बुधवार, 22 जून 2016

इस दुनिया में ‘सब बराबर’ !

इंटरनेट की इस दुनिया ने वो काम कर दिखाया है जिसे कई देशों की सरकारें व कानून तक नहीं कर पाए. यह अब ऐसी नई दुनिया बनकर उभरा है, जहां लिंग व जाति से परे ‘सब बराबर’ है और निरंतर विकास की दिशा में एकसाथ आगे बढ़ रहे है.  



सदियों से हम सभी जिस राष्ट्र के बाशिंदे रहे है, समय के बदलाव के साथ मनुष्यों ने उसमें अब अपना एक नया राष्ट्र बनाया है| यह एक ऐसा राष्ट्र है, जिसकी कोई सरहद नहीं और जिसे बने हुए अभी ज्यादा समय भी नहीं बीता है. लेकिन इसकी जनसंख्या अब एक अरब से भी ज्यादा हो चुकी है, जो इसे चीन और भारत के बाद तीसरे सबसे अधिक आबादी वाले देश का दर्जा प्रदान करती है. ऐसा अनुमान लगाया गया है कि इस संख्या तक पहुंचने में आधुनिक मानव को 200,000 वर्ष लगे है.



वर्तमान समय में इंटरनेट की इस दुनिया ने सूचना व ज्ञान के प्रसार में अहम भूमिका निभाई है. इंटरनेट की सकारात्मक भूमिका को आंकने के लिए किए गए सर्वेक्षणों में ये तथ्य सामने आये है कि इंटरनेट दुनिया में वीमेन एम्पोवेर्न्मेंट का एक सशक्त व अदृश्य माध्यम बनता जा रहा है. इसके माध्यम से जहां एक ओर महिलाओं के लिए आर्थिक संभावनाओं के द्वार खुले, वहीं दूसरी ओर इसने सोशल मीडिया के ज़रिए उन्हें अपने विचार अभिव्यक्त करने का एक मंच भी प्रदान किया है. हाल ही में हुए कुछ सर्वे बताते है कि इंटरनेट उपयोग करनेवाली महिलाओं में से आधी ने ऑनलाइन नौकरी के लिए अप्लाई किया और करीब एक तिहाई ने इन्टरनेट के माध्यम से अपनी आय में वृद्धि भी की है.

भारत में तीन साल पहले महिलाओं ने पैल्ली पूला जादा नामक ऑनलाइन स्टोर प्रारंभ किया था,  जिसमें अब करीब 200 से अधिक महिलाएं कार्यरत हैं. शोध बताते है कि जिन देशों में आय व शिक्षा के क्षेत्र में कम असमानता होती है वहां बाल मृत्यु दर कम और आर्थिक विकास की दर अधिक होती है. महिलाएं इंटरनेट से प्राप्त मंचों की सहायता से अपने व समाज से जुड़े तमाम मुद्दों पर अपनी बुलंद आवाज पूरी दुनिया को सुनाने में सक्षम है. कांगों डेमोक्रेटिक रिपब्लिक में महिलाओं ने अपने अनुभव शेयर करने के लिए इंटरनेट कैफे स्थापित किया और देश के युद्धग्रस्त क्षेत्रों के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका के विशेष दूत की नियुक्ति करवाने में सफल हुई. इसी तरह केन्या में महिलाओं ने लैंगिक भेदभाव और हिंसा का सामना करने के लिए इंटरनेट का सहारा लिया. उन्होंने पीड़ितों के समर्थन के लिए ग्रुप बनाया और लीगल चेंज की मांग की.

ब्राजील में महिलाओं ने ‘आई विल नॉट शट अप’ नामक एप बनाया जो महिलाओं पर होने वाले हमलों पर नज़र रखता है. बांग्लादेश में महिलाएं ‘माया’ नामक एप से लाभान्वित हो रही है. ये एप स्वास्थ्य से लेकर क़ानूनी मामलों तक हर प्रकार के सवालों का जवाब देता है इस से दूर दराज के क्षेत्रों की महिलाओं को एक्सपर्ट्स की सलाह मिल जाती है.

इंटरनेट की इस दुनिया ने वो काम कर दिखाया है जिसे कई देशों की सरकारें व कानून तक नहीं कर पाए. यह अब ऐसी नई दुनिया बनकर उभरा है, जहां लिंग व जाति से परे ‘सब बराबर’ है और निरंतर विकास की दिशा में एकसाथ आगे बढ़ रहे है.  

