जी हां पितृसत्तात्मक सोच रखने वाले आपलोगों से ... चाहे औरत हों या मर्द, ..... दोनों ही कितने तैयार हैं- हमारे सशक्त रूप को स्वीकार करने के लिए? अब आप कहेंगे कि भला हमने कब रोका है? तो जनाब ये बताइए कि ऐसे शब्दों से उन्हें आगे बढ़ने भी तो नहीं दिया है। आपने गाली देकर महिला सशक्तीकरण के लिए बरसों चले संघर्ष का मजाक ही तो उड़ाया है। 



बहरहाल, इन सब हालातों से निपटने के लिए अपने विडियो से श्रुति ने नजरिए को बदलने की बात कही है, जो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में एकदम सही और सटीक है। अब किसी की सोच तो बदली नहीं जा सकती, इसलिए क्यों न हम अपने ही नजरिए को बदल लें। क्योंकि हमें आगे बढ़ना है, रुकना नही है। ....... तो अगर कोई हमें बिचकहे, तो हम उन्हें हंस कर जवाब दें - थैंक यू।

स्वाती सिंह 


शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2016

औरतों को चाहिए ‘स्वतंत्र इंसान’ की पहचान

उसे चाहिए अपनी भूमिका के साथ जीने का हक



    यह मामला है इस बात की सामाजिक स्वीकृति और गारंटी का कि मानव-जाति का जो हिस्सा आधी दुनिया कहलाता है, उसे स्वतंत्र पहचान और भूमिका के साथ औरत होकर जीने का हक है। किसी भी स्थिति में उसे इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। यह स्वीकृति और गारंटी किसी भी सभ्य समाज की कसौटी है। क्या भारतीय समाज आधुनिकता के इस कथित दौर में इतना परिपक्व हो पाया है कि वह आधी दुनिया से बराबरी के स्तर पर वह सब कुछ बांट सके, जिस पर वह बरसों से अपना अधिकार जमाए बैठा है? भारतीय महिलाओं की दशा और दिशा पर एक समाजशास्त्रीय विवेचन-  


   पहली कहानी -

     नेहा ने जहर नहीं खाया, पर उसके दिल-दिमाग में इतना जहर भर चुका है कि अब वह अपने घर-परिवार से, अपने अड़ोस-पड़ोस से, अपने देश-समाज से और यहां तक कि अपने-आप से नफरत करती है, डरती है, और अपनी मां के अलावा किसी से कोई बात करना पसंद नहीं करती। पिछले साल वह कालेज से लौट रही थी, तो राह चलती लड़कियों पर फिकरे कसने वाले लफंगों की एक जमात ने उसे घेरा, नोचा-खसोटा, जलील किया और फिर रातों-रात उसे एक हंसती-खेलती लड़की से सामूहिक बलात्कार की एक छोटी-सी खबर बना डाला। हां, पुलिस में रिपोर्ट की थी, लेकिन वे हमेशा यही कहते रहे कि बदमाशों को पहचानो, उसका नाम बताओ, तब हम कार्रवाई करेंगे।यह बोलते-बोलते उसकी मां सिसक पड़ती है, लेकिन नेहा पर इस सिसकी का कोई असर नहीं होता। वह अब एक औरत नहीं, खौफजदा इंसान है। नेहा जिंदा है, मगर वह मर चुकी है।


