गुरुवार, 13 अप्रैल 2017

शादी करूं या न करूँ ये मेरी मर्जी है


पति अच्छा है, कमाता है, मारता नहीं, पीता नहीं, प्यार करता है, रात को साथ सोता है, पत्नी के रिश्तेदारों का आदर करता है, पहनाता ओढ़ाता ढंग से है, घर टाइम पर लौट आता है, दोस्तों के सामने निरादर नहीं करता, तू तड़ाक नहीं करता, मेरे बनाये खाने की तारीफ़ के पुल बाँध देता है सबके सामने…..इतना सब कुछ….ओह मैं कितनी प्रिविलेज्ड हूं| यार कुछ भी कहो, किसी सक्सेसफुल इंसान के साथ शादी होने के बाद ही लाइफ रियल में सेट होती है| इसके बाद कोई टेंशन नहीं है| पर तुम अभी इन सब बातों को नहीं समझोगी| इसलिए तो कहती हूं कि तुम भी शादी कर लो!



शादी के बाद माधवी से ये मेरी पहली मुलाक़ात थी| उसकी शादी को अभी दो साल हुए थे| जब मैंने उससे पूछा कि और बताओ कैसी हो? कैसा चल रहा है सब?तो एक सांस में माधवी ने अपने पति का गुणगान करते हुए, शादी के महत्व को समझाकर मुझे भी शादी की सलाह दे डाली| उसकी ये बातें सुनकर मुझे दुःख हुआ कि उसकी इन बातों में खुद का कोई जिक्र नहीं था| उसकी बातों से ऐसा लग रहा था जैसे उसके पास अपना कुछ हो ही न बताने को|
माधवी उस समय मास्टर्स के फाइनल इयर में थी जब उसकी शादी तय हुई थी| पढ़ाई-लिखाई में अच्छी माधवी ने अपनी ज़िन्दगी के लिए कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं किया था| करियर के बारे में बात करने पर वो हमेशा कहा करती – ‘यार देखा जायेगा| पहले डिग्री पूरी कर लूँ और वैसे भी पापा कह रहे थे कि इसके बाद शादी कर देंगे|माधवी का यह जवाब हमेशा मुझे इस बात पर सोचने के लिए मजबूर कर देता कि पढ़ाई का फ़ैसला जब उसने खुद लिया तो पढ़ाई के आगे के भविष्य को पापा के डिसिजन पर क्यूँ छोड़ दिया है? तमाम मुद्दों पर विचार देने वाली माधवी क्या खुद के लिए कुछ भी सोचने-करने में असक्षम है?
शादी फिक्स होने के बाद वो बेहद खुश थी| उसकी जुबान पर हमेशा अपने होने वाले पति का गुणगान हुआ करता था| और वो अक्सर ये बात कहती कि मेरा तो पर्मानेंट प्लेसमेंट हो गया है| अब तुम लोग भी जल्दी से अपनी लाइफ सेट कर लो| जैसे उसके लिए शादी करना ही लाइफ सेटकरना हो|
बचपन से ही दी जाती शादीवाली घुट्टी
हमारे समाज में हमेशा से महिलाओं के संदर्भ में शादीको उनके जीवन का अहम हिस्सा बताया गया है और उनके समाजीकरण में इस बात का ख़ास ख्याल भी रखा जाता रहा है| अक्सर छोटी बच्चियां जब रोती है तो उन्हें यह कहकर चुप कराया जाता है कि अभी सारे आंसू बहा लोगी तो विदाई में आंसू कैसे आयेंगे|मजाक में कही ये बातें बच्चों के मन में एक गहरी छाप छोड़ देती है और इसकी शुरुआत लड़कियां बचपन से ही अपने गुड्डे-गुड़ियों की शादी करवाने से कर देती है| बात चाहे सजने-संवरने की हो या किसी लड़की का घरेलू कामों में निपुण होने की हो, हमेशा इन गुणों को शादी से जोड़ दिया जाता है| यह किस्सा न केवल हमारे इतिहास का रहा है, बल्कि वर्तमान समय का भी है, जहां माधवी अकेली नहीं है| उसकी जैसी तमाम लड़कियाँ है जिनके लिए आज भी बचपन में दी गई शादीवाली घुट्टी उनके लिए शादी को जीवन का अंतिम लक्ष्य बना देती है और किसी सक्सेसफुल आदमी से शादी हो जाने पर उन्हें अपने जीवन की सार्थकता नज़र आने लगती है|