लेकिन दुर्भाग्यवश अपने अनेक लाभों के बावजूद इंटरनेट तक महिलाओं की पहुंच पुरुषों की तुलना में अधिक सीमित है. वैश्विक सत्र पर करीब चार अरब लोग इंटरनेट से वंचित है और उनमें अधिकांश महिलाएं है. विकासशील देशों में इंटरनेट से कनेक्टेड महिलाएं, पुरुषों से 25 फीसद कम है. इंटरनेट के क्षेत्र में यह जेंडर गैप वैश्विक विकास को बढ़ने में अहम भूमिका निभा रहा है. यानी जेंडर गैप स्वस्थ सुरक्षित और न्यायपूर्ण विश्व के निर्माण में बाधक है. हाल में ही संयुक्त राष्ट्र संघ ने साल 2020 तक सभी के लिए इंटरनेट  तक पहुंच सुनिश्चित करने का लक्ष्य रखा है. सरकारें गैर सरकारी संगठन व व्यावसायिक उपक्रम इस दिशा में अपना योगदान दे सकते हैं.

स्वाती सिंह 












मंगलवार, 14 जून 2016

घुसपैठों का घिनौना बाज़ार


आज के समय में नहाने के साबुन से लेकर मच्छर मारने के उपाय तक आप्शन ही आप्शन है और इन आप्शनों की बाढ़ से शिक्षा-क्षेत्र भी अछूता नहीं रहा है.


प्रोफेशनलिज्म के इस दौर में एकोनोमिकाली इन्डिपेंडेंट होना कितना ज़रूरी है, इस बात का अंदाज़ा नौकरियों के लिए बढ़ती कतार और बाज़ार में प्याज के बढ़ते दाम से लगाया जा सकता है. यूपी की माटी में जन्म लेने के बाद हर माता-पिता का एक परमानेंट सपना होता है, बच्चा बने - आई.ए.एस या पी.सी.एस.

वो कहते है न देशकाल-वातावरण के अनुसार चीज़ों की रंगत बदलती है, पर मूल कहीं-न-कहीं वही रहता है. इसी तर्ज पर आज से करीब आठ-दस साल पहले वकालत को एक ऐसी डिग्री माना जाता था, जिसके बाद एक नौकरी-पक्की का मन में विश्वास होता था कि कुछ न हुआ तो वकील तो बन ही जायेंगे. फिर क्या ‘हर-हर महादेव’ के साथ आई.ए.एस की तैयारी का बोल-बम शुरू कर देते है.
पर आज के समय में नहाने के साबुन से लेकर मच्छर मारने के उपाय तक आप्शन ही आप्शन है और इन आप्शनों की बाढ़ से शिक्षा-क्षेत्र भी अछूता नहीं रहा है. उन्हीं में से एक आप्शन है – मॉस कम्युनिकेशन. कुछ नहीं तो पत्रकार बनना तय है.

शायद यूपी में बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी में जन्म लेने वाली स्नेहा की जिंदगी भी इसी परंपरा को निभा रही थी. अफ़सर पिता की एकलौती बेटी ने अपने जीवन में कई संघर्ष झेले थे. आप हैरान होंगे कि भला अफ़सर की बेटी का कैसा संघर्ष? तो जनाब यहां उस मानसिक संघर्ष की बात हो रही है, जिसे इज्ज़त के नाम पर बनी बड़ी कोठियों की मल्लिकाएं हमेशा से झेलती आई है. पढ़ाई-लिखाई में अच्छी, स्नेहा 21वीं की वो लड़की थी जिसे हार मानना बिल्कुल भी पसंद नहीं था. नतीजतन दुनिया के तमाम आडम्बरों से परे उसने अपनी पढाई को सर्वोपरि रखा. उसका मानना था कि शिक्षा एक ऐसी सारथी है जो हमेशा साथ रहती है.

बीएचयू से बी.ए. आनर्स की पढाई के बाद उसने मॉस कम्युनिकेशन में दाखिला लिया. वो पढ़ने-लिखने की रूचि को एक सही दिशा देना चाहती थी और सिविल की तैयारी से पहले जॉब-सिक्योरिटी भी ज़रूरी थी. जैसा कि आजकल के प्रोफेशनल कोर्स में इंटर्नशिप का दौर चल रहा है, ये कोर्स भी इससे अछूता नहीं था. 

स्नेहा ने अपनी इंटर्नशिप के लिए हिंदी के एक जाने-माने अखबार को चुना. पर आज के समय में, अस्पताल में डॉक्टर से इलाज हो या फिर बिन पैसे वाली इंटर्नशिप बिना सोर्स के कुछ नहीं होता. स्नेहा के परिवार का तो दूर-दूर तक मीडिया के कोई नाता नहीं था. मास कम्युनिकेशन की स्टूडेंट होने के नाते स्नेहां सोशल मीडिया का इस्तेमाल करना बखूबी जानती थी. उसकी फेसबुक पोस्ट हमेशा उसके साफ़ और तार्किक दृष्टिकोण का परिचय देते थे, जिसके चलते उसकी फ्रेंड-लिस्ट में उसी मन-मिजाज़ के लोग रहते. उन्हीं में से एक – फिल्म निर्माता आदेश दास भी थे. स्नेहा से इनकी मुलाक़ात एक सेमीनार में हुई थी.

