मंगलवार, 25 नवंबर 2014

दस्यु सुंदरियों की राजनीतिक चुप्पी

उत्तर-प्रदेश में चम्बल नदी के किनारे बसा 'बीहड़ का जंगल' अपने खूंखार जानवरों और खतरनाक डाकुओं के लिए जाना जाता है। सालों से चम्बल नदी के किनारे बसे बीहड़ के इस जंगल ने ना केवल खतरनाक डाकुओं के गिरोहों को पनाह दी, बल्कि इन गिरोहों की वहशी अत्याचारों से मजबूरन बनती 'दस्यु सुंदरी'  के इतिहास का साक्षी भी बना।
 

       
दस्यु सुंदरी की कहानी शुरू होती है - उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव 'गुरु के पुरवा' में रहने वाली 'फूलन देवी' के साथ। फूलन को साल 1979 में बीहड़ के कुछ  डाकुओं ने अगवा कर लिया था। यूँ तो फूलन देवी को भी एक खतरनाक डाकू के रूप में जाना जाता है, लेकिन ऐसा नहीं है कि फूलन को यह पहचान उन्हें विरासत में मिली| उनके साथ, समाज तथाकथित उच्च-वर्ग के लोगों और कई डाकुओं ने सामूहिक बलात्कार किया। इतना ही नहीं, उन्हें गाँव में सरेआम निर्वस्त्र भी किया गया। माना जाता है कि फूलन के साथ ऐसा इसलिए किया गया क्यूंकि उसका जन्म नीची-जाति में हुआ था और उसे समाज के तथाकथित ऊची जातियों का अत्याचार गवारा नहीं था, जिसके खिलाफ फूलन ने आवाज उठाई। एक नीची-जाति की औरत की यह जुर्रत उन्हें तनिक भी रास नहीं आयी और उन्होंने फूलन की अस्मिता को तार-तार कर उन्हें खत्म करने की नाकाम कोशिश की। पर दुर्भाग्यवश वे समाज की बनाई लड़की को मारने में तो सफल रहे पर नारी-शक्ति को न मार सके| आख़िरकार उन्हें एक साधारण लड़की ‘फूलन’ से बनी 'दस्यु सुंदरी' के हाथों ढेर होना पड़ा। फूलन ने इसके बाद, पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। सजा खत्म होने के बाद फूलन ने अपनी जैसी तमाम लड़कियों की मदद करने के लिए राजनीति में कदम रखा।

दस्यु सुंदरी बनने का सिलसिला यहीं नहीं थमा।





साल 1983 में बीहड़ के डाकुओं ने,  उत्तर प्रदेश के औराई जिले की सीमा परिहार का अपहरण किया।  सीमा परिहार पर भी डाकुओं ने अत्याचार किया। जिसके बाद, सीमा परिहार भी फूलन देवी की तरह एक खतरनाक डाकू के रूप में जानी जाने लगी। सीमा परिहार ने भी पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया। सीमा ने समाज-सेवा करने के लिए साल 2007 में उत्तर-प्रदेश के भदोही जिले से लोकसभा का चुनाव भी लड़ा। लेकिन सीमा को राजनीति के दावपेंच रास नहीं आए और उन्होंने राजनीति से दूरी बना ली। सीमा परिहार ने महिलाओं के ऊपर हो रहे अत्याचारों को रोकने के लिए 'ग्रीन गैंग' बनाया।



फूलन देवी और सीमा परिहार के बाद, हाल ही में रेणु यादव का नाम सामने आया है। जो बीहड़ की बनाई हुई एक और दस्यु सुंदरी है। औरैया के जमालीपुर की रेणु का अपहरण साल 2003 में बीहड़ के कुछ डाकुओं ने किया था। रेणु ने भी पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया। खबरें है कि रेणु जल्द ही राजनीति में कदम रखने वाली है ।                    
 