   दूसरी कहानी -

  आरती इस्तेमाल नहीं होना चाहती थी, तो जानते हैं, उसके साथ क्या हुआ? उसे एक दिन जहर खा लेना पड़ा। बच्ची थी, तभी उसके मां-बाप गुजर गए। दूर के रिश्ते के निसंतान चाचा-चाची ने उसे पाला-पोसा, कुछ पढ़ाया-लिखाया और बमुश्किल सत्रह साल की छोटी सी उम्र में उसका ब्याह कर दिया। पति और ससुर दोनों शराबी-कबाबी और दोनों चाहें कि वह दोनों की हवस मिटाए। आरती ने पहले बचने की कोशिश की, फिर भाग निकली। चाचा-चाची ने बड़ी मुश्किल से पिंड छुड़ाया। फिर उसे एक और लड़के के पल्ले  बांध दिया। यह लड़का पहले से शादीशुदा था, इसलिए जल्दी ही छोड़ कर चलता बना। चाचा-चाची तीसरी बार किसी से उसकी बात चला रहे थे, तब उसे पता चला कि असल में उसे बेच रहे थे और इससे पहले भी दो बार उसे बेचा ही गया था। फिर तो उसकी छाती ऐसी फटी की जिंदगी का सारा मोह जाता रहा। आरती ने अपने लिए मौत को चुन लिया।


   तीसरी कहानी -

  ‘ईश्वर की कृपाहै कि तान्या को ऐसी कोई परेशानी नहीं झेलनी पड़ी। वह सरकारी क्षेत्र के एक बैंक में असिस्टेंट है। पति सेक्रेटेरियट में काम करते है। सब ठीक-ठाक चल रहा है। घर में बहुत समृद्धि नहीं तो कोई अभाव भी नहीं है, लेकिन कहां मिलता है मन का सुकून और तन को आराम। दिन भर दफ्तर में काम करो, सुबह-शाम नाश्ता-खाना तैयार करो। बच्चे के पोतड़े धोओ और फिर पतिदेव के नखरे उठाओ। जिंदगी न हुई, एक बवाल हो गई, लेकिन दिक्कत इन सबसे नहीं, बच्चे को लेकर है। तीन-चार साल का बच्चा है, जिसे दिन भर के लिए पड़ोसी के यहां छोड़ना पड़ता है। वैसे, पड़ोसन भली महिला है और वह खुद बच्चे के लिए खाना-दूध सब करके आती है, पर दिन भर उसके लिए मन कलपता रहता है, तरह-तरह के बुरे खयाल आते रहते है। कभी-कभी मन करता है कि नौकरी छोड़ दूं।वह कहती है- मगर हमारा परिवार बड़ा है। गांव में सास-ससुर-ननद-देवर सब रहते है। उनकी मदद करें न करें, ननद की शादी के लिए पैसा जुटाना ही पड़ेगा न।



समय बदल गया। सरकारें भी बदल गर्इं, पर औरतों की यह तस्वीर नहीं बदली। वह आज भी इन्हीं समस्याओं से घिरी नजर आती है- समाज में, साहित्य में, सिनेमा में। हर कहीं, उसके नाम बहुत हैं, मगर पहचान कुछ नहीं। उसकी सूरतें अनेक हैं, पर औकात कुछ नहीं। आज महिलाओं के सामाजिक अस्तित्व के सामने यही भौतिक और भावनात्मक विनाश के खतरे हैं, जिन्होंने आज महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा के सवाल का नारीवादी आंदोलन का सबसे प्रमुख प्रश्न बना दिया है।

   महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा इस नारीवादी संघर्ष का एक ज्वलंत मुद्दा है। आज की ठोस स्थितियों में तात्कालिक सुरक्षा का मतलब है : महिलाओं की उन तमाम समस्याओं का समाधान। ये समस्याएं न सुलझने की वजह से एक स्वतंत्र सामाजिक हस्ती के रूप में महिलाओं का सिर उठा कर जीना नामुमकिन होता जा रहा है।

   1. इन समस्याओं में सबसे पहली चीज है - अशिक्षा। इसने औरतों को जीवन और जगत की ठोस वास्तविकताओं से दूर कर रखा है।

  2. शिक्षा के बाद सबसे उपेक्षित क्षेत्र है - रोजगार। इसके बगैर औरत की आर्थिक स्वतंत्रता की बात भी नहीं सोची जा सकती। एक तो हमारे समाज की सोच ही इतनी पिछड़ी और पुरुषमुखी है कि पढ़ी-लिखी औरतों की शिक्षा भी पति की सामाजिक हैसियत जताने के काम आ जाती है। 