आदेश दास ने स्नेहा को उस नामी अखबार में इंटर्नशिप करवाने में मदद की और वो अपनी इंटर्नशिप के लिए दिल्ली पहुंची. पहली बार वो अपने घर से इतनी दूर थी. वो भी दो महीने के लंबे समय के लिए. नोएडा सिटी सेंटर के पास उसका पीजी था. महंगी फीस के साथ बिना रूममेट का कमरा और खाने की बेकार व्यवस्था ये सब स्नेहा के लिए किसी चुनौती से कम नहीं  था. मीडिया जगत में परफेक्शन के बिना कुछ नहीं हो सकता. और परफेक्शन के लिए ज़रूरी है मजबूत बेस. वो इस बात से अच्छी तरह वाकिफ़ थी. तभी तो उसने इंटर्नशिप के लिए दिल्ली के जानेमाने हिंदी अखबार को चुना.
( दो महीने बाद )


स्नेहा की इंटर्नशिप खत्म होने वाली थी उसके दो दिन पहले रात करीब 12 बजे के आसपास आदेश ने उसे मेसेज किया.

कैसी हो?.........इंटर्नशिप कैसी रही?

( मेसेज देखते ही वो सहम गयी. इतनी रात में आदेश सर का मेसेज.......वो तो हमेशा सुबह या फिर शाम के वक़्त मेसेज करके हाल-चाल लेते थे. लेकिन आज इतनी रात को? )

‘हम अच्छे है सर. और इंटर्नशिप भी अच्छी रही. बस दो दिन और बाकी है इंटर्नशिप में’. - अनचाहे मन से उसने उसने रिप्लाई किया.


तभी आदेश ने तुरंत दूसरा मेसेज किया.

क्या आप मुझसे सेक्स की बातें करना पसन्द करेंगी?

मेसेज देखने के बाद स्नेहा को अपनी आँखों पर यकीन पाना मुश्किल था. वो विश्वास नहीं कर पा रही थी ये वही इंसान है, जिसने मेरी इतनी मदद की....जिसे मैं सर कहती थी और जिसने हमेशा मुझे एक अच्छे मार्गदर्शक की तरह मीडिया जगत से जुड़ी नसीहतें दी थी...अचानक इस तरह का मेसेज....वो बिलकुल डर गयी....लेकिन खुद को सम्भालते हुए-
माफ़ करियेगा सर ........!

उसने रिप्लाई किया. उसे उम्मीद थी कि शायद उसके इस जवाब के बाद अब कोई मेसेज नहीं आयेगा. लेकिन इंसान की वहशी सोच उसके दिमाग पर चढ़ती जा रही थी. और उम्मीद से परे आदेश ने तपाक से मेसेज किया -


मैं सिर्फ बात करने के लिए के बोल रहा हूँ.


स्नेहा ने इस बार सख्ती से जवाब देते हुए लिखा

....मेरी ना का मतलब ना है सर! माफ़ करिये!

ये कहकर उसने आदेश का नंबर ब्लाक लिस्ट में एड किया.

आज उसने प्रोफेशनलिज्म के उस घिनौने बाज़ार को देखा जहां विश्वास और मर्यादा से परे हर चीज़ की कीमत अदा करनी होती है'.


स्वाती सिंह 

बुधवार, 8 जून 2016

कितना निस्वार्थ था वो ‘अग्नि-युवा’...!

मात्र उन्नीस साल की उम्र में देश के लिए फांसी पर झूलने वाले खुदीराम की कहानी मैं जितनी बार भी पढ़ती हूं, मेरे मन में बस एक ही ख्याल बार-बार आता है कि - ‘क्या इस अग्नि-युवा को हमारी तरह दोस्तों के साथ खेलने का मन नहीं करता होगा? या फिर उनकी आँखों ने कभी अपने पिता जैसे बनने का सपना नहीं संजोया होगा, जो इतनी छोटी-सी उम्र में उसने अपने जीवन को देश के नाम पर न्योछावर कर दिया.