यह दुखद है कि जब प्रशासनिक सेवा से लेकर राजनीति, अभिनय, लेखन, रक्षा और दुनिया के सभी क्षेत्रों में महिलाएं अपनी सफलता का परचम लहरा रही है| ऐसे दौर में कई महिलाएं ऐसी भी हैं जिन्हें उच्चतर शिक्षा के मेडल और डिग्री की तो चाहत है पर उनके जीवन का लक्ष्य शादी तक ही सिमटा हुआ है क्योंकि उनके समाजीकरण में शादीके महत्व की बातों को एक घुट्टी की तरह उन्हें पिलाया जाता है और बड़ी होकर वे इसे आत्मसात कर जीने लगती है या यूँ कहें कि जीने को मजबूर कर दी जाती है|
शादी करूँ या न करूँमेरी मर्जी
मैं शादी के खिलाफ़ नहीं हूं| मैं खिलाफ़ हूं शादी को अपनी ज़िन्दगी मानने से| खुद के लिए ज़रूरी मानने से| शादी, पति और परिवार को एक ऐसी दीवार बनाकर जीने से, जिसके अंदर आपका अपना अस्तित्व धूमिल होने लगे और आपकी पहचान सिर्फ बीवी, बहु, माँ, बेटी, चाची व मामी जैसे नामों तक सीमित हो जाए| साथ ही, पूरे दिन में आपका अपना कोई समय न हो| आपके पास खुद का कुछ बताने का न हो| शादी से पहले जीवन को लेकर आपके सपने आपकी एक अधूरी ख्वाइश बनकर रह जाए| यहां हमें इस बात को समझना होगा कि शादी हमारी ज़िन्दगी का एक हिस्सा है न कि पूरी ज़िन्दगी| शादी करनी है या नहीं ये आपकी मर्जी पर निर्भर होना चाहिए|
ध्यान रहे शिक्षा व योग्यता न बने आपकी किस्सा का हिस्सा
आपने भी कभी अपनी दादी-नानी व मम्मी-मौसी को यह कहते सुना होगा कि मैं तो पढ़ाई में बहुत अच्छी थी| मेरी अच्छी जॉब भी हो गयी थी, लेकिन फिर शादी हो गयी तो मैंने सबकुछ छोड़ दिया|कहते हैं कि जब आप अपनी कद्र करते है तो दुनिया आपकी कद्र करती है| इसी तर्ज पर, खुद के सफल व्यक्तित्व निर्माण के बाद की गयी शादी में कभी भी आपकी शिक्षा व योग्यता आपके किस्सों का हिस्सा नहीं बनेगी| शादी का मतलब ये नहीं कि आप अपने करियर व रूचि का त्यागकर सिर्फ गृहस्थी तक सीमित हो जाए|
माना मुश्किल है पढ़े लिखे को समझाना पर कोशिश में कोई हर्ज़ नहीं
समय बदल रहा है| लोग बदल रहें है| उनकी सोच बदल रही है| लेकिन शादीके संदर्भ ज्यादा कुछ नहीं बदला है| पहले लड़कियों की बचपन में शादी कर दी जाती थी| उन्हें ज्यादा पढ़ाया नहीं जाता था| लेकिन अब लड़कियों को पढ़ाया जाता है, फिर शादी के लिए कहा जाता है| उन्हें बचपन से सिखाया जाता है कि तुम्हें दूसरे के घर जाना है| तुम पराया धन हो| तुम्हें किसी और के लिए तैयार होना है|माधवी के संदर्भ में यह बात बेहद सटीक लगती है| क्योंकि उसने समाज में लड़की होने और उसके सार्थक जीवन के लिए शादी को एकमात्र अहम तत्व तौर पर न केवल स्वीकार कर लिया था बल्कि वह इसे जीने भी लगी थी| आधुनिकता के इस दौर में अक्सर कहा जाता है कि अनपढ़ों से ज्यादा पढ़े-लिखों को समझाना मुश्किल है पर कोशिश करने में कोई हर्ज़ नहीं है| पर उन्हें समझाने से साथ-साथ खुद को भी समझना होगा कि शादीजैसी समाजिक संस्था कभी हमारी मज़बूरी न बने|
लड़कियों, जी भरकर जियो ज़िन्दगी
बदलते समय के साथ अब शादी के मायने भी बदल रहे हैं| ये दौर अपने सपनों को उड़ान देने का है| ऐसे में शादी के नामपर खुद के सपनों को कुर्बान कर देना कहीं से भी आपको पतिव्रता नहीं बनाएगा, इस बात को अब समझना होगा| लड़कियों जमाने के लिए आप कितनी भी कुर्बान हो जाए, उँगलियाँ हमेशा आपके खिलाफ़ ही उठती रहेंगी| यह न केवल हमारा इतिहास रहा है, बल्कि यह हमारा वर्तमान भी है| इस बात को हमेशा याद रखें कि ये समाज कद्रदान हमेशा उसी शख्स का होता है जो खुद की कद्र करता है| न कि उसका जो दूसरों के लिए खुद को कुर्बान कर देता है| इसी संदेश के साथ आप पहले अपने व्यक्तित्व और सपनों की कद्र करें| और शादी को तभी स्वीकार करें जब ये आपकी मर्जी हो, न कि ज़िन्दगी के एकमात्र लक्ष्य के तौर पर (जैसा हमें बचपन से सिखाया जाता है)|