   3. अब कामकाजी महिलाओं की एक श्रेणी उभरी भी है, तो भी उसकी आर्थिक स्वतंत्रता कतई बेमानी है। सिर्फ इसलिए नहीं कि हमारे परिवार उनकी कमाई पर उनके व्यक्तिगत अधिकार को दिल से मान्यता देना नहीं जानते, बल्कि इसलिए भी कि बच्चों के पालन-पोषण की चिंता में वस्तुत: उनका कोई हिस्सेदार नहीं होता।


आर्थिक दृष्टि से दो और महत्त्वपूर्ण समस्याएं हैं, जो औरत को दोयम दर्जे का नागरिक बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभाती है। इनमें से एक है - घरेलू कामकाज, जिसके बगैर शांति से जीवन चलना नामुमकिन है। महिलाएं न केवल इस जिम्मेदारी को निभाने में अकेली हैं, बल्कि उनकी इसके बिना मोल की मेहनत को सामाजिक उत्पादन के क्षेत्र में कोई योगदान तक नहीं समझा जाता। दूसरा मसला है - पारिवारिक संपत्ति का, जिसमें तमाम कानूनों के बावजूद पुरुषों को महिलाओं के साथ हिस्सा बांटना रास नहीं आता है। 

   आज जब हम महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा की बात करते हैं, तो उसका मतलब होता है- महिलाओं के आर्थिक और आर्थिकेतर उत्पीड़न के इन तमाम रूपों के खात्मे की गारंटी। उनकी तमाम तात्कालिक ज़रूरतों के निदान वास्ते एकमुश्त कार्यक्रम को लागू करने के लिए महिलाओं के प्रतिनिधि संगठनों के नियंत्रण में काम करने वाली सामाजिक एजंसियों का निर्माण। हिंसक तत्वों से महिलाओं की रक्षा के लिए और महिला-संबंधी मामले-मुकदमों से हाथों-हाथ निपटने के लिए विशेष दस्ते का गठन। 



यह न तो महिलाओं पर समाज की दया का मामला है और न ही पीड़ित महिला-समुदाय के प्रति उत्पीड़क पितृसत्ता की दरियादिली का। यह मामला है इस बात की सामाजिक स्वीकृति और गारंटी का कि मानव-जाति का जो हिस्सा आधी दुनिया कहलाता है, उसे स्वतंत्र पहचान और भूमिका के साथ औरत होकर जीने का हक है और किसी भी स्थिति में उसे इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। यह स्वीकृति और गारंटी किसी भी सभ्य समाज की कसौटी है। क्या भारतीय समाज आधुनिकता के इस कथित दौर में इतना परिपक्व हो पाया है कि वह आधी दुनिया से बराबरी के स्तर पर वह सब कुछ बांट सके, जिस पर वह बरसों से अपना अधिकार जमाए बैठा है?  


स्वाती सिंह 

शनिवार, 8 अक्तूबर 2016

आजादी की लड़ाई में आधी दुनिया

भारतीय स्वतंत्रता का इतिहास जिन अमर शहीदों के लहू से लिखा गया, उनमें देश की आधी आबादी ने भी अपना योगदान दिया था। दुर्भाग्य से उनमें से ज्यादातर को भुला दिया गया| चंद महिला स्वाधीनता सेनानियों की ही चर्चा इतिहास के पन्नों और स्कूली पाठ्यक्रमों में होती है। मगर इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आजादी की लड़ाई में कंधे से कंधा मिला कर जिन गुमनाम महिलाओं ने सहयोग और समर्थन दिया, उनका तो कहीं जिक्र नहीं मिलता। फिलहाल, यहां चर्चा उन महिला स्वतंत्रता सेनानियों की, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में अपनी अमिट छाप छोड़ी।



