बिरसा मुंडा 19 वीं सदी के प्रमुख आदिवासी जननायक थे। उनके नेतृत्व में मुंडा आदिवासियों ने 19वीं सदी के अंतिम वर्षों में उलगुलान नामक एक बड़े आंदोलन को अंजाम दिया था। बिरसा ने अपना पूरा जीवन अपनी जन्मभूमि और आदिवासी समाज के उत्थान के नाम कर दिया और भारतीय इतिहास में मुंडा विद्रोह एक न भूलने वाला आंदोलन है।
झारखंड
के बोकारो जिले में था मेरे चाचा का घर। बचपन में अक्सर मैं मम्मी-पापा के साथ
बोकारो जाया करती थी। पापा बताते थे कि बोकारो को स्टील सिटी के नाम से भी जाना
जाता है। चाचा के घर से पहले एक जगह थी- नया मोड़। वहां एक आदमकद मूर्ति हमेशा मेरा
ध्यान खींचती। यह मूर्ति एक ग्रामीण की लगती थी, जो धोती
पहने, अपने सिर पर पगड़ी बांधे और हाथ में हथौड़े जैसा औजार
लिए था। वह आगे की ओर बढ़ता हुआ दिखता। उसका एक पैर हवा में अगला कदम रखता हुआ और
पिछला कदम ज़मीन को छोड़ कर आगे बढ़ता हुआ प्रतीत लगता।
वह मूर्ति देख कर ऐसा लगता जैसे चलते-फिरते गांव के किसी आदमी को सीमेंट लगा कर वहीं स्थिर कर दिया गया हो और सीमेंट के हटते ही वह आगे की ओर चल पड़ेगा। मैं जब पापा से पूछती कि यह कौन हैं, तो पापा कहते कि यह बिरसा मुंडा है। मैं सोचती कि ‘यह बिरसा मुंडा कौन हैं? लगता है कोई जादूगर होंगे, जिन्होंने खुद को जादू से मूर्ति बना लिया है।’ उस समय बिरसा मुंडा मेरे लिए किसी कहानी के नायक लगते, जिनके पास अपार जादुई शक्तियां थीं।
एक बार चाचा जी मेरे घर आए। तब मैं ग्यारहवीं में थीं। मैंने उनसे पूछा कि चाचा नया मोड़ पर बिरसा का जादू खत्म हो गया या अभी-भी वो अपने जादू से मूर्ति ही बना हुआ है? सभी लोग मेरी बात सुन कर हंस पड़े। चाचा ने कहा कि बिरसा का जादू कभी खत्म नहीं हो सकता क्योंकि लोग उन्हें भगवान की तरह पूजते है। मुझे लगा कि कहीं ऐसा न हो कि और किसी सवाल से मैं एक बार फिर मजाक का पात्र न बन जाऊं। इसलिए मैंने तय किया कि मैं खुद ही बिरसा का पता लगाऊंगी।
एक
दिन स्कूल में मैंने इतिहास की शिक्षिका से बिरसा के बारे में पूछा। उन्होंने
बताया कि बिरसा मुंडा 19 वीं सदी के प्रमुख आदिवासी जननायक
थे। उनके नेतृत्व में मुंडा आदिवासियों ने 19वीं सदी के
अंतिम वर्षों में उलगुलान नामक एक बड़े आंदोलन को अंजाम दिया था। झारखंड में रांची
के उलीहातू गांव में 15 नवंबर 1875 में
बिरसा मुंडा का जन्म हुआ। बिरसा की माता का नाम सुगना और पिता का नाम करमी हातू
था। बिरसा बचपन से ही बेहद विचारशील और संवेदनशील थे। भारतीयों पर ब्रिटिश शासकों
के अत्याचार से उनका मन कचोटता रहता था।
साल्गा
गांव में बिरसा ने अपनी प्रारंभिक पढ़ाई की और बाद में वे चाईबासा इंग्लिश स्कूल
में पढ़ने चले गए। जर्मन ईसाई के इस स्कूल में बिरसा दाउद के नाम से उनका दाखिला
करवाया गया क्योंकि उनके माता-पिता ने ईसाई धर्म अपना लिया था। बिरसा को अपनी भूमि
और संस्कृति से गहरा लगाव था।
