‘फट गई!’....... ‘सुबू जब भी निरूतर होता था तो वो गांड खुजाने लगता था|’ .......‘तू चूतिया है|’
आखिर ऐसी भाषा का प्रयोग करने का क्या उद्देश्य हो सकता है भला? ठेठपन को दर्शना या पाठक का मनोरंजन करना? ठेठपन का मतलब अपशब्द ही तो नहीं होता?
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खतरे में है दोस्त
आज के समय में हर दूसरा इंसान भागम-भाग वाली जिंदगी जी रहा है| अब ज़िन्दगी की
टाइमिंग बड़ी फिक्स-सी होती है| नहाने-खाने से लेकर बाहर जाने से घर आने तक, सब काम
के लिए फिक्स टाइम होता है| बोले तो एकदम बिजी| समय के साथ समाज में आये इस बदलाव
ने इंसान के जन्म से लेकर उम्र के अंतिम पड़ाव तक जिंदगी जीने के ढंग को प्रभावित
किया है| अब गर्भ में आने से पहले ही बच्चे के भविष्य का चयन कर उसपर काम शुरू कर
दिया जाता है| दादी-नानी की कहानी सुनने की उम्र में बच्चे अब प्ले-स्कूल में
पज्जल खेलना सीखने लगते है| इस जीवन-शैली ने जहां एक ओर बचपन की अवधि को सीमित कर
दिया, वहीं दूसरी तरफ आगे बढ़ने के प्रेशर ने उनकी विचारशीलता को तेज़ी से बढ़ा दिया|
अगर बात की जाए लेखन के क्षेत्र की तो कहते हैं कि किताबें एक ऐसे दोस्त की तरह
होती है जो हमारा साथ कभी नहीं छोड़ती| एग्जाम का भूत हो या ट्रेन में लंबा सफर,
उदासी से निज़ात हो या ज़िन्दगी जीने का ढंग....ये किताबें ही तो हैं जो हमारा हमेशा
साथ निभाती हैं| लेखन में बच्चों की रचनात्मकता को सही दिशा देने के लिए यह ज़रूरी
है कि उन्हें भाषा का उचित ज्ञान हो, जो हमें किताबों से मिलता है| अगर बच्चे ऐसी
किताबें पढ़ें जिनमें ऐसे (उपर्युक्त दिए गए) शब्दों का प्रयोग किया गया हो तो उनका
भविष्य किस दिशा में आगे बढ़ेगा इसकी कल्पना की जा सकती है| और इस कल्पना से इस
दोस्त का भविष्य भी खतरे में नज़र आता है|
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किस्सा हिंदी के संक्रमण-काल का
बीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैंने जर्नलिज्म को मास्टर्स के लिए चुना| जिसका
कारण था – अपने लिखने के शौक को सुनियोजित कर इसे अपनी पहचान बनाना| चूँकि बारहवीं
तक की पढ़ाई हिंदी माध्यम से हुई, इससे अंग्रेजी माध्यम एक ड्रीम-प्रोजेक्ट बनता
गया| बीए में टीचर्स ने बताया कि सब्जेक्ट की अच्छी किताबें अंग्रेजी में उपलब्ध
है| तब बड़ी हिम्मत से बीए को अंग्रेजी-माध्यम बनाकर वो अच्छी वाली अंग्रेजी
किताबें पढ़कर, अपने ड्रीम-प्रोजेक्ट को जीते हुए एग्जाम पास किया| मास्टर्स में भी
यही क्रम कायम रहा| पर जब बात आती है अपने विचारों को व्यक्त करने की तो बारह साल
की साथ वाली हिंदी-बहिन ही याद आती है| मास्टर्स
के दो सालों में सभी टीचर्स और सीनियर्स ने बताया कि अगर अच्छा लिखना है तो पहले अच्छा
पढ़ना शुरू करो| जैसा पढ़ोगी, वैसा लिखोगी|
इसके बाद शुरू हुआ पढ़ने का दौर| इससे पहले कभी उपन्यास पढ़ने का शौक नहीं था|
पर अब किताबों के साथ ने इस नए शौक को जन्म दिया| ऑनलाइन शॉपिंग साइट्स पर कपड़े,
इयरिंग और सैंडल्स की शॉपिंग अब बुक-शॉपिंग में बदल गयी| शुरूआती समय में किताबों
का चयन दो आधारों पर होता - पहला, किसी मुद्दे पर केंद्रित किताब (अगर शीर्षक से
मालूम होती) और दूसरा, हिंदी के जाने-माने लेखकों की किताबों का चयन| धीरे-धीरे एक
नया आधार विकसित हुआ - बुक-रेटिंग का|
ऑनलाइन शॉपिंग की साइट पर एक दिन बुक सर्च करते हुए एक किताब पर नज़र पड़ी| बड़ा-ही
रोचक नाम था किताब का – ‘नमक स्वादानुसार|’ इसे देखते ही बुक की और डिटेल के लिए
फौरन क्लिक किया तो पता चला कि निखिल सचान नाम के किसी युवा-लेखक ने यह किताब लिखी
थी| बुक रेटिंग देखी तो इस किताब को पांच स्टार दिए गए थे| सभी मानकों पर खरी
उतरती इस किताब का दाम भी कुछ ज्यादा नहीं था तो फ़ौरन मंगवा लिया इसे|
जब किताब घर पहुंची तो पैकिंग खोलते ही इसके फ्रंट कवर को देखा| जिसमें ऊपर गुलाबी-रंग के गोले में सफ़ेद रंग की स्याही से लिखा था – ‘बेस्ट-सेलर’| नीचे
हिंदुस्तान टाइम्स, बीबीसी, इन्फिबीम और योरस्टोरी की तरफ से अंग्रेजी में बुक की
सराहना भी ‘गागर में सागर’ वाले अंदाज़ में की थी| पिछले कवर में सबसे अधिक पढ़े
जाने वाले हिंदी अखबार ‘दैनिक जागरण’ की टिप्पणी थी – ‘नएपन को मोहताज़ किताबों की
मायूस भीड़ में चौबीस कैरेट सोने की चकाचौंध|’ ये सब देखते ही मन को बड़ा सुकून पहुंचा
और दिल की तरफ से आवाज़ आई – बढ़िया किताब मिल गयी| यह किताब एक कहानी-संग्रह थी| बचपन
में बच्चों की शरारतों के किस्से बखूबी वर्णित किये गए थे| पहली कहानी का जिक्र पेज
नंबर ग्यारह से तैंतीस तक में किया गया था| कहानी के देशकाल, वातावरण और बच्चों की
मासूमियत को लेखक ने भली-भांति प्रस्तुत करने की कोशिश की थी| पर बीच-बीच में कुछ
ऐसे शब्दों और वाक्यों का प्रयोग देखने को मिला, जिसके बाद दूसरी कहानी की शुरुआत
करने की हिम्मत न हुई|
आप भी जरा गौर फरमाइयें इनपर –
·
‘फट गई!’