वो थीं 1942 की झांसी की रानी : अरुणा आसफ अली


अरुणा आसफ अली का जन्म 1909 में एक बंगाली परिवार में हुआ। उन्होंने 1930 के नमक सत्याग्रह से स्वतंत्रता संग्राम में कदम रखा। गांधी-इरविन संधि के कुछ महीनों बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। इसके बाद 1941 में अरुणा को फिर से व्यक्तिगत सत्याग्रह के आरोप में गिरफ्तार किया गया। जब सभी प्रमुख नेताओं को 8 अगस्त को गिरफ्तार कर लिया गया, तब 9 अगस्त, 1942 को गोवालिया टैंक मैदान में तिरंगा फहराने वाली वह पहली शख्सियत थी। 26 सितंबर, 1942 को उनकी सारी संपत्ति जब्त कर ली गई। उन्हें अपनी सभी चीजें वापस पाने के लिए आत्मसमर्पण करने के लिए कहा गया। जब उन्होंने इनकार कर दिया, तो उनके सभी सामान बेच दिए गए।





अरुणा आसफ अली ने राममनोहर लोहिया के साथ मिल कर लोगों में जागरूकता पैदा करने के लिए इंकलाब पत्रमुहिम की शुरुआत की। इसका परिणाम यह हुआ कि कई सरकारी कर्मचारी अपनी नौकरी छोड़ कर और हजारों की संख्या में छात्र अपनी पढ़ाई छोड़ कर स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े और इसका नेतृत्व अरुणा ने किया। उन्हें ‘1942 की झांसी की रानीपुकारा जाने लगा। अरुणा आसफ अली दिल्ली नगर निगम की पहली महिला महापौर भी बनीं। उन्होंने लिंक एंड पेट्रियटनाम से पत्रिका भी निकाली, जिससे उनके कार्यों को मान्यता मिली। अरुणा जी  को कई राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय पुरस्कारों से भी नवाजा गया।


स्वतंत्र भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री : सुचेता कृपलानी


सुचेता कृपलानी का जन्म 1908 में अंबाला में हुआ। लाहौर में प्राथमिक शिक्षा के बाद उन्होंने एमए की डिग्री दिल्ली विश्विद्यालय से ली। बचपन से ही उन्होंने स्वतंत्र भारत में रहने का सपना देखा था। उन्होंने 1932 में, सार्वजनिक सेवाओं में प्रवेश किया और 1939 में राजनीति में शामिल हुर्इं। जनसेवा के उनके कार्यों से प्रभावित होकर 1940 में गांधीजी ने उन्हें व्यक्तिगत सत्याग्रह के लिए चुना। इसके लिए उन्हें गिरफ्तारी तक देनी पड़ी।

सुचेता ने 1942-43 में भूमिगत होकर अपना कार्य जारी रखा। उन्होंने आल इंडिया महिला कांग्रेस की नींव रखी, जिसका काम महिलाओं को देश के वास्ते संघर्ष करने के लिए प्रेरित करना था। इस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए उन्होंने 1942 में एक भूमिगत स्वयंसेवक बलका भी गठन किया। इससे महिलाओं को ड्रिल, हथियार संचालन, प्राथमिक उपचार और आत्मरक्षा तकनीकों में प्रशिक्षित किया जाता था। दो साल बाद 1944 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। 



जेल से बाहर आने पर 1945 में सुचेताजी ने अपना अधिकतर समय समाज-कार्यों के लिए समर्पित का दिया। उन्होंने 1946 में पूर्वी बंगाल में सांप्रदायिक दंगों और 1947 में पंजाब दंगों की पीड़ित महिलाओं को शरण दी। वे मार्च 1963 से मार्च 1967 तक उत्तर-प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं। वे स्वतंत्र भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री थीं।


