शनिवार, 30 जुलाई 2016

कहानी : अनचाहा होता ‘एक रिश्ता’

उस दिन ऑफिस में मेरा वीकली ऑफ़ था| अब छुट्टी का हर दिन मेरे लिए बड़ा ही मनहूसियत भरा होता था| वही रोज की तरह अपने समय पर उठना, चाय पीना और चुपचाप दिनभर घर में अपना समय बिताने के लिए कभी इस काम तो कभी उस काम में खुद वो व्यस्त रखने की कोशिश करना और इन कोशिशों में दिन कैसे बीत जाता पता ही नहीं चलता था| पर जब मैं और प्रिया ‘हम’ हुआ करते थे तब ऐसा बिल्कुल नहीं था| हमारा पूरा दिन एकदूसरे से बातें करने, एकदूसरे के कामों में हाथ बटाने और प्यार की ढेर सारी बातें करने में बीतता था| लेकिन अब उस एहसास को गुजरे जमाना बीत चुका था| अब हमारी छत तो एक थी पर हम नहीं| घर में अब दो अलग इंसान थे - वो ‘प्रिया’ और मैं ‘रूद्र’| वक़्त तो अब भी बीत रहा था या यूँ कहें कि मैं वक़्त काट रहा था|

  
मैं रोज की तरह सुबह-सुबह अपनी बालकनी में चाय पीने बैठा ही था तभी व्हाट्सएप्प पर मेरे दोस्त आदेश का मेसेज आया - गुड मॉर्निंग के मेसेज के साथ उसने एक फोटो भी सेंड की थी| गुड मॉर्निंग का रिप्लाई करके मैं उसकी भेजी तस्वीर को डाउनलोड करने लगा|
‘ये आदेश भी न.......| ‘सब बाबा विश्वनाथ की कृपा है’ उसका फेवरेट डायलॉग था| पता नहीं ये कैसे मेरे मन की उलझन को समझ जाता है| अब देखो आज जब मैं अपने इस दिन को कैसे बिताऊँ ये सोचते-सोचते बीती यादों में डूबने लगा तभी इस मोह से मुक्त होने का आदेश देते हुए आदेश का मेसेज आ गया - यही तो है बाबा विश्वनाथ की कृपा’. - मैंने मन में सोचा|
लो, एक बार फिर खुद से बात करने में मैं उसे जवाब देने में लेट हो गया और आदेश का दूसरा मेसेज आ गया - कैसी लगी फ़ोटो?
बिना समय गवाये मैंने फोटो को ओपेने किया और देखा कि किसी दीवार की फ़ोटो थी, जिसमें एक चित्र बना हुआ था| नीचे था रेतीला एकदम गुमसुम-सा रेगिस्तान| जिस पर कुछ आदिवासी महिलाओं को सिर पर पानी की मटकी लेते दर्शाया गया था| एकदम सिम्पल और बेहद इफेक्टिव लग रहा था वो चित्र| पास में एक पेड़ चमकते सूरज की किरणों में अपनी हरियाली बिखेर रहा था| आँखों को सुकून देने वाला ये चित्र किसने बनाया? मैंने तुरंत आदेश को मेसेज करके पूछा|
आदेश - मैंने बनाया है और कौन बनाएगा?
मैं- अरे वाह! तुम्हारी इस क्रिएटिविटी ने तो एक बार फिर से मुझे इम्प्रेस कर दिया| बहुत बढ़िया|
आदेश  – थैंक यू| वैसे अभी भी काम जारी है|
मैं- ओह अच्छा| तब फिर तुम फ्री हो जाओ तब बात करते है|
आदेश - ठीक है| और चाय-नास्ता हो गया?
मैं- हाँ बस अभी चाय ही पी रहा हूं|
आदेश - ठीक है  फिर हम फ्री होकर मिलते है|
मैं- ठीक है .......बाय|
आदेश - बाय|

‘कितना क्रिएटिव हैं आदेश| उसके व्यक्तित्व के बहुरंग मुझे हमेशा आवाक कर देते है| मैं तो कभी क्रिएटिव रहा ही नहीं और न कभी सोचा कि कुछ ट्राई करूँ| हर रोज बस वही डेली रूटीन फॉलो करना, यही तो थी मेरी जिंदगी| हाँ एकबार ज़रूर.......कैंडल की सजावट......(और दिल में हल्के दर्द का एहसास)!’- मैं भी क्या सोचने लगा| तुरंत अपना म्यूजिक सिस्टम ऑन किया और भूले-बिसरे गीतों की दुनिया में खोने लगा| कानों में पहले गीत के शब्द सुनाई पड़े| 

                                               ‘तुम अगर साथ देने का वादा करो........|’ 

प्रिया ने कई दिन पहले मुझसे शिकायत की थी, तुम ऑफिस में दिनभर लिखने-पढ़ने का काम करते तो पर आजतक मेरे लिए कभी कुछ नहीं लिखा| कविता तो क्या कभी दो लाइनें भी नहीं कही मेरे वास्ते| पर कुछ दिनों बाद ही छोटी-सी नोंकझोंक के बाद से मेरे और प्रिया के बीच दूरी-सा एक बीज पनपने लगा था| मैं भी ऑफिस में अपनी बढ़ती व्यस्तता की वजह से उन दिनों उसकी नाराजगी पर ध्यान नहीं दे पाया| सोचा हमेशा की तरह वो खुद-ब-खुद समझ जायेगी और सब पहले जैसा हो जाएगा| तीन महीने बाद उसका जन्मदिन था| सोचा तब तक तो प्रिया का गुस्सा खत्म हो जायेगा नहीं तो मैं उसे मना ही लूँगा|
उसके बर्थडे के दिन हर साल की तरह जब मैं उसे सुबह उसके पसंदीदा लाल गुलाब देकर अपनी बाहों में भरके विश करने उसके करीब गया तो उसने मुझे खुद के पास से ऐसे झटक दिया जैसे कि मैं कोई अजनबी हूं| मैं समझ गया अभी तक प्रिया मुझसे नाराज है और उससे कुछ भी कहना मैंने ठीक नहीं समझा, क्योंकि जब वो गुस्से में होती तो किसी के कुछ भी बोलने पर उसका गुस्सा सातवें आसमान पर चला जाता| उस दिन नास्ता करने के बाद प्रिया तैयार हुई| गुलाबी साड़ी में बेहद सुंदर लग रही थी और उसने मेरे दिए हुए मोतियों का सेट भी पहना था जिसने मेरी प्रिया की सुन्दरता में चार चाँद लगा दिया था| माथे पर उसकी वो लाल बिंदी सिंदूरी सूरज की आभा बिखेर रही थी| दुनिया की सबसे सुंदर परी लग रही थी मेरी प्रिया उस दिन| लेकिन आज उसने मुझसे एक शब्द तक नहीं कहे और अपनी कार में बैठकर कहीं चली गयी| मैं समझ गया कि वो अपनी बचपन की सहेली नेहा से मिलने गयी होगी| बहुत-ही अच्छी बॉन्डिंग थी उनदोनों में| अब मैंने भी तय कर लिया था कि – आज का दिन मेरी प्रिया का सबसे यादगार दिन होगा|

