सोमवार, 11 जुलाई 2016

व्हाइट फेस का डार्क साइड : फ़िल्मी फ़्रेम के सामाजिक चश्मे से

 उस फ़िल्म में उन्होंने एक राजकुमार का किरदार निभाया था| फिल्म की अदभुत सफलता के बाद सभी ने उनके अभिनय को खूब सराहा भी| पर एक क्रिटिक ने यह कहते हुए उनके टैलेंट को नज़रंदाज़ कर दिया कि ‘तुम कहीं से भी राजकुमार नहीं लगते हो|’ क्रिटिक के इस कमेंट की वजह थी - उस अभिनेता की सांवली रंगत|

                 ये कहानी है अपने बेजोड़ अभिनय के लिए प्रसिद्ध अभिनेता मनोज वाजपेयी की|



  कहते हैं कि फ़िल्में हमारे समाज का आईना होती है और समाज फिल्मों का आईना होता है| फ़िल्में कभी हमारे समाज से सीखती है तो कभी हमारे समाज को सिखाती है| किसी भी फिल्म का समाज से सरोकार रखना बेहद ज़रूरी होता है अन्यथा समाज उस फिल्म से सरोकार नहीं रखता| कई सभ्य समाजों में हुए सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन इन फिल्मों की ही देन रहे है| आज के समय में दुर्भाग्यवश, समाज से सीखी बातों का प्रभाव फिल्मों पर दिखाई दे या न दे मानव-जीवन पर फिल्मों का प्रभाव साफ़ दिखाई पड़ता है| पर यह ज़रूरी नहीं कि हर फ़िल्मी-प्रभाव सकारात्मक ही हो| कई बार यह फ़िल्मी-दुनिया कई सारे नकारात्मक प्रभावों को खुद में समेटे समाज की किसी जटिल समस्या का कारक भी बन जाती है| अगर बात की जाए भारतीय फिल्म-जगत यानी कि बॉलीवुड की तो समय-समय पर इस जगत से भी के कई ऐसे कड़वे सच सामने आते है जो हमें इन समस्याओं पर सोचने के लिए मजबूर कर देते है| इन्हीं फेहरिस्त में से एक समस्या है – रंगभेद|

भारत में रंगभेद का असली रंग फ़िल्मी-जगत के रंगीन पर्दों से प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है|  चाहे फिल्मों के गाने हो या फिर फिल्मों में अभिनेत्री का चयन हर जगह सिर्फ गोरे रंग की ही लीपापोती दिखाई पड़ती है|

बॉलीवुड की दुनिया में मनोज वाजपेयी अकेले ऐसे अभिनेता नहीं हैं जिन्हें रंगभेद का शिकार होना पड़ा| इस फेहरिस्त में धनुष, बिपाशा बसु, प्रियंका चोपड़ा, नवाजुद्दीन सिद्धकी और स्मिता पाटिल जैसे कई  कलाकारों के नाम भी शामिल है|

फिल्म-अभिनेता ऋषि कपूर ने नवाजुद्दीन की सांवली रंगत को देखकर उनकी असफलता की भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि ‘तुम्हें अभिनय का कभी-भी कोई मौका नहीं मिल सकता है| और न ही तुम इसे करने के लायक हो; तुम्हारे पास न तो कोई टैलेंट है और न ही कोई इमेज|’ फिल्म जगत के इतने अनुभवी अभिनेता की ये जुबानी वाकई हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या पढ़े-लिखे और खुद को आधुनिक सोच का बताने वाले लोगों के लिए सफलता का मानक योग्यता और गुणों से परे सिर्फ चेहरे की रंगत तक सिमट कर रह गया है?


इसी तरह बिपाशा बसु को करीना कपूर ने उनकी सांवली रंगत के ‘काली बिल्ली’ की उपमा दी|