वह नन्हीं परी एक दिन बनी दुर्गा : दुर्गा भाभी


इलाहाबाद कलक्ट्रेट के नाज़िर पंडित बांके बिहारी नागर के घर 7 अक्तूबर 1907 को उनकी नन्हीं परी दुर्गावती का जन्म हुआ। दुर्गा ने साल 1918 में पांचवी कक्षा पास की और उसी साल उनका विवाह आगरा में रहने वाले भगवती चरण वोहरा से कर दिया गया। शुरुआती दिनों में दुर्गा एक स्थान से दूसरे स्थान तक सूचनाएं पहुंचाने का काम करती थीं। 16 नवंबर 1926 में लाहौर में नौजवान भारत सभा ने भाषण का आयोजन किया, जहां वह सभा की सक्रिय सदस्य के तौर पर सामने आर्इं। दुर्गावती ने 17 दिसंबर 1928 को भगत सिंह और सुखदेव ने सांडर्स की हत्या की। हत्या के बाद ब्रिटिश पुलिस उनकी खोज में जुट गई। जिसके बाद ये दोनों दुर्गावती के पास पहुंचे और उन्होंने बड़ी सतर्कता से भगत और सुखदेव को सुरक्षित कलकत्ता पहुंचाने की योजना बनाई। नौ अक्तूबर 1930 को दुर्गा भाभी ने गवर्नर हैली पर गोली चला दी, जिसमें गवर्नर तो बच गया पर सैनिक अधिकारी टेलर घायल हो गया। मुंबई के पुलिस कमिश्नर को भी दुर्गा भाभी ने गोली मारी थी। जिसके बाद से अंग्रेज सरकार उनकी तलाश कर रही थी। 



इसके बाद दुर्गा भाभी लाहौर चली गईं, जहां पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर तीन साल तक नजरबंद रखा। फरारी, गिरफ्तारी और रिहाई का यह सिलसिला 1931 से 1935 तक चलता रहा। अंत में लाहौर से जिला बदर किए जाने के बाद दुर्गा भाभी 1935 में गाजियाबाद स्थित प्यारेलाल कन्या विद्यालय में अध्यापिका की नौकरी करने लगीं। कुछ समय बाद फिर दिल्ली चली गर्इं और कांग्रेस के लिए काम करने लगीं। मगर कांग्रेस रास न आने के पर उन्होंने इसे 1937 में छोड़ दिया। साल  1939 में इन्होंने मद्रास जाकर मारिया मांटेसरी से प्रशिक्षण लिया और 1940 में लखनऊ में कैंट रोड के एक मकान में पांच बच्चों के साथ मांटेसरी स्कूल खोला। आज भी यह विद्यालय लखनऊ में मांटेसरी इंटर कालेज के नाम से जाना जाता है। 14 अक्तूबर, 1999 को दुर्गा भाभी ने गाजियाबाद में अंतिम सांस ली। 

 
उन्हें आजादी के नाम मिली उम्रकैद : कल्पना दत्त


कल्पना दत्त बंगाल में उच्च-शिक्षा ले रही थीं। उन्हें अंग्रेजी शासन और उनकी भाषा से बैर था। वे स्कूल की प्रतिज्ञा तक को बदलना चाहती थीं, इसे वह परमेश्वर और राजा के प्रति वफादार होनेके स्थान पर परमेश्वर और देश के प्रति वफादार होनाकरना चाहती थीं। अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद कल्पना ने कलकत्ता विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया, जहां उन्होंने लाठी और तलवार चलाना भी सीखा। 

कल्पना दत्त 1929 में क्रांतिकारियों के संपर्क में आर्इं, लेकिन 1932 के बाद ही उन्होंने क्रांतिकारी टीम में शामिल होने और सक्रिय रूप से आजादी के लिए लड़ने का निश्चय किया। उन्होंने पुरुषों के कपड़े पहन कर अपनी पहचान बदली और  सरकारी इमारतों पर छापे मारे। पुलिस को शक हो गया कि वे  क्रांतिकारी दल की सदस्य हैं।