मार्केट जाकर मैंने उसकी पसंदीदा शॉप से उसके फेवरेट वनिला फ्लेवर के केक का ऑर्डर दे दिया| घर में मेड को भी प्रिया की पसंद का डिनर तैयार करने को कह दिया और खुद अपने कमरे को प्रिया की पसंदीदा फ्रेगरेंस वाली कैंडल से सजाने में जुट गया| उसदिन इंटरनेट ने मेरा बहुत साथ दिया| पहली बार मुझे एहसास हुआ था कि इंटरनेट बड़े काम की चीज़ है| उस दिन की बेहतरीन सजावट का श्रेय भी इंटरनेट को ही जाता है| मेड खाना बनाते-बनाते बार-बार किचेन से झांकती और कहती – साहब! आप हमें बता दें, हम सजा देती है|
मैंने भी उससे साफ़-साफ़ कह दिया – ‘नहीं मैं कर लूँगा तुम खाने पर ध्यान दो| कोई भी गडबड नहीं होनी चाहिए’| इस सजावट अभियान में शाम कब हो गयी पता ही नहीं चला| सब काम छोड़कर मैं मार्केट केक लेने चला गया| वापस आते ही याद आया कि इन सबमें तो मैं प्रिया के लिए लाये हुए बर्थडे कार्ड पर उसके लिए वो कविता ही लिखना भूल गया जो उसके लिए मैंने सोची थी| फिर सोचा पहले डेकोरेशन को फाइनल टच दे दूं फिर लिखना शुरू करूंगा|
मन-ही-मन मैं सोचता रहा – ‘आज मेरा ये सरप्राइज देखकर प्रिया खुश हो जाएगी और उसका गुस्सा यूँ छूमन्तर हो जायेगा| फिर हमलोग एकसाथ डिनर करेंगे| डिनर से याद आया - अभी मुझे डिनर का भी मुआयना करना था, पता नहीं डिनर कम्पलीट हुआ भी या नहीं| जबतक खुद जाकर न देखो तब तक कोई काम परफेक्ट नहीं हो सकता’| सारी तैयारी करते-करते रात के दस बज चुके थे| लेकिन प्रिया अब तक घर वापस नहीं आई थी| कई बार मन हुआ कि उसे कॉल करूं, फिर लगा कि आज उसका दिन है और प्रिया के ही घर तो गयी होगी वो| ऐसे में कॉल करके उसे क्या डिस्टर्ब करूं|

तभी अचानक याद आया - अरे! कार्ड पर तो मैं कुछ लिखना ही भूल गया| तुरंत कार्ड लिया और हाथों में पेन पकड़ते ही मन में कविता के लिए सोचे शब्द कौंधने लगे........साथ ही हरिद्वार में शाम की आरती का वो पल याद आ गया जब मैं प्रिया की हथेली को अपनी हथेली में लिए ‘हम’ गंगा के पानी में दीप प्रवाहित कर रहे थे और कार्ड पर प्रिया के लिए कविता की पहली पंक्ति रच गयी –

गंगा की लहरों को
छूकर मैंने उस दिन
रच दिया था तुम्हारे ललाट
पर एक जल-बिंदु और
अनायास ही बोल पड़ा-
आज से मैं और तुम
हो गए हम|

तभी गाड़ी के हॉर्न की आवाज सुनाई दी| लगता है प्रिया आ गयी| लेखनी पर तुरंत विराम लगाते हुए बस कार्ड के कार्नर में जल्दबाजी में लिख दिया ‘योर लविंग हसबैंड’|

आज प्रिया का हाथ पकड़कर मैं उसे घर के अंदर लाऊंगा, जैसे शादी के बाद हमदोनों ने एकदूसरे का हाथ पकड़कर घर में प्रवेश किया था| – मैंने सोचा |जैसे ही मैं बाहर पहुंचा तो देखा कि नेहा  प्रिया को घर छोड़ने आई थी| मुझे देखकर उसने मुस्कुराते हुए ‘हेल्लो’ किया| तभी प्रिया ने बात काटते हुए कहा- ‘चल! कल मिलते है’| इस तरह मेरी प्रिया ने मुझे कभी भी नज़रअंदाज नहीं किया था| जैसे मैं था ही नहीं उस पल वहां| उसकी सहेली के जाने के बाद मैंने तुरंत प्रिया का हाथ थाम लिया|

‘हैप्पी बर्थडे डिअर! आज मेरी प्रिया दुनिया की सबसे सुंदर परी लग रही है| तुम्हें पता है आज तुम्हारा रूद्र अपनी सबसे प्यारी प्रिया के साथ उसके बर्थडे पर हमारी ज़िन्दगी का एक यादगार लम्हा जीना चाहता है’|

प्रिया ने कोई भी जवाब नहीं दिया| मेरे हाथ से अपना हाथ छुड़ाते हुए वो चुपचाप कमरे में जा कर सो गयी| ‘थक गयी होगी शायद’- मैंने सोचा| प्रिया के सिरहाने बैठकर मैंने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- ‘प्रिया! मुझे तुम्हें कुछ दिखाना चाहता हूं’| प्रिया की आँखें खुलते ही पास में रखे केक को उसके सामने रखा दिया| उस वक्त कमरे का हर कोना मेरी प्रिया की पसंदीदा कैंडल से रोशन था| प्रिया उठकर बैठ गयी| मैंने उसके सामने कार्ड आगे करते हुए कहा - हैप्पी बर्थडे प्रिया!