 


जब मैं दसवीं क्लास में थी, तभी मैंने डिसाइड कर लिया था कि मुझे बड़े होकर अपने पापा की तरह डॉक्टर बनना है| इसमें कोई नयी बात भी नहीं है| आज के समय में तो बच्चे दसवीं-बारहवीं की परीक्षा पास करते ही अपने करियर की राह तय कर लेते है, कि उन्हें बड़े होकर क्या बनना है| लेकिन दुर्भाग्यवश ये युवा पीढ़ी राजनीति के क्षेत्र को छोड़कर करीब हर क्षेत्र में सफलता के परचम लहराने का ख्वाब देखती है| अपने इस फैसले में युवा अक्सर इस बात को नज़रअंदाज कर देते है कि उनके इन सभी ख्वाबों का लेखा-जोखा राजनीति ही निर्धारित करती है| जिस राजनीति को वे करियर नहीं मानते आज से सालों पहले इस राजनीति के मंच से ही अंग्रेजों के खिलाफ़ विजय का परचम लहराया गया| नतीजतन आज हम दासता से मुक्त अपने देश में खुद के लिए ख्वाब देख पा रहे है|

जिस उम्र में हम अपने दोस्तों के साथ खेलने या दुनिया को और अधिक जानने में जुटे होते है, उस उम्र के हमारे देश में कई ऐसे क्रांतिकारी भी हुए जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए अपनी जान तक दाँव पर लगा दी और हंसते हुए अपनी सरजमीं के नाम शहीद हो गए| क्योंकि जिस उम्र में हम टीवी पर कार्टून देखने या फिर प्ले स्टेशन पर गेम खेलने में अपना समय बिताते है, उस वक़्त वे समाज की समस्याओं को देखकर उनकी तह तक जाने में जुटे थे| इन्हीं क्रांतिकारियों में से एक है – खुदीराम बोस|

खुदीराम का नाम देश के इतिहास में एक स्वतंत्रता सेनानी मात्र तक सीमित नहीं है| बल्कि इनका नाम उस फेहरिस्त में शामिल है, जिन लोगों ने छोटी-सी उम्र में अपनी ज़िन्दगी देश के नाम कर दी थी| शायद यही वजह है कि इन्हें ‘अग्नि युवा’ भी कहा जाता है|

तीन दिसंबर, 1889 में बंगाल के मिदनापुर जिले में जन्मे खुदीराम ने बचपन में ही अपने माता-पिता को खो दिया था| उनकी बड़ी बहन ने उनका लालन-पालन किया| बंगाल विभाजन (साल 1905) के वक़्त खुदीराम ने स्वतंत्रता संग्राम में कदम रखा| अपने स्कूल के दिनों से ही खुदीराम राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे थे| कक्षा नौ के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और सत्येन बोस के नेतृत्व में अपने क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत की| शुरुआती दिनों में, उन्होंने रिवोल्यूश्नरी पार्टी के सदस्य बनकर वन्देमातरम की पंफलेट बटवाने में अहम भूमिका निभाई| साल 1906 में सोनार बंगला नाम के इश्तिहार बांटते वक़्त पुलिस ने उन्हें दबोच लिया| पर खुदीराम उनकी गिरफ्त से भाग निकले| इसके बाद एक बार फिर पुलिस ने उन्हें दबोचा, लेकिन कम उम्र होने के कारण उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया गया|

युगांतर क्रांतिकारी दल के नेता वीरेंद्र कुमार घोष ने ये घोषणा की कि कलकत्ता का किंग्सफोर्ड चीफ प्रेंसीडेसी मजिस्ट्रेट मुजफ्फरपुर (बिहार) में मारा जायेगा| इस काम के लिए खुदीराम और प्रपुल्ल चाकी को चुना गया| ये उन दोनों के लिए किसी बड़े ख़ुशी के मौके से कम नहीं था| उनलोगों ने इस मिशन पर अपना काम शुरू कर दिया था| मुज्जफरपुर जाकर आठ दिन तक वे लोग एक धर्मशाला में रहकर किंग्सफोर्ड पर नज़र रखते रहे| अब अपने प्लान को मुकाम तक पहुँचाने का समय आ चुका था| तीस अप्रैल, 1908 की शाम किंग्सफोर्ड और उनकी पत्नी पास के क्लब में पहुंचे| उसी समय मिसेज कैनेडी भी अपनी बेटी के साथ पहुंची| उनकी और किंग्सफोर्ड की बग्घी का रंग एक ही था| खुदीराम और उनके साथियों ने गलती से कैनेडी की बग्घी को किंग्सफोर्ड की बग्घी समझकर बम फेंक दिया और वहां से भाग निकले|

पुलिस ने खुदीराम को पूसा रोड रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया| खुद को घिरा देखकर प्रपुल्ल ने खुद को वहीं गोली मार ली| लेकिन खुदीराम ने ऐसा नहीं किया| उन्हें जेल में डाल दिया गया और उनपर हत्या का मुकदमा चलाए जाने लगा| अदालत में बिना किसी के डर के उन्होंने अपना गुनाह कबूल किया| उनपर केवल पांच दिन (8 जून, 1908 से लेकर 13 जून) तक मुकदमा चलाया गया और फिर उन्हें फांसी की सजा सुना दी गयी| 11 अगस्त, 1908 को उन्हें फांसी दे दी गयी|