दस्यु-सुन्दरियों का एक किस्सा गौरतलब है

'दस्यु सुंदरियों' की ये कहानी हर बार यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि जो उत्तर-प्रदेश देश का सर्वाधिक जनसंख्या वाला राज्य है और जिसे उत्तर से उत्तम प्रदेश बनाने का सपना लिए हर बार सरकार बागडोर थामती है और कई क्षेत्रों में इसे साबित भी करने की कोशिश करती है। ऐसे में, फिर राज्य में लगातार बढ़ती आतंक की ऐसी घटनाएँ जहाँ एक तरफ मानवता को शर्मसार करती है, वहीँ दूसरी तरफ, हमारे देश की राजनीति के एक ऐसे पहलु को सामने रखती है, जो अप्रत्यक्ष ढंग से वास्तविक राजनीति है। जहाँ वे इस आतंक को अपनी राजनीति के अहम मुद्दे के साथ अपना दाहिना हाथ भी बनाए रहते है। इन तीनों 'दस्यु सुंदरियों' में कई समानताएं गौरतलब है-

1-इन तीनों का ताल्लुक उत्तर प्रदेश के पिछड़े जिलों से रहा है। 

2- इन सभी के 'दस्यु सुंदरी' बनने की दास्तां का गवाह बीहड़ के जंगल साक्षी बने।

3-सभी ने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया और सबसे अहम - इन तीनों दस्यु सुंदरी को समाजवादी पार्टी नें ही टिकट देकर राजनीति में उतारा।

यहां विचारणीय है कि फूलन देवी से लेकर रेणु यादव तक ने सरकार के सामने अपनी दस्यु-सुंदरी बनने की दास्तां सामने रखी। अब सवाल यह है कि इसके बावजूद,

1-      आखिर क्यों आजतक बीहड़ के खौफनाक सन्नाटे का आतंक अभी तक जीवंत है?  

2-      क्यों आजतक बीहड़ की चुप्पी पर सरकार ने अपनी चुप्पी नहीं तोड़ी?

3-      क्या कभी इन दस्यु सुन्दरियों ने उस बीहड़ में सुधार करने का नहीं सोचा?

4-      क्या औरों की तरह सत्ता में आने पर वे ब्राह्मणवादी सोच का शिकार हो गई या उनका शिकार जानबूझ कर किया गया, जिससे वे इस राजनीति के इस आतंक के कंधे को न काट दें?

5-      क्यों बीहड़ के सन्नाटों में अपनी ललकार से पहचानी जाने वाली ये दस्यु सुंदरियाँ राजनीति की देहलीज़ पर कदम रखते ही सन्नाटे के अंधेरों में गुम हो जाती है?         

         
   सवाल कई हैं लेकिन इनका जवाब ना तो हमारे देश की राजनीति दे पाती है और ना ही बीहड़ के वो सन्नाटे। पर इन दोनों के सन्नाटों के बीच जब हर बार एक 'दस्यु सुंदरी' बनकर हमारे सामने आती है तो ये सन्नाटे भी चीख-चीख कर यह सवाल करने लगते हैं मौजूदा व्यवस्था के उन जिम्मेदार लोगों से जो कानून को तथाकथित रसूख़दार माननीयों के सुविधानुसार अनुसार विवेचित करते हैं। जिन्हें नारी का उनके बराबर खड़े होना गवारा नहीं है| जो अपने अहम् और यौन कुंठा की तुष्टि के लिए बार-बार दस्यु सुन्दरी बनने के लिए किसी गरीब की बेटी को बाध्य करते हैं।

आज ज़रूरत है इस सोच को बदलने के लिए एक सकारात्मक-सार्थक व वैकल्पिक व्यवस्था में विश्वास सृजित व जागृत करने की| जहाँ बीहड़ के लोगों को सुरक्षा के साथ विकास के समान अवसर उपलब्ध हों। ज़रूरी है कि बीहड़ों के सन्नाटे मासूम बच्चियों की चीख़ नहीं बल्कि खिलखिलाहट के साथ गुन्जायमान हो।

हमें समझना होगा कि दस्यु सुन्दरियाँ सिर्फ मसालेदार फ़िल्मों की पटकथा की पात्र  नहीं हैं| बल्कि वे ग़रीबी व बेचारगी के सलीब पर चढ़ी वे नायिकाएँ हैं जो समाज द्वारा कई बार यातना-प्रताड़ना की कीलें ठोके जाने से मरने के बाद प्रतिशोध की अग्नि से उत्पन्न बीहड़ों को विवश होकर गले लगाती हैं।