प्रिया ने झटके से कार्ड को छीना और तुरंत फाड़ दिया| फिर उठकर उसने कमरे की लाइट्स ऑन कर दी और चिल्लाते हुए कहा - क्या चाहते हो तुम? क्या साबित करना चाहते हो ये सब करके? पता नहीं किस मनहूस घड़ी में तुमसे मेरी शादी हुई| मैं अब इस रिश्ते को और नहीं ढो सकती| आज से मेरे और तुम्हारे बीच कोई रिश्ता नहीं है|

उसकी बातें मेरी कानों में तेज़ जलन-सी होती कब दिल के तेज़ दर्द में बदल गयी मुझे पता ही नहीं चला| मेरा दिमाग बिल्कुल सुन्न होने लगा था| खुद को संभालने में असमर्थ मेरे लब उससे कुछ न कह सके| बस चुपचाप मैं उसे सुनता रहा| प्रिया गुस्से में बाहर चली गयी और ड्राइंग रूम में जाकर सो गयी| मेरी पूरी रात कमरे की फर्श पर बैठे बीती| प्रिया और मेरे खुशनुमा पलों को याद करते उसकी बातों से सिसकियां लेते अपने रिश्ते को अपने आंसुओं में बटोरते बीती|

तभी अचानक एक आवाज कानों में पड़ी – साहब! चाय पी ली हो आपने, तो नास्ता लगा दूं? झटके से मेरी खुली आँखों की नींद टूटी और मैंने कहा – हां आता हूं|

स्वाती सिंह 
  




       

एक विद्रोह बिरसा

बिरसा मुंडा 19 वीं सदी के प्रमुख आदिवासी जननायक थे। उनके नेतृत्व में मुंडा आदिवासियों ने 19वीं सदी के अंतिम वर्षों में उलगुलान नामक एक बड़े आंदोलन को अंजाम दिया था। बिरसा ने अपना पूरा जीवन अपनी जन्मभूमि और आदिवासी समाज के उत्थान के नाम कर दिया और भारतीय इतिहास में मुंडा विद्रोह एक न भूलने वाला आंदोलन है। 


झारखंड के बोकारो जिले में था मेरे चाचा का घर। बचपन में अक्सर मैं मम्मी-पापा के साथ बोकारो जाया करती थी। पापा बताते थे कि बोकारो को स्टील सिटी के नाम से भी जाना जाता है। चाचा के घर से पहले एक जगह थी- नया मोड़। वहां एक आदमकद मूर्ति हमेशा मेरा ध्यान खींचती। यह मूर्ति एक ग्रामीण की लगती थी, जो धोती पहने, अपने सिर पर पगड़ी बांधे और हाथ में हथौड़े जैसा औजार लिए था। वह आगे की ओर बढ़ता हुआ दिखता। उसका एक पैर हवा में अगला कदम रखता हुआ और पिछला कदम ज़मीन को छोड़ कर आगे बढ़ता हुआ प्रतीत लगता।

वह मूर्ति देख कर ऐसा लगता जैसे चलते-फिरते गांव के किसी आदमी को सीमेंट लगा कर वहीं स्थिर कर दिया गया हो और सीमेंट के हटते ही वह आगे की ओर चल पड़ेगा। मैं जब पापा से पूछती कि यह कौन हैं, तो पापा कहते कि यह बिरसा मुंडा है। मैं सोचती कि यह बिरसा मुंडा कौन हैं? लगता है कोई जादूगर होंगे, जिन्होंने खुद को जादू से मूर्ति बना लिया है।उस समय बिरसा मुंडा मेरे लिए किसी कहानी के नायक लगते, जिनके पास अपार जादुई शक्तियां थीं।  

एक बार चाचा जी मेरे घर आए। तब मैं ग्यारहवीं में थीं। मैंने उनसे पूछा कि चाचा नया मोड़ पर बिरसा का जादू खत्म हो गया या अभी-भी वो अपने जादू से मूर्ति ही बना हुआ है? सभी लोग मेरी बात सुन कर हंस पड़े। चाचा ने कहा कि बिरसा का जादू कभी खत्म नहीं हो सकता क्योंकि लोग उन्हें भगवान की तरह पूजते है। मुझे लगा कि कहीं ऐसा न हो कि और किसी सवाल से मैं एक बार फिर मजाक का पात्र न बन जाऊं। इसलिए मैंने तय किया कि मैं खुद ही बिरसा का पता लगाऊंगी। 

एक दिन स्कूल में मैंने इतिहास की शिक्षिका से बिरसा के बारे में पूछा। उन्होंने बताया कि बिरसा मुंडा 19 वीं सदी के प्रमुख आदिवासी जननायक थे। उनके नेतृत्व में मुंडा आदिवासियों ने 19वीं सदी के अंतिम वर्षों में उलगुलान नामक एक बड़े आंदोलन को अंजाम दिया था। झारखंड में रांची के उलीहातू गांव में 15 नवंबर 1875 में बिरसा मुंडा का जन्म हुआ। बिरसा की माता का नाम सुगना और पिता का नाम करमी हातू था। बिरसा बचपन से ही बेहद विचारशील और संवेदनशील थे। भारतीयों पर ब्रिटिश शासकों के अत्याचार से उनका मन कचोटता रहता था। 
  
साल्गा गांव में बिरसा ने अपनी प्रारंभिक पढ़ाई की और बाद में वे चाईबासा इंग्लिश स्कूल में पढ़ने चले गए। जर्मन ईसाई के इस स्कूल में बिरसा दाउद के नाम से उनका दाखिला करवाया गया क्योंकि उनके माता-पिता ने ईसाई धर्म अपना लिया था। बिरसा को अपनी भूमि और संस्कृति से गहरा लगाव था। 

उन दिनों मुंडा आदिवासियों की भूमि छीन ली गई थी। पादरी डॉ नोट्रेट ने मुंडा समाज के लोगों को यह प्रलोभन दिया कि अगर वे लोग ईसाई बने रहे, तो उन्हें उनकी ज़मीन वापस दे दी जाएगी। काफी समय बीतने के बाद भी जब उन्हें अपनी ज़मीन वापस नहीं मिली, तो मुंडा सरदारों ने भूमि वापसी के लिए आंदोलन कर दिया। दुर्भाग्यवश इस आंदोलन को अंग्रेजों ने दबा दिया। इससे बिरसा को गहरा आघात पहुंचा और उन्होंने बगावत कर दी, जिसके बाद उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया। अपने समुदाय की दुर्दशा, सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक अस्मिता को खतरे में देख कर उनके मन में क्रांति की भावना जाग उठी। उन्होंने गांव-गांव घूम कर 'अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज (हमारे देश में हमार शासन) का बिगुल फूंका।