खुदीराम को संगठित क्रांतिकारी आन्दोलन का पहला शहीद माना जाता है| अपनी शहादत के बाद वे इतने लोकप्रिय हुए कि बंगाल के जुलाहे उनके नाम की एक खास किस्म की धोती बुनने लगे थे|


मात्र उन्नीस साल की उम्र में देश के लिए फांसी पर झूल जाने वाले खुदीराम की कहानी मैं जितनी बार भी पढ़ती हूं, मेरे मन में बस एक ही ख्याल बार-बार आता है कि - ‘क्या इस अग्नि-युवा को हमारी तरह दोस्तों के साथ खेलने का मन नहीं करता होगा? या फिर उनकी आँखों ने कभी अपने पिता जैसे बनने का सपना नहीं संजोया होगा, जो इतनी छोटी-सी उम्र में उसने अपने जीवन को देश के नाम पर न्योछावर कर दिया. आज के समय में जहां हम अपने बिना किसी के स्वार्थ के कोई काम नहीं करते| ऐसे में इस युवा का देश के नाम पर अपनी जान न्योछावर कर देना, हमेशा हमें अपने स्वार्थो से ऊपर उठकर जिंदगी जीने की प्रेरणा देता है|    

शुक्रवार, 3 जून 2016

एक चना ‘आज़ादी’......!

पेशेवर क्रांतिकारी आपको आये दिन अपने स्वार्थानुसार मुद्दे के आगे ‘आज़ादी’ जोड़कर नारे लगाते मिलेंगे. इन नारों के साथ होता है खुद के बनाये इनके संगठनों का नाम, जो इन नारों के प्रायोजक होते है. जिसे देखकर आज़ादी एक ऐसे चने की तरह लगने लगती है, जिसे ये सभी अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए भुना रहे है.
 



भारत में आज़ादी का इतिहास सदियों पुराना है. रजवाड़ों के समय से ही हर सल्लतनत दूसरी सल्लतनत से आज़ादी के लिए युद्ध करती रही है. जैसे-जैसे समय बदला; लोग बदले, समाज बदला और युद्ध का तरीका बदला. पर इन सबमें एक चीज़ कायम रही - वो है आज़ादी की मांग. यूँ तो भारत में साल 1947 के बाद से अब तक आज़ादी के लिए खून की नदियाँ बहती नहीं दिखाई पड़ती. लेकिन हां जाने-अनजाने में शहादत का दौर आज भी जारी है. ऑनर किलिंग या फिर पितृसत्तामक सोच के खिलाफ़ लड़ते हुए बलात्कार, एसिड अटैक और दहेज हत्या जैसे तमाम कई रूप में.  

भारत की सरजमीं ने आज़ादी के नाम पर सदियों से संघर्ष देखे हैं. शायद ही समाज का कोई ऐसा वर्ग बचा होगा जिसने अपने स्वार्थ के आगे ‘आज़ादी’ को जोड़कर हुंकार न भरी हो. इसमें वे कई बार सफल भी हुए. लेकिन इस मांग की पूर्ति के बाद भी उनकी सूरत में किसी ख़ास सुधार की झलक दिखाई नहीं पड़ती है. अगर ‘आज़ादी’ के नाम पर हुए संघर्षों के इतिहास का अध्ययन किया जाये तो हमें मालूम होगा कि आखिर क्यों आज़ादी के बाद भी समाज अपनी सूरत नहीं सुधार पाया. जिसका जवाब है  – आज़ादी के बाद प्रभावी नीति का अभाव.

हाल ही में, देश एक बार फिर इसी आज़ादी की मांग पर उमड़ते बादलों की साक्षी बना - जेएनयू मामले के जरिए. इसके साथ ही, आये दिन हम अखबारों और न्यूज़ चैनलों में आज़ादी के नाम पर जनता की गर्जन सुनते रहते है. नारे लगाये जाते है – ‘हमें चाहिए बेख़ौफ़ आज़ादी.....!’, ‘बोल की लब आज़ाद है तेरे....!’ और भी न जाने क्या-क्या. अब सवाल यहां आज़ादी के बाद की तस्वीर का है. जिसका पूरा श्रेय देश में जनसंख्या के साथ बढ़ती पेशेवर क्रांतिकारियों की तादाद को जाता है. ये पेशेवर आपको आये दिन अपने स्वार्थानुसार मुद्दे के आगे ‘आज़ादी’ जोड़कर नारे लगाते मिलेंगे. इन नारों के साथ होता है खुद के बनाये इनके संगठनों का नाम, जो इन नारों के प्रायोजक होते है. जिसे देखकर आज़ादी एक ऐसे चने की तरह लगने लगती है, जिसे ये सभी अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए भुना रहे है.