पुलिस उन पर नजर तो रखती थी, पर उनके खिलाफ कोई सबूत जुटाने में विफल रहती। जब पहाड़तली क्लब पर छापा मारा गया, तब पुलिस को यकीन हो गया कि वे क्रांतिकारी समूह की ही हिस्सा हैं। मौका मिलते ही धारा 109 के तहत मामला दर्ज कर कल्पना दत्त को जेल भेज दिया गया, पर सबूतों के अभाव में उन्हें जमानत मिल गई। इसके बाद वह फरार रहीं। हालांकि तीन महीने बाद ही उन्हें पकड़ लिया गया और चटगांव शस्त्रागार पर छापे मामले में मामला दर्ज कर उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। 1942 में वह जेल से रिहा हुर्इं, तो वे कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गई और 1943 में कम्युनिस्ट नेता पीसी जोशी से शादी कर ली। 

 नागालैंड की थी वो लक्ष्मी बाई : रानी गाइंडिनेल्यू



रानी गाइंडिनेल्यू को नागालैंड की लक्ष्मी बाईके रूप में जाना जाता है। महज 13 साल की उम्र में उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ने का फैसला किया था। जब वह 16 साल की थीं, तब उन्होंने केवल चार सशस्त्र नगा सैनिकों के साथ मिल कर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी, वह छापेमार युद्ध और हथियार संचालन में निपुण थीं। देखते ही देखते रानी गाइंडिनेल्यू नेता के रूप में उभरीं। उन्हें 1932 में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। भारत की आज़ादी के बाद जब वह जेल से बाहर आर्इं तब उनकी उम्र 30 वर्ष थी। उनकी बहादुरी के लिए पंडित नेहरू ने उन्हें रानीकह कर पुकारा था। स्वतंत्रता संघर्ष में उनकी भूमिका के लिए उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया।


देश की पहली महिला शिक्षिका : सावित्रीबाई फुले


तीन जनवरी, 1831 में दलित परिवार में जन्मीं सावित्रीबाई ने कभी भी इन बाधाओं के आगे घुटने नहीं टेके। जब वह सिर्फ नौ साल की थीं, तो उनका विवाह ज्योतिबाराव फुले के साथ कर दिया गया। सावित्रीबाई ने अपने जीवन को एक मिशन की तरह जिया। जिसका एक ही उद्देश्य था - समाज में शिक्षा का प्रसार करते हुए, समानता के आधार पर लोगों को विकास की दिशा में आगे बढ़ाना। उस दौर में यह बहुत जोखिम भरा काम था। क्योंकि उस समय का हमारा समाज इस बात की इजाजत नहीं देता था कि दलित-आदिवासी और स्त्री समाज शिक्षित हो, पर सावित्रीबाई ने हार न मानते हुए अपना संघर्ष जारी रखा।



एक जनवरी 1848 से लेकर 15 मार्च 1852 के दौरान उन्होंने अपने पति के साथ मिल कर बिना किसी आर्थिक मदद के लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोले। इससे पहले समाज में और शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे क्रांतिकारी काम किसी और ने नहीं किए थे। सावित्रीबाई न केवल देश की पहली शिक्षिका और प्रधानाचार्य बनीं, बल्कि उन्होंने भारतीय समाज में स्त्रियों की दशा सुधारने की दिशा में भी कई परिवर्तनकारी काम किए। उन्होंने 1852 में महिला मंडलका गठन किया। इस मंडल ने बाल विवाह, विधवा होने के कारण स्त्रियों पर किए जा रहे जुल्मों के खिलाफ सामाजिक बदलाव के लिए संघर्ष किया। इसके साथ ही, भारत का पहला बाल हत्या प्रतिबंधक गृहभी खोला। सावित्रीबाई ने एक विधवा काशीबाई को आत्महत्या करने से रोक कर उसके बच्चे यशवंत को दत्तक पुत्र के रूप में अपनाया। उसे पढ़ा-लिखा कर डाक्टर बनाया। इतना ही नहीं बड़ा होने पर उसका अंतरजातीय विवाह किया। यह महाराष्ट्र का पहला अंतरजातीय विवाह था। 10 मार्च 1897 को प्लेग की वजह से सावित्रीबाई का निधन हो गया।