बिरसा ने अंग्रेजों के खिलाफ उलगुलान नामक विद्रोह का आह्वान किया। धीरे-धीरे आदिवासियों को बिरसा पर भरोसा होने लगा और उनका यह विद्रोह आंदोलन बन छोटानागपुर तक फैल गया। इस विद्रोह ने अंग्रेजी हुकूमत को झकझोर दिया। 22 अगस्त 1895 में अंग्रेजों ने बिरसा मुंडा को किसी भी तरह गिरफ्तार करने का निर्णय किया। उसी वर्ष उन्हें गिरफ्तार कर हजारीबाग केंद्रीय कारागार में डाल दिया गया। उन्हें दो साल कारावास की सजा दी गई।  इस दौरान बिरसा के शिष्यों ने अकाल पीड़ित जनता की लगातार सहायता की। बिरसा को अकालग्रस्त इलाके के लोग धरतीबाबाके नाम से पूजने लगे।

साल 1897 से 1900 तक के बीच मुंडा समुदाय और अंग्रेजों के बीच युद्ध होते रहे। इस दौरान कई निर्दोष लोगों ने अपनी जान गंवार्इं। बिरसा को काफी समय तक पुलिस पकड़ नहीं पाई पर एक गद्दार की वजह से 3 मार्च 1900 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्होंने अपने जीवन की अंतिम सांसें 9 जून 1900 को रांची के कारागार में लीं। बिरसा मुंडा की समाधि रांची में डिस्टिलरी पुल के पास है। उनकी स्मृति में बिरसा मुंडा केंद्रीय कारागार व बिरसा मुंडा हवाईअड्डा भी  बनाया गया है। 

बिरसा मुंडा ने अपना पूरा जीवन अपनी जन्मभूमि और आदिवासी समाज के उत्थान के नाम कर दिया और भारतीय इतिहास में मुंडा विद्रोह एक न भूलने वाला आंदोलन है। अंग्रेजों के खिलाफ उनका विद्रोह झारखंड का सबसे बड़ा और अंतिम रक्तप्लावित जनजातीय विप्लव था, जिसमें हजारों की संख्या में मुंडा आदिवासी शहीद हुए।  


स्वाती सिंह 

बुधवार, 27 जुलाई 2016

फीयरलेस की मिशाल है नादिया

भारतीय सिनेमा में महिलाओं के प्रस्तुतिकरण और दर्शकों के मन में नायिकाओं की बनी एक तस्वीर को बदलने के लिए खतरनाक स्टंट करने वाली नादिया  बिल्कुल सटीक नायिका साबित हुई|

स्कूल में ग्यारहवीं कक्षा का वह पहला दिन था| कक्षा में कई नए चेहरे दिखाई पड़ रहे थे| हमारी नई क्लास की क्लास-टीचर बत्रा मैडम हमेशा की तरह अपने नए सेशन की पहली क्लास में इंट्रो-सेशन रखा था| उन्होंने एक तरफ से सभी को अपना परिचय देने को कहा| सभी ने अपने-अपने बारे में बताया| तभी स्कूल के चपरासी अंकल एक लड़की के साथ क्लास में पहुंचे और मैडम से कहा कि ‘मैम न्यू एडमिशन है’| मैडम ने उस लड़की को क्लास में आकर बैठने की आज्ञा दी| मैडम ने जब उससे अपना परिचय देने को कहा तो उसने कहा कि ‘मेरा नाम नेहा है| मेरा पसंदीदा खेल मार्शल आर्ट है और मैं बड़ी होकर स्टंटवीमेन बनना चाहती हूं|’

उसकी रूचि और लक्ष्य क्लास के सभी स्टूडेंट्स से बिल्कुल अलग थे| नतीजतन सभी उसकी तरफ आश्चर्यचकित होकर देखने लगे| बहुत-से स्टूडेंट्स को तो यह तक नहीं मालूम था कि स्टंटवीमेन क्या होता है? और वे आपस में खुसुर-फुसुर करने लगे| कुछ ही दिनों में नेहा स्कूल में मार्शल-आर्ट के टीचर की चहेती स्टूडेंट बनने के साथ-साथ स्कूल चैम्पियन भी बन गयी| धीरे-धीरे वो मेरी भी अच्छी दोस्त बनती गयी| एक दिन लंच टाइम में हमलोग एकदूसरे से अपने करियर को लेकर बात कर रहे थे| तब मैंने नेहा से पूछा कि तुम्हें स्टंटवीमेन बनने की प्रेरणा कहाँ से मिली? तब नेहा ने बताया कि नादिया मेरी आदर्श है और मैं बड़ी होकर उनकी तरह बनना चाहती हूं| मैंने यह नाम पहली बार सुना था| मैंने नेहा से पूछा कि वो कौन है? तो नेहा ने जवाब दिया कि मैं कल अपनी डायरी लाऊंगी जिसमें मैंने उनके बारे में लिखा है| तब तुम्हें विस्तार से उनके बारे में पता चल जायेगा| अगले दिन नेहा ने मुझे अपनी वो डायरी दी और स्कूल से घर वापस आते ही मैं तुरंत वो डायरी पढ़ने में जुट गयी|

डायरी के पहले पन्ने के शीर्ष में लिखा था -

चलती ट्रेन में बिना किसी डर के उन्होंने दस से भी ज्यादा गुंडों को बिना किसी हथियार के ढेर कर दिया| ट्रेन की छत पर एक डिब्बे से दूसरे डिब्बे पर भागते हुए एक बार भी उनके पैर नहीं लडखडाये| (फिल्म- मिस फ्रंटियर मेल (1936) का एक सीन)
                                         कितनी निडर है वो| इसलिए ही तो वो मेरी आदर्श है|