ऐसा नहीं कि गोरे रंग के काले साये की चपेट में सिर्फ फ़िल्मी जगत ही है, बल्कि आज का इलेक्ट्रोनिक मीडिया भी पूरी तरह इस साये में अपनी रोटी सेंकता नज़र आता है| बस फ़र्क सिर्फ इसके प्रस्तुतिकरण में होता है| किसी हीरो या हिरोइन ने रंगभेद से संबंधित कोई बयान देते ही, उनके बयान पर न्यूज़ चैनलों में बहस का आयोजन कर दिया जाता है| ये बहसें चैनलों की आम बहसों की ही तरह होती है, जिनमें समाज के अलग-अलग वर्गों के बुद्धिजीवी कहे जाने वाले लोगों को बुलाकर बाजारू चौपाल सजा दी जाती है| सभी वक्ता मेहमान रंगों के आधार पर होने वाले भेदभाव के खिलाफ़ लंबे-चौड़े भाषण देते है और चंद मिनट में ये बहसें झगड़े का रूप ले लेती है| ऐसे में गोरी रंगत के बावजूद सफेदी वाले मेकअप पोते एंकर बार-बार अपना गला फाड़-फाड़कर मेहमानों के चिल्लपों की बनती गुत्थी को गुथने से रोकने की नाकाम कोशिश करते है| वहीं दूसरी तरफ, इन बाजारू बहसी-चौपालों वाले कार्यक्रमों के प्रायोजक होते है – सालों से लोगों को गोरा करने की मुहीम में लगे - फेयरनेस क्रीम, साबुन, व टॉनिक| इस तरह दोहरे-चरित्र वाला आज का यह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी रंगभेद की रंगभेद की इस कुप्रथा को पनाह देता है|

फ़िल्मी-जगत में रंगभेद का शिकार हुए कलाकारों ने जब सफलता पाने के बाद अपने अनुभव जनता के सामने रखे तब जनता ने उनकी सफलता का मानक उनके टैलेंट पर सेट कर दिया| लेकिन दुर्भाग्यवश यह मानक सिर्फ उन्हीं चंद सफल कलाकारों तक सिमट कर रह गया जिन्होंने लंबे संघर्ष के बाद सफलता की बुलंदी तक का सफर तय किया और फिर इस काले साये की दास्तां से लोगों को रु-ब-रु करवाया| पर आज भी बहुत से ऐसे कलाकार  गोरी रंगत न होने की वजह से या तो पीछे हट जाते हैं या फिर गोरी रंगत के काले साये में कुचल दिए जाते हैं| इंसान का अपनी बनावट और रंगत पर कोई वश नहीं होता है| यह  जानते हुए भी समाज के लोगों और खासतौर पर खुद को बुद्धिजीवी व आधुनिक समझने वाले लोगों का इस तरह रंगभेद को बढ़ावा देना चिंताजनक है| भारतीय समाज में फिल्मों में गोरी रंगत के इस काले साये ने जहां एक तरफ गोरे करने वाले हानिकारक क्रीम व अन्य उत्पादों के बाज़ार को बढ़ावा दिया| वहीं दूसरी ओर, सफलता के मानक को योग्यता व गुणों से परे उन्हें अधिक सिकोड़ते हुए इंसान की रंगत तक संकुचित कर दिया है|

समाज में फ़िल्मी-जगत और इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने रंगभेद को इस कदर बढ़ावा दिया कि समाज में इस समस्या का रूप और भी वीभत्स होता जा रहा है| शिक्षा का क्षेत्र हो या रोजगार की तलाश, परिवार व आस-पड़ोस में सम्मान हो या फिर शुभ विवाह; हर जगह ‘गुड लुकिंग’ की डिमांड है और इस गुड लुकिंग के लिए ज़रूरी है- गोरी रंगत| विकास के पथ पर आगे बढ़ते सभ्य समाज में रंगभेद की समस्या बेहद शर्मसार करने वाली है| रंगभेद एक सामाजिक समस्या है और फ़िल्मी-दुनिया ने भी इसे किसी समस्या की तरह स्वीकार करने की बजाय एक चलन के तौर पर खुद में शामिल कर लिया| किसी फिल्म में फिल्माया गया गीत – ‘गोरे रंग पे न इतना गुमान कर, गोरा रंग दो दिन में ढल जाएगा’ की तर्ज पर - उम्र ढलने के साथ तो इंसानी खाल से गोरे रंग की रंगत खत्म हो गयी पर गोरे रंग का गुमान तो दो दिन क्या दो दशकों से भी ज्यादा समय से कायम है और वर्तमान समय की परिस्थितियों को देखकर आने वाले दो दशकों तक इसके ढलने का कोई आसार भी नज़र नहीं आ रहा है|     

स्वाती सिंह 

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