 (फेमिनिज्म इन इंडिया में प्रकाशित लेख)
https://feminisminindia.com/2017/03/27/marriage-choice-women-hindi/

शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

हिंदी साहित्य को जीवंत दिशा देने में सार्थक भावना शर्मा के ‘अतुल्य रिश्ते’


बचपन से हम सभी अपनी दादी-नानी से ढ़ेरों किस्से-कहानी सुनकर बड़े हुए है| वे कहानियां ही थी, जिन्होंने हमें कभी रात में चंदा मामा से मिलवाया तो कभी परियों के देश की सैर करवायी| अगर बात की जाए कहानी के इतिहास की तो हम यह कह सकते हैं कि शब्दों के साथ कहानियों के रचने का किस्सा शुरू हुआ| जैसे-जैसे शब्द रचते गए कहानियां बनती गयी|

प्रतिस्पर्धा के दौर में कोई भी क्षेत्र प्रतिस्पर्धा से अछूता नहीं रहा| फिर चाहे वो साहित्य जगत ही क्यूँ न हो| दिन दोगुनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ती प्रतिस्पर्धा के दायरे भी अब निरंतर बड़े होते जा रहे है| बात की जाए हिंदी साहित्य की तो प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा जैसे प्रसिद्ध-प्रतिष्ठित लेखकों के दौर में रचना का निर्माण उसके सामाजिक सरोकार व देशकाल के आधार पर किया जाता था| लेकिन वर्तमान समय में रचना के निर्माण का आधार सीधे तौर पर उसके बाज़ार से जुड़ा है| आज ज्यादा पढ़े जाने वाले या यों कहें कि ज्यादा बिके जाने वाले लेखक सफल माने जाते है| रचनायें अब पाठक की रूचि और बाज़ार के अनुरूप गढ़ी जाने लगी है, न कि सामाजिक सरोकारों और देशकाल के अनुरूप| शायद यही वजह है कि बेहतरीन हिंदी-साहित्य के लिए आज भी हम प्रेमचंद व जयशंकर प्रसाद के दौर को याद करते है| क्योंकि वे रचनायें हमें जिंदगी जीने का ढंग सिखाती थी, समाज से रु-ब-रु करवाती थी और जीवन के तमाम रंगों को  हमारे देशकाल के अनुरूप ढालकर प्रस्तुत की जाती थी|