एक समय था, जब हमारा देश सोने की चिड़िया कहा जाता था| यहां की भौगोलिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और आध्यात्मिक संपन्नता ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा| वहीं भारत के मसालों ने विदेशियों को लुभाना शुरू किया| आज भी भारत की ये विशेषताएं दुनियाभर के लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचती हैं| भारतवासियों ने हमेशा से ही यहां आने वाली विदेशी संस्कृति और सभ्यता को न केवल अपने दिल में बसाया बल्कि इसके साथ-साथ ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का संदेश भी दुनिया को दिया|
19 वीं के प्रारंभ से भारत में सिनेमा-निर्माण का दौर शुरू हुआ और बहुत-ही कम समय में यह दुनिया में एक आकर्षण बनता गया| बर्फ़ीली वादियों में रेशम की साड़ी में लिपटी नायिका के साथ नायक का इश्क फरमाना हो या फिर नायक के खतरनाक स्टंट| इन सभी का अनोखा मेल दिखाती है ये ‘भारतीय फ़िल्में|’ भारत में फिल्म के शुरूआती दौर में महिलाओं के अभिनय को बेहद सीमित दायरे में रखकर फिल्माया जाता था| पर समय के साथ होते बदलाव में धीरे-धीरे नायिकाओं ने अपने बेजोड़ अभिनय से फिल्म के आधे पर्दे पर अपना राज जमाया| नायिकाएं बदलाव के इस दौर में खतरनाक स्टंट के चलन से भी दूर नहीं रही|
भारतीय सिनेमा में इस नए चलन की नींव साल 1930 में आस्ट्रेलिया मूल की भारतीय मैरी एन इवांस ने रखी| आगे चलकर इन्हें फीयरलेस नादिया के नाम से जाना जाने लगा| यह थी भारत की पहली महिला स्टंटवीमेन|
ब्रिटिश सेना के स्वयंसेवक स्कॉट्समैन हर्ब्रेट इवांस और मार्गरेट के घर 8 जनवरी 1908 में एक नन्हीं परी का जन्म हुआ| जिसका नाम उन्होंने मैरी एन इवांस रखा| भारत आने से पहले वे आस्ट्रेलिया में रहते थे| पांच साल की उम्र में साल 1913 में मैरी अपने पिता के साथ पहली बार बंबई आई थी| साल 1915 में जर्मनी के प्रथम विश्व युद्ध के दौरान उसके पिता की आकास्मिक मृत्यु हो गयी और उन्हें पेशावर में जाकर शरण लेनी पड़ी| पेशावर में रहने के दौरान मैरी ने घुड़सवारी, शिकार, मछली पकड़ने और शूटिंग करना सीखा| साल 1928 में वह फिर अपनी माँ के साथ भारत आयीं और उन्होंने मैडम एस्ट्रोवा से बैले डांस सीखा|
एक अर्मेनियाई ज्योतिषी ने मैरी के सफल भविष्य की बात कही थी| साथ ही उन्होंने बताया था कि अगर वह अंग्रेजी के अक्षर ‘एन’ से कोई भी नाम रखती है तो उसे सफलता ज़रूर मिलेगी| इसके बाद मैरी ने अपना नाम ‘नादिया’ रखा|

साल 1930 में नादिया ने ज़ोरको सर्कस से अपने करियर की शुरुआत की और भारत के अलग-अलग शहरों का भ्रमण किया| विदेशी गोरी रंगत, सुनहरे बाल और नीली आँखों वाली नादिया को भारतीय सिनेमा में लाने से पहले निर्देशक जमशेद की यह चिंता लगातार बनी रही कि कहीं ऐसा न हो भारत की जनता इस विदेशी व्यक्तित्व वाली नायिका को पसंद न करें| पर भारतीय सिनेमा में महिलाओं के प्रस्तुतिकरण और दर्शकों के मन में नायिकाओं की बनी एक तस्वीर को बदलने के लिए खतरनाक स्टंट करने वाली नादिया उन्हें बिल्कुल सटीक नायिका लगी| नतीजतन उन्होंने फिल्म जे.बी.एच में नादिया को नायिका के तौर पर चुना| यह नादिया की सबसे पहली फिल्म थी| इस फिल्म का निर्देशन जमशेद वादिया ने किया| इसके बाद उन्होंने ‘देश दीपक’, ‘नूर-ए-यमन’ और खिलाड़ी जैसी सफल फिल्मों में अपने बेजोड़ अभिनय और खतरनाक स्टंट से अलग पहचान बनाई| ‘हंटरवाली’ नादिया की सबसे सफल फिल्म रही| उन्होंने पचास से भी अधिक फिल्मों में काम किया| 1960 के दशक में उन्होंने निर्माता-निर्देशक होमी वाडिया से शादी कर ली और फिल्मों से सन्यास ले लिया|

अगले दिन मैंने नेहा को उसकी डायरी सौंपते हुए कहा वाकई नादिया हम सभी के लिए एक मिशाल है| वह भारतीय सिनेमा के दिग्गजों में से एक हैं| यह बहुत ही दुःख की बात है कि भारतीय फिल्मों में इस क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाली शख्शियत इस चमकदार दुनिया के अंधेरे में गुम हो चुकी है| पर मुझे इस बात की ख़ुशी है कि तुमने उन्हें न सिर्फ अपना बनाया बल्कि उनकी यादों को भी संजो कर रखा|

स्वाती सिंह 

















शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

ठेठपन का मतलब ‘अपशब्द’ नहीं : किस्सा हिंदी के संक्रमण-काल का|

‘फट गई!’....... ‘सुबू जब भी निरूतर होता था तो वो गांड खुजाने लगता था|’ .......‘तू चूतिया है|’ 

आखिर ऐसी भाषा का प्रयोग करने का क्या उद्देश्य हो सकता है भला? ठेठपन को दर्शना या पाठक का मनोरंजन करना? ठेठपन का मतलब अपशब्द ही तो नहीं होता?