गोली से मौत नहीं, कुर्बानी को दी मंजूरी : प्रीतिलता वाडेकर


प्रीतिलता वाडेकर का जन्म मई 1911 में चटगांव में हुआ। वह एक होनहार छात्रा थीं और अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से बीए पास किया। उसके बाद उनका प्रशिक्षण लीला नाग के दीपाली संघ और कल्याण दास के छात्र संघ में हुआ, जिसके बाद वह नेता सूर्यसेन की क्रांतिकारी दल का हिस्सा हन गईं। पुलिस से सामना होने पर अपने साथियों की हत्या का बदला लेने के लिए उन्होंने अपने नेता सूर्यसेन के साथ मिल कर अंग्रेज और यूरोपीय लोगों से भरे रहने वाले एक नाइट क्लब पर हमला करने की साज़िश रची। 



प्रीतिलता ने 24 सितंबर, 1932 में अन्य सदस्यों के साथ मिल कर क्लब पर हमला किया। अंग्रेजों की जवाबी कार्रवाई में बंदूक की एक गोली उन्हें लग गई। उन्हें लगा कि अब उनका बचना नामुमकिन है, तो उन्होंने अपनी योजना के मुताबिक पुलिस की गोली से मरने के बजाए अपनी जेब से पोटेशियम सायनाइट का एक पैकेट खाकर अपनी कुर्बानी देना बेहतर समझा। मगर इतनी कम उम्र में देश के लिए कुर्बानी देने वालीं प्रीतिलता को आज कौन याद करता है?


भारतीयता की एक महान पुजारिन : भीकाजी कामा


भीकाजी न तो कोई क्रांतिकारी परिवार से थीं और न ही किन्हीं हालातों से मजबूर होकर वे क्रांतिकारी बनीं। चौबीस सितंबर, 1861 में बंबई के एक धनी पारसी परिवार में जन्मीं भारतीय मूल की फ्रांसीसी नागरिक भीकाजी स्वभाव से समाजसेवी थीं। भीकाजी को यूं तो कभी भी जीवन-संघर्ष का सामना नहीं करना पड़ा, लेकिन वे ब्रिटिश साम्राज्य से देश को आजाद करवाने की लड़ाई में आजीवन शामिल रहीं।



इंग्लैंड में वह 'भारतीय होमरूल समिति' की सदस्य बनीं। मैडम कामा ने लंदन में पुस्तक प्रकाशन का काम भी शुरू किया। वीर सावरकर की पुस्तक ‘1857 चा स्वातंर्त्र्य लढा’ (1857 का स्वतंत्रता संग्राम) प्रकाशित करने में उन्होंने सहायता की। मैडम कामा ने 1905 में अपने सहयोगी विनायक दामोदर सावरकर और श्यामजी कृष्ण वर्मा की मदद से भारत के ध्वज का पहला डिजाइन तैयार किया। 

जर्मनी के स्ट्रटगार्ड में 1907 में अंतरराष्ट्रीय साम्यवादी परिषदकी बैठक बुलाई गई। इसमें कई देशों के प्रतिनिधि आए थे। उस परिषद में मैडम भीकाजी कामा ने साड़ी पहन कर और भारतीय झंडा हाथ में लेकर लोगों को भारत के बारे में जानकारी दी। इसके बाद उन्हें क्रांति-प्रसूताकहा जाने लगा। 

भीकाजी कामा अपने क्रांतिकारी विचार अपने समाचारपत्र वंदे मातरमऔर तलवारके माध्यम से लोगों तक पहुंचाती थीं। यूरोपीय पत्रकार उन्हें भारतीय राष्ट्रीयता की महान पुजारिन कह कर बुलाते थे। वृद्धावस्था में भीकाजी कामा भारत लौटीं और 13 अगस्त, 1936 को बंबई में गुमनामी की हालत में उनका देहांत हो गया। 


स्वाती सिंह