आजकल हर दूसरा इंसान कहता है कि लोगों में अब वैसी एकता और मेलजोल का भाव नहीं|’, ‘दुनिया अब स्वार्थी हो चुकी है|’, ‘कोई किसी का सगा नहीं ही|’.......! वाकई वर्तमान समय में यह बातें सच होती हुई, एक बड़ी समस्या के तौर पर हमारे समाज में फ़ैल भी रही है| यदि हम इस समस्या के कारण तलाशने की कोशिश करें तो हम यह पाते है कि बात चाहे टीवी जगत की हो या साहित्य-जगत की, हर जगह पश्चिमी-संस्कृति का प्रभाव तेज़ी से अपने पैर पसार रहा है, जिसमें व्यक्तिवादिता को ज्यादा महत्वपूर्ण ढंग से दर्शाया जा रहा है| पर व्यक्तिवादिता कभी-भी भारतीय संस्कृति का मूल नहीं रही है| कहते हैं कि मीडिया (जिसमें टीवी जगत और साहित्य जगत दोनों सम्मिलित है) समाज का आईना होती है और कई बार यह समाज को आईना दिखाने का भी काम करती है| इससे साफ़ है कि हम जैसा देखेंगे, जैसा पढ़ेंगे वैसा व्यवहार करेंगे| भौगोलिकरण के दौर में संस्कृति के आदान-प्रदान का ऐसा अँधा दौर चल पड़ा है जहां बिना देशकाल-वातावरण की पड़ताल किये हम सभी उस संस्कृति को आत्मसात करते जा रहे है, जो सीधे तौर पर हमारे विचार, व्यवहार और जीवनशैली को प्रभावित कर रही है

इस दौर में जब युवा रचनाकारों की पहली पसंद व्यक्ति केंद्रित कहानियां है, ऐसे में भावना शर्मा द्वारा रचित उनका पहला कहानी-संग्रह अतुल्य रिश्तेहिंदी-साहित्य में एक नई सुबह के सूरज की लालिमा के समान है, जिसके लिए लेखिका को साधुवाद  


अपनी-सी लगती है अतुल्य रिश्तेकी कहानियां

समाज की तमाम विसंगतियों, मानव-जीवन के रूप-रंगों और आधुनिकता की अंधी दौड़ में कुचलते रिश्तों के मर्म को लेखिका ने अपनी कहानियों में बखूबी उकेरा है| बात की जाए, कहानियों के देशकाल और वातावरण की तो लेखिका ने घर-परिवार, आस-पड़ोस के रंग में रंगीं जीवनशैली वाले पात्रों को चुना है, जिससे उनकी रचनायें पाठक को सहज व स्वाभाविक होने के साथ-साथ अपनी-सी लगती है|


लेखन में सधी हुई पकड़

लेखिका ने कहानियों का तानाबाना बेहद सरल व प्रवाहमयी भाषा में बुना है जो कहानियों को एक जीवंत रूप प्रदान करती है| युवा रचनाकारों की रचनाओं में भाषा को लेकर अक्सर यह समस्या देखी जा सकती है कि जब वे सामाजिक परिवेश में मनोभावों को अपनी रचनाओं में प्रस्तुत करने का प्रयास करते है तो ज़्यादातर उनकी भाषा क्लिष्ट होती जाती है, जिससे उनकी रचना में जीवंतता की जगह नीरसता लेने लगती है| लेकिन भावना जी ने अपनी कहानियों में सामाजिक परिवेश और मनोभावों को सरल भाषा में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है, जो कहीं-न-कहीं लेखन में उनकी सधी हुई पकड़ को दर्शाता है|