स्वाती सिंह 

मंगलवार, 4 नवंबर 2014

विशाल भारत की सिकुड़ती 'बदहाल सड़कें'

सड़क' परिवहन का एक ऐसा माध्यम होता है जिसपर पूरी सभ्यता,संस्कृति या यूँ कहे पुरे देश के विकास का दारोमदार होता है। ये सड़कें ही तो है, जो हमें किसी नई जगह तक पहुंचती है और वहां की संस्कृति से हमें रु-ब-रु कराती हैं। सड़कों पर दौड़ते साधनों से, जहाँ एक ओर हम वहां के विकास दर का पता लगाया जा सकता है तो वहीं दूसरी तरफ, इन सड़कों के किनारे बसे बाज़ार और गाँव-घर से लोगों के जीवन-स्तर व जीवन-शैली और पूरी अर्थव्यवस्था का पता लगाया जा सकता है।अब सोचिए अगर भारत जैसे विशाल देश की चार लाख सत्तर हज़ार किलोमीटर तक फ़ैली सड़कें देश के यानी एक वर्ग किलोमीटर पर 0.66 किलोमीटर तक सिकुड़ती सड़कें कैसे देश के हर कोने को छू पाएंगी? और इसका देश के विकास और संस्कृति पर क्या प्रभाव पड़ेगा? इसका अनुमान लगा पाना मुश्किल है।
         आज़ादी के लगभग साठ सालों के बाद भी क्या दुनिया का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश सच में लोकतान्त्रिक बन पाया? ये प्रश्न अब भी लोगों के प्रश्नों से घिरा है। आज़ादी के बाद से कृषि से लेकर संचार तक,शिक्षा से लेकर सामाजिक सुधार तक बहुत कई सफल काम किए गये। लेकिन अफ़सोस,सरकार की तरफ से इन सबके मूल आधार की संरचना के विकास पर कोई ख़ास कदम नहीं उठाए गये। आज भी हमारे देश में एक जगह से दूसरी जगह तक पहुचने का सड़क ही एकमात्र साधन उपलब्ध है। इसके अलावा लोकल ट्रेन व मेट्रो जैसी सुविधाएँ कुछ शहरों तक ही सिमटी है,जो सड़क जाम की समस्या को सुलझाने में कहीं भी सफल नहीं दिखाई पड़ रही। जिसका अंदाजा दिल्ली,कलकत्ता,चेन्नई जैसे मेट्रों सिटी में बढ़ती सड़क दुर्घटनाओं और जाम की समस्या से लगाया जा सकता है।
        भारत में सिकुड़ती इन बदहाल सड़कों की समस्या के कारणों पर अध्ययन करने पर पता चलता है कि यहाँ तीन चीज़ों सबसे ज्यादा अभाव है-शिक्षा,तकनीक और इन्हें लागू करने का अप्रभावशाली तरीका। भारत में हर साल थोक के भाव युवा इनजीनियर की भर्ती सड़क निर्माण विभाग में की जाती है तो वहीं दूसरी ओर सड़क टूटने,अतिक्रमण और फ्लाईओवर टूटने की घटनाएँ भी सामने आ रही है। भारत में स्मार्ट फ़ोन इस्तेमाल करने वालों और आधुनिक वाहनों का प्रयोग तो बहुत जमकर किया जाता है,लेकिन जब बात आती है सड़क-निर्माण की तो वही बरसों पुरानी गिट्टी-अलकतरा की तकनीक ही लागू की जाती है।कमी सिर्फ यहीं तक नहीं लोगों के व्यवहार और शिक्षा व तकनीक को लागू करने में भी है।
        भारत में अधिकांश लोग ऐसे है जिन्हें अपने रोटी,कपड़ा और मकान के अलावा हर चीज़ बेगानी नजर आती है,जिसका नतीज़ा ये होता है कि सड़क-परिवहन के किसी भी नियम से ये अपना कोई वास्ता नहीं रखते। नतीजन सड़क दुर्घटना की वारदातें बढ़ती जा रही है। इसलिए शिक्षा,तकनीक के साथ-साथ लोगों की सोच में परिवर्तन होने के बाद ही सिकुड़ती इन बदहाल सड़कों का विस्तार और देश का विकास संभव होगा।

स्वाती सिंह