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खतरे में है दोस्त

आज के समय में हर दूसरा इंसान भागम-भाग वाली जिंदगी जी रहा है| अब ज़िन्दगी की टाइमिंग बड़ी फिक्स-सी होती है| नहाने-खाने से लेकर बाहर जाने से घर आने तक, सब काम के लिए फिक्स टाइम होता है| बोले तो एकदम बिजी| समय के साथ समाज में आये इस बदलाव ने इंसान के जन्म से लेकर उम्र के अंतिम पड़ाव तक जिंदगी जीने के ढंग को प्रभावित किया है| अब गर्भ में आने से पहले ही बच्चे के भविष्य का चयन कर उसपर काम शुरू कर दिया जाता है| दादी-नानी की कहानी सुनने की उम्र में बच्चे अब प्ले-स्कूल में पज्जल खेलना सीखने लगते है| इस जीवन-शैली ने जहां एक ओर बचपन की अवधि को सीमित कर दिया, वहीं दूसरी तरफ आगे बढ़ने के प्रेशर ने उनकी विचारशीलता को तेज़ी से बढ़ा दिया| अगर बात की जाए लेखन के क्षेत्र की तो कहते हैं कि किताबें एक ऐसे दोस्त की तरह होती है जो हमारा साथ कभी नहीं छोड़ती| एग्जाम का भूत हो या ट्रेन में लंबा सफर, उदासी से निज़ात हो या ज़िन्दगी जीने का ढंग....ये किताबें ही तो हैं जो हमारा हमेशा साथ निभाती हैं| लेखन में बच्चों की रचनात्मकता को सही दिशा देने के लिए यह ज़रूरी है कि उन्हें भाषा का उचित ज्ञान हो, जो हमें किताबों से मिलता है| अगर बच्चे ऐसी किताबें पढ़ें जिनमें ऐसे (उपर्युक्त दिए गए) शब्दों का प्रयोग किया गया हो तो उनका भविष्य किस दिशा में आगे बढ़ेगा इसकी कल्पना की जा सकती है| और इस कल्पना से इस दोस्त का भविष्य भी खतरे में नज़र आता है| 


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किस्सा हिंदी के संक्रमण-काल का

बीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैंने जर्नलिज्म को मास्टर्स के लिए चुना| जिसका कारण था – अपने लिखने के शौक को सुनियोजित कर इसे अपनी पहचान बनाना| चूँकि बारहवीं तक की पढ़ाई हिंदी माध्यम से हुई, इससे अंग्रेजी माध्यम एक ड्रीम-प्रोजेक्ट बनता गया| बीए में टीचर्स ने बताया कि सब्जेक्ट की अच्छी किताबें अंग्रेजी में उपलब्ध है| तब बड़ी हिम्मत से बीए को अंग्रेजी-माध्यम बनाकर वो अच्छी वाली अंग्रेजी किताबें पढ़कर, अपने ड्रीम-प्रोजेक्ट को जीते हुए एग्जाम पास किया| मास्टर्स में भी यही क्रम कायम रहा| पर जब बात आती है अपने विचारों को व्यक्त करने की तो बारह साल की साथ  वाली हिंदी-बहिन ही याद आती है| मास्टर्स के दो सालों में सभी टीचर्स और सीनियर्स ने बताया कि अगर अच्छा लिखना है तो पहले अच्छा पढ़ना शुरू करो| जैसा पढ़ोगी, वैसा लिखोगी|

इसके बाद शुरू हुआ पढ़ने का दौर| इससे पहले कभी उपन्यास पढ़ने का शौक नहीं था| पर अब किताबों के साथ ने इस नए शौक को जन्म दिया| ऑनलाइन शॉपिंग साइट्स पर कपड़े, इयरिंग और सैंडल्स की शॉपिंग अब बुक-शॉपिंग में बदल गयी| शुरूआती समय में किताबों का चयन दो आधारों पर होता - पहला, किसी मुद्दे पर केंद्रित किताब (अगर शीर्षक से मालूम होती) और दूसरा, हिंदी के जाने-माने लेखकों की किताबों का चयन| धीरे-धीरे एक नया आधार विकसित हुआ - बुक-रेटिंग का|

ऑनलाइन शॉपिंग की साइट पर एक दिन बुक सर्च करते हुए एक किताब पर नज़र पड़ी| बड़ा-ही रोचक नाम था किताब का – ‘नमक स्वादानुसार|’ इसे देखते ही बुक की और डिटेल के लिए फौरन क्लिक किया तो पता चला कि निखिल सचान नाम के किसी युवा-लेखक ने यह किताब लिखी थी| बुक रेटिंग देखी तो इस किताब को पांच स्टार दिए गए थे| सभी मानकों पर खरी उतरती इस किताब का दाम भी कुछ ज्यादा नहीं था तो फ़ौरन मंगवा लिया इसे|


जब किताब घर पहुंची तो पैकिंग खोलते ही इसके फ्रंट कवर को देखा| जिसमें ऊपर गुलाबी-रंग के गोले में सफ़ेद रंग की स्याही से लिखा था – ‘बेस्ट-सेलर’| नीचे हिंदुस्तान टाइम्स, बीबीसी, इन्फिबीम और योरस्टोरी की तरफ से अंग्रेजी में बुक की सराहना भी ‘गागर में सागर’ वाले अंदाज़ में की थी| पिछले कवर में सबसे अधिक पढ़े जाने वाले हिंदी अखबार ‘दैनिक जागरण’ की टिप्पणी थी – ‘नएपन को मोहताज़ किताबों की मायूस भीड़ में चौबीस कैरेट सोने की चकाचौंध|’ ये सब देखते ही मन को बड़ा सुकून पहुंचा और दिल की तरफ से आवाज़ आई – बढ़िया किताब मिल गयी| यह किताब एक कहानी-संग्रह थी| बचपन में बच्चों की शरारतों के किस्से बखूबी वर्णित किये गए थे| पहली कहानी का जिक्र पेज नंबर ग्यारह से तैंतीस तक में किया गया था| कहानी के देशकाल, वातावरण और बच्चों की मासूमियत को लेखक ने भली-भांति प्रस्तुत करने की कोशिश की थी| पर बीच-बीच में कुछ ऐसे शब्दों और वाक्यों का प्रयोग देखने को मिला, जिसके बाद दूसरी कहानी की शुरुआत करने की हिम्मत न हुई|

आप भी जरा गौर फरमाइयें इनपर –

·        ‘फट गई!’