इन पेशेवर क्रांतिकारियों के लिए ‘विरोध’ सबसे सस्ता या यूँ कहें इनके फैशन में है. वर्तमान में जो भी स्थिति हो, बस उनका विरोध करो. लीजिये बन गए आप – ‘क्रांतिकारी’ ( ये परिभाषा भी आज के फैशन में है). 

अब इसमें फ़ैसला उनके समर्थकों को करना होगा कि वो जिन्हें अपना नेता मानकर उनके पीछे खड़े होते है और वक़्त पड़ने पर डंडे तक खाते है, तो क्या उनका समर्थन सही दिशा में है? या फिर वे पेशेवरों के प्रायोजकों की बिक्री बढ़ाने के साधन के तौर पर इस्तेमाल किये जा रहे है. जिनका उद्देश्य लाइम-लाइट में आना यूँ कहें दूसरों पर अपनी धाक जमाना है. पेशेवर क्रांतिकारी देश में बिचौलियों की तरह काम कर रहे है, अगर इनपर जल्द नकेल नहीं कसी गयी तो ‘आज़ादी’ और ‘परिवर्तन’ की परिभाषा इनके ऊंचे दामों पर बिकने मात्र तक सीमित रह जायेगी. इसके साथ ही, हमें खुद की ऐसी तार्किक सोच भी विकसित करनी होगी जहां हम अपनी आज़ादी और विकास के मानकों को निर्धारित कर सकें.  

स्वाती सिंह 

डर लगता है माई!


उस दिन सुबह कुछ अखबार और टीवी वाले मेरे घर आये थे. मैंने सुना - मेरी चाची उनसे तेज़ आवाज में कह रही थी कि ‘मैं प्रधानमन्त्री से सवाल करती हूं कि आप कहते हैं बेटी बचाओ, मगर किसलिए, उन्हें घर में बिठाने के लिए? या फिर लोगों से छेड़ने, बलात्कार और हत्या किए जाने के लिए’.




बस इतना ही सुना मैंने. मेरे पेट और होंठों में बहुत दर्द हो रहा था. उस दिन राहुल भईया ने मेरे होंठ को ब्लेड से काट दिया था. दर्द की वजह से मैं अब मुनिया के साथ खेल नहीं पाती. घर में सब मुझे किसी के साथ खेलने और मिलने से मना करते है. पापा ने स्कूल से मेरा नाम भी कटवा दिया. मैं पढ़ना चाहती थी. स्कूल में मैडम रोज मेरी कॉपी में गुड दिया करती थी. पर अब तो मैं बस घर में रहती हूं. मेरे घर भी अब कोई नहीं आता है. पता नहीं, सब मेरे साथ ऐसा क्यूँ कर रहे है.

उस दिन राहुल भईया ने मुझे चाउमीन खिलाया था और दस रूपये भी दिए थे. उसके बाद वो मुझे छूने लगे. मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा था. जब मैं चिल्लाई तो वो मुझे मारने लगे. उसके बाद मेरे साथ गंदी हरकत की. मेरे होंठ और गले को ब्लेड से काट दिया. मुझे बहुत डर लग रहा था और दर्द भी हो रहा था. जब मैं अस्पताल में थी तब माँ बता रही थी कि भईया ने मुझे कूड़े के डिब्बे में फेंका था और जब पापा ने मुझे देखा तो मेरे शरीर में बहुत खून लगा हुआ था. अब मुझे अपनी गुड़िया से भी खेलने का मन नहीं करता.

ये कहानी है- आठ साल की पिंकी की. जिसे उसने अपनी मासूम जुबां से बयां किया. क्यूंकि उसे लिखना नहीं आता. अगर स्कूल जाती तो शायद उसे इस साल अपनी अगली क्लास में मात्रा का प्रयोग करना आ जाता और फिर वो अपना नाम भी लिख पाती. लेकिन अफ़सोस, अब उसकी आँखों के पन्नों में, खौफ़ के अक्षर और दर्द की मात्राओं से लिखी वो घटना उसे नींद में डर से जगा देती है.