·
‘सुबू जब भी निरूतर
होता था तो वो गांड खुजाने लगता था|’
·
‘तू चूतिया है|’
·
‘एक-एक अक्षर मिटाते
हुए दोनों यही सोच रहे थे कि ऐसा क्या किया जाए कि मोटे को ठीक बरगद के पेड़ के पास
मुतास लगे और मूत की आखिरी बूंद छिटकते ही उसके शरीर से जिन्न चपक जाए|’
इसके बाद जब किताब के आखिरी पेज पर नज़र पड़ी तो वहां भी बच्चों का एक संवाद-
·
‘मादरचोद, टट्टी के
हाथ से चोट छू दिया|’
इसे देखने के बाद खुद को ठगा महसूस करने लगी और दिमाग में कई सवाल उमड़ने लगे| आखिर
ऐसी भाषा का प्रयोग करने का क्या उद्देश्य हो सकता है भला? ठेठपन को दर्शना या
पाठक का मनोरंजन करना? ठेठपन का मतलब सिर्फ अपशब्द ही तो नहीं होता? और किताब पढ़ने
का शौक रहने वाला इंसान गंभीर और विचारशील होता है, क्या ऐसे शब्दों से उसका
मनोरंजन किया जा सकता है? इसपर इतने प्रतिष्ठित अख़बारों और मीडिया-समूहों की ये
टिप्पणियाँ वाकई अच्छी किताबों के मानकों को सवाल के कठघरे में खड़ा करती है|
आईआईटी और आईआईएम से पढ़े हुए इस किताब के लेखक ने आखिर क्या सोच कर इन अपशब्दों
का इस्तेमाल किया| क्या ये किताब किसी बच्चे के पढ़ने लायक होगी? क्या कोई भी बच्चा
इसे पढ़ने के बाद अच्छी भाषा में कोई किताब तो क्या कोई अच्छा निबंध भी लिख पायेगा?
वर्तमान समय में हिंदी में लिखी जाने वाले उपन्यास और कहानी-संग्रहों में
हिंदी के संक्रमणकाल की झलक साफ़ दिखाई पड़ती है| इनकी फेहरिस्त दिन-दुगुनी रात
चौगुनी के हिसाब से बढ़ती जा रही है| इसी फेहरिस्त में एक और नाम शामिल है युवा-लेखक
सत्य व्यास की लिखी नावेल ‘बनारस टॉकीज’ का| कॉलेज-लाइफ पर आधारित इस उपन्यास में
बनारसी-ठेठपनें की छाप मिले न मिले पर अपशब्दों की भरमार ज़रूर मिलती है| ‘यो-यो
वाली’ इस नई जनरेशन ने विचारों की अभिव्यक्ति को सरल बनाने के लिए हिंगलिश भाषा का
इस्तेमाल शुरू कर दिया| इससे हिंदी की आधी-धज्जियां तो यूँही उड़ती जा रही है और
ठेठपने के नाम पर ऐसी फूहड़-भाषा और अपशब्दों का प्रयोग हमें यह सोचने पर मज़बूर कर
देता है कि ऐसी किताबें पढ़ने वाली इस पीढ़ी से क्या उम्मीदें की जाएँ?
कोई भी अच्छा लेखक कभी-भी भाषा, शब्द-चयन और शब्द-विन्यास से कोई समझौता नहीं
करता| बरसों पहले धर्मवीर भारती, प्रेमचंद, शरतचंद्र जैसे कई महान लेखकों की लेखनी
ने हिंदी को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया है| पर आज खुद को युवा-लेखक कहने वाले नए
लेखक अपनी लेखनी से हिंदी को ऐसे पाताल में भेजने की ओर बढ़ रहे हैं जहां हिंदी को
गाली से जोड़कर देखा जाने लगेगा| अगर बात करें शैक्षणिक दृष्टिकोण से तो शोधपत्र और
संदर्भ-किताबों में हिंदी में लिखी किताबों की उपलब्धता वैसे ही कम है| और जो
किताबें उपलब्ध है भी तो उन्हें अंग्रेजी में लिखी किताबों के मुकाबले किसी भी
मानक पर अच्छा नहीं माना जाता| ऐसे में बचता है तो हमारा हिंदी-साहित्य| अगर यहां
भी इस तरह भाषाई-पतन जारी रहा तो आने वाले समय में हिंदी सिर्फ कबीरदास से धर्मवीर
भारती तक सिमट कर इतिहास बनकर रह जायेगी|
स्वाती सिंह
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