·        ‘सुबू जब भी निरूतर होता था तो वो गांड खुजाने लगता था|’

·        ‘तू चूतिया है|’

·        ‘एक-एक अक्षर मिटाते हुए दोनों यही सोच रहे थे कि ऐसा क्या किया जाए कि मोटे को ठीक बरगद के पेड़ के पास मुतास लगे और मूत की आखिरी बूंद छिटकते ही उसके शरीर से जिन्न चपक जाए|’

इसके बाद जब किताब के आखिरी पेज पर नज़र पड़ी तो वहां भी बच्चों का एक संवाद-

·        ‘मादरचोद, टट्टी के हाथ से चोट छू दिया|’

इसे देखने के बाद खुद को ठगा महसूस करने लगी और दिमाग में कई सवाल उमड़ने लगे| आखिर ऐसी भाषा का प्रयोग करने का क्या उद्देश्य हो सकता है भला? ठेठपन को दर्शना या पाठक का मनोरंजन करना? ठेठपन का मतलब सिर्फ अपशब्द ही तो नहीं होता? और किताब पढ़ने का शौक रहने वाला इंसान गंभीर और विचारशील होता है, क्या ऐसे शब्दों से उसका मनोरंजन किया जा सकता है? इसपर इतने प्रतिष्ठित अख़बारों और मीडिया-समूहों की ये टिप्पणियाँ वाकई अच्छी किताबों के मानकों को सवाल के कठघरे में खड़ा करती है|

आईआईटी और आईआईएम से पढ़े हुए इस किताब के लेखक ने आखिर क्या सोच कर इन अपशब्दों का इस्तेमाल किया| क्या ये किताब किसी बच्चे के पढ़ने लायक होगी? क्या कोई भी बच्चा इसे पढ़ने के बाद अच्छी भाषा में कोई किताब तो क्या कोई अच्छा निबंध भी लिख पायेगा?

वर्तमान समय में हिंदी में लिखी जाने वाले उपन्यास और कहानी-संग्रहों में हिंदी के संक्रमणकाल की झलक साफ़ दिखाई पड़ती है| इनकी फेहरिस्त दिन-दुगुनी रात चौगुनी के हिसाब से बढ़ती जा रही है| इसी फेहरिस्त में एक और नाम शामिल है युवा-लेखक सत्य व्यास की लिखी नावेल ‘बनारस टॉकीज’ का| कॉलेज-लाइफ पर आधारित इस उपन्यास में बनारसी-ठेठपनें की छाप मिले न मिले पर अपशब्दों की भरमार ज़रूर मिलती है| ‘यो-यो वाली’ इस नई जनरेशन ने विचारों की अभिव्यक्ति को सरल बनाने के लिए हिंगलिश भाषा का इस्तेमाल शुरू कर दिया| इससे हिंदी की आधी-धज्जियां तो यूँही उड़ती जा रही है और ठेठपने के नाम पर ऐसी फूहड़-भाषा और अपशब्दों का प्रयोग हमें यह सोचने पर मज़बूर कर देता है कि ऐसी किताबें पढ़ने वाली इस पीढ़ी से क्या उम्मीदें की जाएँ?


कोई भी अच्छा लेखक कभी-भी भाषा, शब्द-चयन और शब्द-विन्यास से कोई समझौता नहीं करता| बरसों पहले धर्मवीर भारती, प्रेमचंद, शरतचंद्र जैसे कई महान लेखकों की लेखनी ने हिंदी को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया है| पर आज खुद को युवा-लेखक कहने वाले नए लेखक अपनी लेखनी से हिंदी को ऐसे पाताल में भेजने की ओर बढ़ रहे हैं जहां हिंदी को गाली से जोड़कर देखा जाने लगेगा| अगर बात करें शैक्षणिक दृष्टिकोण से तो शोधपत्र और संदर्भ-किताबों में हिंदी में लिखी किताबों की उपलब्धता वैसे ही कम है| और जो किताबें उपलब्ध है भी तो उन्हें अंग्रेजी में लिखी किताबों के मुकाबले किसी भी मानक पर अच्छा नहीं माना जाता| ऐसे में बचता है तो हमारा हिंदी-साहित्य| अगर यहां भी इस तरह भाषाई-पतन जारी रहा तो आने वाले समय में हिंदी सिर्फ कबीरदास से धर्मवीर भारती तक सिमट कर इतिहास बनकर रह जायेगी|

स्वाती सिंह 

सोमवार, 11 जुलाई 2016

व्हाइट फेस का डार्क साइड : फ़िल्मी फ़्रेम के सामाजिक चश्मे से

 उस फ़िल्म में उन्होंने एक राजकुमार का किरदार निभाया था| फिल्म की अदभुत सफलता के बाद सभी ने उनके अभिनय को खूब सराहा भी| पर एक क्रिटिक ने यह कहते हुए उनके टैलेंट को नज़रंदाज़ कर दिया कि ‘तुम कहीं से भी राजकुमार नहीं लगते हो|’ क्रिटिक के इस कमेंट की वजह थी - उस अभिनेता की सांवली रंगत|

                 ये कहानी है अपने बेजोड़ अभिनय के लिए प्रसिद्ध अभिनेता मनोज वाजपेयी की|



  कहते हैं कि फ़िल्में हमारे समाज का आईना होती है और समाज फिल्मों का आईना होता है| फ़िल्में कभी हमारे समाज से सीखती है तो कभी हमारे समाज को सिखाती है| किसी भी फिल्म का समाज से सरोकार रखना बेहद ज़रूरी होता है अन्यथा समाज उस फिल्म से सरोकार नहीं रखता| कई सभ्य समाजों में हुए सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन इन फिल्मों की ही देन रहे है| आज के समय में दुर्भाग्यवश, समाज से सीखी बातों का प्रभाव फिल्मों पर दिखाई दे या न दे मानव-जीवन पर फिल्मों का प्रभाव साफ़ दिखाई पड़ता है| पर यह ज़रूरी नहीं कि हर फ़िल्मी-प्रभाव सकारात्मक ही हो| कई बार यह फ़िल्मी-दुनिया कई सारे नकारात्मक प्रभावों को खुद में समेटे समाज की किसी जटिल समस्या का कारक भी बन जाती है| अगर बात की जाए भारतीय फिल्म-जगत यानी कि बॉलीवुड की तो समय-समय पर इस जगत से भी के कई ऐसे कड़वे सच सामने आते है जो हमें इन समस्याओं पर सोचने के लिए मजबूर कर देते है| इन्हीं फेहरिस्त में से एक समस्या है – रंगभेद|