पिंकी के पिता मनोज, एक दिहाड़ी मजदूर है. लेकिन आजकल वो मजदूरी नहीं कर पाते क्यूंकि उनका पूरा दिन थाने के चक्कर काटने में बीत जाता है. अब तो पिंकी की दवाई और घर का खर्च उनके एक बिसवे ज़मीन को गिरवी रखने के बाद से चल रहा है. पुलिस उस राहुल को अभी तक हिरासत में नहीं ले पायी है, जिसने पिंकी के साथ उस दिन वो घिनौनी हरकत की. बताते है कि राहुल किसी बड़े नेता का रिश्तेदार है. वो रोज शराब पीने पिंकी के घर के पास आया करता था. इन सबके बावजूद, मनोज को अभी भी देश की कानून-व्यवस्था पर विश्वास है और इसी उम्मीद में उसने अभी तक हिम्मत नहीं हारी है.

पिंकी के पिता और माँ अब बस एक ही बात कहते हैं, एक समाज के बतौर हम असफल हो चुके हैं, ये समाज चरमरा गया है, सब खत्म हो गया है. यहां कोई भी अपनी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है.’

आज हमारे समाज में, पिंकी जैसी न जाने कितनी मासूम बच्चियों के बचपन को कुचलकर घिनौने खौफ़ में जीती एक जिंदा लाश में तब्दील कर दिया जाता है. दूसरों की बुरी नियत के चलते हम महिलाओं को घूंघट करने का फरमान, उनकी सुरक्षा की दुहाई देकर जारी कर देते है. लेकिन जब ये भेड़िये, उन नन्हें बच्चे को अपना शिकार बनाने लगे, जिन्हें लड़का और लड़की में फ़र्क तक मालूम नहीं तो ये संकेत है इस समस्या को देखने के नजरिये और इससे निबटने के तरीके को बदलने का.

मासूमों से बलात्कार की घटनाओं के बाद अक्सर हम अपनी आवाज़ तालिबानी न्याय पर बुलंद करते है. पर हम ये भूल जाते है कि इससे ये समस्या कभी हल नहीं होगी. क्यूंकि इसकी जड़ हमारे, आपके या यूँ कहें कि पूरे समाज की सोच से आती है. और इसकी पहल हमें अपने घर से करनी होगी. अपने बच्चों को किताबी शिक्षा के साथ अच्छा इंसान बनने की शिक्षा देकर. न की संस्कारी लड़की या बहादुर मर्द बनने की शिक्षा. वरना हमारे भविष्य के इन नन्हें दीपों की रोशनी खौफ़ की चादर में लिपटकर सिमट कर बुझ जायेगी. और इन बुझे दीपों का धुआं समाज को दमघोटू बना देगा.     


 स्वाती सिंह 

बुधवार, 1 जून 2016

ताकि नर्मदा बचे

नर्मदा बचाओ सत्याग्रह फिर से उफान पर है. राजघाट पर बैठे आंदोलनकारी बाँध से विस्थापित हुए लोगों और मछुआरों के हकों की मांग तेज़ कर रहे हैं.
स्वाती सिंह



पच्चीस अगस्त (2016) को राजघाट पर जीवन अधिकार सत्याग्रह के आयोजित भूमि-आवास-आजीविका महासम्मेलन में लोगों का हुजूम उमड़ता रहा. नर्मदा घाटी के सरदार सरोवर बाँध से बड़वानी और धार जिले के प्रभावित और विस्थापित लोगों ने विस्थापन के खिलाफ़ एकजुट होकर अपनी आवाज़ बुलंद की. महिलाएं भी इस सत्याग्रह में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहीं हैं. गौरतलब है कि बीते 12 अगस्त से नर्मदा नदी किनारे राजघाट पर नर्मदा बचाओ आन्दोलन में अनिश्चितकालीन सत्याग्रह चलाया जा रहा है. जिसमें आंदोलनकारियों ने यह ऐलान किया था कि अगर इस बार बिना पुर्नवास के डूब आती है तो आन्दोलन का समर्पित दल नर्मदा किनारे से नहीं हटेगा. इस जनांदोलन में मेधा पाटकर, डॉ सुनीलम, रामकृष्ण राजू और संदीप पाण्डेय जैसे सामाजिक कार्यों से जुड़ी नामचीन हस्तियाँ भी शामिल है.