आकर्षक कहानी-शीर्षक

लेखन क्षेत्र की किसी भी रचना में उसका शीर्षक बेहद महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि शीर्षक ही पाठक को उस रचना की ओर आकर्षित करता है, जिससे वह उस रचना का पाठक बन पाता  है| कई बार सटीक शीर्षक के अभाव में अच्छी रचनाओं को भी वह सफलता नहीं मिल पाती जिसकी वे सही हकदार होती है| शीर्षक का रचना के लिए न्यायपूर्ण होना बेहद आवश्यक है| ऐसे में, 'अतुल्य रिश्ते' की लेखिका ने सभी कहानियों के शीर्षक भी सजगता के साथ ऐसे चुने है जो एकबार में न केवल पाठक का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं, बल्कि उनके मन में कहानी को लेकर कौतुहल भी उत्पन्न करते हैं|



‘कावेरी की पालकी’ के दो रंग  

कहानी संग्रह में कावेरी की पालकीदूसरों के घरों में काम करने वाली एक ऐसी स्वावलंबी युवती की कहानी है जो जीवन की तमाम कठिनाइयों को पार कर अपनी बेटी को उज्ज्वल भविष्य देने के लिए अपने परिवार और दुनिया से लड़ने को तैयार हो जाती है और अपने जीवन के अंत तक वो अपनी बेटी के बेहतर भविष्य के लिए प्रयासरत रहती है| वहीं दूसरी ओर, कावेरी के गुजर जाने के बाद उसके मालिक-मालिकिन उसकी बेटी के लालन-पालन का जिम्मा खुद लेते है| यह कहानी जहां एक ओर पितृसत्तात्मक समाज में एक महिला और बेटी के रूप में जन्मी स्त्री की तमाम कठिनाइयों को उजागर करती है| वहीं दूसरी ओर, कहानी में मालिक-नौकर से इतर इंसानियत के रिश्ते को दर्शाया गया है, जहां कावेरी के मालिक-मालिकिन बिना किसी भेदभाव के उसकी बेटी को अपनी बेटी की तरह स्वीकार करते हैं|


उपभोगतावादी संस्कृति को बेपर्दा करती स्वार्थ की दुनिया

ऐसे ही लेखिका की एक अन्य कहानी स्वार्थ की दुनियाउपभोगतावादी चकाचौंध में फंसते एक ऐसे इंसान की कहानी है, जो बाजारवाद और आधुनिकता की दौड़ में भागते हुए अपने परिवार, अपने माता-पिता को भूलता चला जाता है| वहीं दूसरी ओर, कहानी में चकाचौंध की गहरी शाम का रंग भी लेखिका ने संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया है, जब स्वार्थी दुनिया उस इंसान से अपना स्वार्थ निकालने के बाद किनारा कर लेती है| लेकिन उसके परिवार वाले तब भी उसके साथ होते है| इस कहानी के ज़रिए लेखिका ने स्वार्थ और निस्वार्थ के रिश्तों के बीच के फ़र्क को सटीकता से पाठक तक पहुंचाने का प्रयास किया है, जिसमें में वह काफी हद तक सफल भी हुई है


अनकहा दर्दइस कहानी-संग्रह की मर्मस्पर्शी कहानी है| लेखिका ने कहानी के मुख्य पात्र नट्टू के ज़रिए जहां एक ओर, माता-पिता और अपनी बहन के प्रति उसके कर्तव्यपरायणता को दर्शाया है| वहीं दूसरी ओर, अपने कलेजे के टुकड़े को खो देने के बाद माता-पिता और बहन की तड़प को करीने से अभिव्यक्त किया है|

इसी क्रम में कहानी गर्भ की आवाज़और मुंबई लोकल ट्रेनजैसी सभी कहानियां समाज की कुरीतियों और जीवन के मर्म को प्रस्तुत करती है| कहानी-संग्रह की सभी कहानियां संभावनाशील कथाकार की कोपलें खोलती कहानियां है| हिंदी-साहित्य के मौजूदा दौर में ऐसी रचनायें साहित्य को नई, जीवंत और सार्थक दिशा देने के लिए बेहद आवश्यक है, जिसके लिए भावना शर्मा जैसी युवा-कथाकार का साहित्य जगत में आगमन एक शुभसंकेत भी है        


स्वाती सिंह