भारत में रंगभेद का असली रंग फ़िल्मी-जगत के रंगीन पर्दों से प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है|  चाहे फिल्मों के गाने हो या फिर फिल्मों में अभिनेत्री का चयन हर जगह सिर्फ गोरे रंग की ही लीपापोती दिखाई पड़ती है|

बॉलीवुड की दुनिया में मनोज वाजपेयी अकेले ऐसे अभिनेता नहीं हैं जिन्हें रंगभेद का शिकार होना पड़ा| इस फेहरिस्त में धनुष, बिपाशा बसु, प्रियंका चोपड़ा, नवाजुद्दीन सिद्धकी और स्मिता पाटिल जैसे कई  कलाकारों के नाम भी शामिल है|

फिल्म-अभिनेता ऋषि कपूर ने नवाजुद्दीन की सांवली रंगत को देखकर उनकी असफलता की भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि ‘तुम्हें अभिनय का कभी-भी कोई मौका नहीं मिल सकता है| और न ही तुम इसे करने के लायक हो; तुम्हारे पास न तो कोई टैलेंट है और न ही कोई इमेज|’ फिल्म जगत के इतने अनुभवी अभिनेता की ये जुबानी वाकई हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या पढ़े-लिखे और खुद को आधुनिक सोच का बताने वाले लोगों के लिए सफलता का मानक योग्यता और गुणों से परे सिर्फ चेहरे की रंगत तक सिमट कर रह गया है?


इसी तरह बिपाशा बसु को करीना कपूर ने उनकी सांवली रंगत के ‘काली बिल्ली’ की उपमा दी|

ऐसा नहीं कि गोरे रंग के काले साये की चपेट में सिर्फ फ़िल्मी जगत ही है, बल्कि आज का इलेक्ट्रोनिक मीडिया भी पूरी तरह इस साये में अपनी रोटी सेंकता नज़र आता है| बस फ़र्क सिर्फ इसके प्रस्तुतिकरण में होता है| किसी हीरो या हिरोइन ने रंगभेद से संबंधित कोई बयान देते ही, उनके बयान पर न्यूज़ चैनलों में बहस का आयोजन कर दिया जाता है| ये बहसें चैनलों की आम बहसों की ही तरह होती है, जिनमें समाज के अलग-अलग वर्गों के बुद्धिजीवी कहे जाने वाले लोगों को बुलाकर बाजारू चौपाल सजा दी जाती है| सभी वक्ता मेहमान रंगों के आधार पर होने वाले भेदभाव के खिलाफ़ लंबे-चौड़े भाषण देते है और चंद मिनट में ये बहसें झगड़े का रूप ले लेती है| ऐसे में गोरी रंगत के बावजूद सफेदी वाले मेकअप पोते एंकर बार-बार अपना गला फाड़-फाड़कर मेहमानों के चिल्लपों की बनती गुत्थी को गुथने से रोकने की नाकाम कोशिश करते है| वहीं दूसरी तरफ, इन बाजारू बहसी-चौपालों वाले कार्यक्रमों के प्रायोजक होते है – सालों से लोगों को गोरा करने की मुहीम में लगे - फेयरनेस क्रीम, साबुन, व टॉनिक| इस तरह दोहरे-चरित्र वाला आज का यह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी रंगभेद की रंगभेद की इस कुप्रथा को पनाह देता है|

फ़िल्मी-जगत में रंगभेद का शिकार हुए कलाकारों ने जब सफलता पाने के बाद अपने अनुभव जनता के सामने रखे तब जनता ने उनकी सफलता का मानक उनके टैलेंट पर सेट कर दिया| लेकिन दुर्भाग्यवश यह मानक सिर्फ उन्हीं चंद सफल कलाकारों तक सिमट कर रह गया जिन्होंने लंबे संघर्ष के बाद सफलता की बुलंदी तक का सफर तय किया और फिर इस काले साये की दास्तां से लोगों को रु-ब-रु करवाया| पर आज भी बहुत से ऐसे कलाकार  गोरी रंगत न होने की वजह से या तो पीछे हट जाते हैं या फिर गोरी रंगत के काले साये में कुचल दिए जाते हैं| इंसान का अपनी बनावट और रंगत पर कोई वश नहीं होता है| यह  जानते हुए भी समाज के लोगों और खासतौर पर खुद को बुद्धिजीवी व आधुनिक समझने वाले लोगों का इस तरह रंगभेद को बढ़ावा देना चिंताजनक है| भारतीय समाज में फिल्मों में गोरी रंगत के इस काले साये ने जहां एक तरफ गोरे करने वाले हानिकारक क्रीम व अन्य उत्पादों के बाज़ार को बढ़ावा दिया| वहीं दूसरी ओर, सफलता के मानक को योग्यता व गुणों से परे उन्हें अधिक सिकोड़ते हुए इंसान की रंगत तक संकुचित कर दिया है|

समाज में फ़िल्मी-जगत और इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने रंगभेद को इस कदर बढ़ावा दिया कि समाज में इस समस्या का रूप और भी वीभत्स होता जा रहा है| शिक्षा का क्षेत्र हो या रोजगार की तलाश, परिवार व आस-पड़ोस में सम्मान हो या फिर शुभ विवाह; हर जगह ‘गुड लुकिंग’ की डिमांड है और इस गुड लुकिंग के लिए ज़रूरी है- गोरी रंगत| विकास के पथ पर आगे बढ़ते सभ्य समाज में रंगभेद की समस्या बेहद शर्मसार करने वाली है| रंगभेद एक सामाजिक समस्या है और फ़िल्मी-दुनिया ने भी इसे किसी समस्या की तरह स्वीकार करने की बजाय एक चलन के तौर पर खुद में शामिल कर लिया| किसी फिल्म में फिल्माया गया गीत – ‘गोरे रंग पे न इतना गुमान कर, गोरा रंग दो दिन में ढल जाएगा’ की तर्ज पर - उम्र ढलने के साथ तो इंसानी खाल से गोरे रंग की रंगत खत्म हो गयी पर गोरे रंग का गुमान तो दो दिन क्या दो दशकों से भी ज्यादा समय से कायम है और वर्तमान समय की परिस्थितियों को देखकर आने वाले दो दशकों तक इसके ढलने का कोई आसार भी नज़र नहीं आ रहा है|     

स्वाती सिंह