नर्मदा बचाओ आन्दोलन की नेत्री मेधा पाटकर ने ऐलान किया कि सरदार सरोवर परियोजना से प्रभावित लोग उनके साथ हो रहे अन्याय को नहीं सहेंगे. चाहे उसके लिए शहादत भी देना पड जाए. उन्होंने बताया कि आज भी 244 गाँव और एक नगर सरदार सरोवर से प्रभावित है. जिसमें 2.5 लाख प्रभावित लोगों का पुनर्वास बाकी है. इसके साथ ही, सत्याग्रह में आवली, सेगवा, निसरपुर, अचोदा, अवल्दा और कट्नेरा गाँवोन के विस्थापित लोग धरने में मौजूद रहे. इन लोगों ने अपने-अपने गांवों के हालात के बारे में भी बताया. इस तरह विस्थापितों की मांग एक बार फिर गूंज उठी.
विस्थापन की मार झेल रहे लोगों का कहना था कि आज भी गाँव में लोग खेती, मजदूरी और मछली-बाज़ार पर जिन्दा हैं, हमारे स्कूल,मंदिर,मस्जिद और पेड़ सहित गाँव आबाद है, तब सरकार हमें शून्य कैसे घोषित कर सकती है? ऐसे में लोगों ने अपने अधिकारों के लिए पुरजोर आवाज़ उठायी. राजघाट पर धरने पर बैठे धनोरा,समदा,साला गांवों के लोग बड़वानी के कलेक्टर कार्यालय पहुंचे. लोगों ने जिलाधीश को चेतावनी दी कि बिना पुनर्वास उन्हें डूबना गैर-क़ानूनी होगा. नतीजतन जिलाधीश अजय सिंह गंगवाल को बाहर आकर विस्थापितों की शिकायत सुननी पड़ी, गंगवाल के ज्ञापन लेने के बाद यह भरोसा भी देना पड़ा कि वे जल्द ही धनोरा के मूल गाँव का दौरा करेंगे. गाँव की महिलाओं ने कहा कि पुनर्वास के संबंध में ग्राम सभाओं के प्रस्ताव वाले मलिकाना हक को शासन अनदेखा नहीं कर सकता.

किसान संघर्ष समिति के अध्यक्ष और मुलताई के पूर्व विधायक और जनांदोलन के राष्ट्रीय समवाय के राष्ट्रीय संयोजक डॉ सुनीलम को बताया कि सामान्य आने वाले दिनों में प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, राज्य मानव आयोग और संबंधित मंत्रालयों को लगातार पत्र लिखेंगे. इसके साथ ही साथ प्रभावित गांवों में पोस्ट-कार्ड अभियान भी चलाया जाएगा. हरसूद दिवस (28 सितंबर) को नर्मदा घटी के लोगों ने और अन्य संगठनों का एक संयुक्त कार्यक्रम भी किया जायेगा. जनांदोलन के अंतर्गत नवंबर में भू-अर्जन और झूठी विकास की अवधारणा के खिलाफ़ एक देशव्यापी ‘भू-अधिकार जन विकास यात्रा’ चलाई जाएगी.

नर्मदा किनारे के मछुआरों ने भी अपना मछली अधिकार सम्मेलन किया. इसमें बड़वानी तहसील के गांवों के मछुआरे मौजूद रहे. बरगी बाँध के जलाशय में 54 मछुआ सहकारिता समितियों के महासंघ के अध्यक्ष रह चुके मुन्ना बर्मन विशेष अतिथि रहे. उन्होंने कहा कि बरगी में भी हजारों की संख्या में मछुआरों के साथ किसान-मजदूरों ने भी एकजुट होकर संघर्ष किया, इसके बाद विस्थापितों का हक स्वीकार करके मछली पर उन्हें अधिकार देना शासन को मंजूर करना पड़ा. तवा में भी विस्थापित मछुआरों ने अपना हक लड़कर वापस ले लिया. उसी तरह सरदार सरोवर में भी लड़ाई के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. बर्मन ने यह भी सवाल किया कि मछुआरों के नाम से भी मध्य प्रदेश मत्स्य महासंघ, भोपाल में पिछले 15 सालों से अभी तक चुनाव नहीं हुए.


मेधा पाटकर ने ऐलान किया कि नर्मदा के दोनों किनारों हजारों मछुआरों को बिना मछली पर हक और सही पुनर्वास के विस्थापन थोपना गैर-क़ानूनी होगा. पाटकर ने यह भी कहा कि जिन मछुआरों का सरदार सरोवर में 40,000 हेक्टेयर पर अधिकार है, उन्हें मात्र 40 हज़ार रूपये का नगद अनुदान देकर सरकार नहीं भगा सकती. मीरा और कैलाश अवास्या ने भी मछुआ अमितियों पंजीकरण के सवाल और मुद्दे उठाये. वहां मौजूद सभी मछुआरों और केवट समाज के लोगों ने अपना संघर्ष तेज़ करने का संकल्प भी लिया. सम्मेलन के बाद सभी मछुआरे पंजीयन विभाग और मछली विभाग गये और अधिकारियों से अपने लंबित समितियों के बारे में सवाल-जवाब किये. इसके अलावा सत्याग्रहियों ने वेद के विस्थापितों को सही पुनर्वास के साथ गिरफ्तार किये गये.  

(राष्ट्रीय पत्रिका-'शुक्रवार' के अंक-17 में प्रकाशित लेख.)