उन दिनों मुंडा आदिवासियों की भूमि छीन ली गई थी। पादरी डॉ नोट्रेट ने मुंडा समाज के लोगों को यह प्रलोभन दिया कि अगर वे लोग ईसाई बने रहे, तो उन्हें उनकी ज़मीन वापस दे दी जाएगी। काफी समय बीतने के बाद भी जब उन्हें अपनी ज़मीन वापस नहीं मिली, तो मुंडा सरदारों ने भूमि वापसी के लिए आंदोलन कर दिया। दुर्भाग्यवश इस आंदोलन को अंग्रेजों ने दबा दिया। इससे बिरसा को गहरा आघात पहुंचा और उन्होंने बगावत कर दी, जिसके बाद उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया। अपने समुदाय की दुर्दशा, सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक अस्मिता को खतरे में देख कर उनके मन में क्रांति की भावना जाग उठी। उन्होंने गांव-गांव घूम कर 'अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज (हमारे देश में हमार शासन) का बिगुल फूंका।
उन दिनों मुंडा आदिवासियों की भूमि छीन ली गई थी। पादरी डॉ नोट्रेट ने मुंडा समाज के लोगों को यह प्रलोभन दिया कि अगर वे लोग ईसाई बने रहे, तो उन्हें उनकी ज़मीन वापस दे दी जाएगी। काफी समय बीतने के बाद भी जब उन्हें अपनी ज़मीन वापस नहीं मिली, तो मुंडा सरदारों ने भूमि वापसी के लिए आंदोलन कर दिया। दुर्भाग्यवश इस आंदोलन को अंग्रेजों ने दबा दिया। इससे बिरसा को गहरा आघात पहुंचा और उन्होंने बगावत कर दी, जिसके बाद उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया। अपने समुदाय की दुर्दशा, सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक अस्मिता को खतरे में देख कर उनके मन में क्रांति की भावना जाग उठी। उन्होंने गांव-गांव घूम कर 'अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज (हमारे देश में हमार शासन) का बिगुल फूंका।
बिरसा
ने अंग्रेजों के खिलाफ उलगुलान नामक विद्रोह का आह्वान किया। धीरे-धीरे आदिवासियों
को बिरसा पर भरोसा होने लगा और उनका यह विद्रोह आंदोलन बन छोटानागपुर तक फैल गया।
इस विद्रोह ने अंग्रेजी हुकूमत को झकझोर दिया। 22 अगस्त 1895
में अंग्रेजों ने बिरसा मुंडा को किसी भी तरह गिरफ्तार करने का
निर्णय किया। उसी वर्ष उन्हें गिरफ्तार कर हजारीबाग केंद्रीय कारागार में डाल दिया
गया। उन्हें दो साल कारावास की सजा दी गई। इस दौरान बिरसा के शिष्यों ने
अकाल पीड़ित जनता की लगातार सहायता की। बिरसा को अकालग्रस्त इलाके के लोग ‘धरतीबाबा’ के नाम से पूजने लगे।
साल 1897 से 1900 तक के बीच मुंडा समुदाय और अंग्रेजों के बीच युद्ध होते रहे। इस दौरान कई निर्दोष लोगों ने अपनी जान गंवार्इं। बिरसा को काफी समय तक पुलिस पकड़ नहीं पाई पर एक गद्दार की वजह से 3 मार्च 1900 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्होंने अपने जीवन की अंतिम सांसें 9 जून 1900 को रांची के कारागार में लीं। बिरसा मुंडा की समाधि रांची में डिस्टिलरी पुल के पास है। उनकी स्मृति में बिरसा मुंडा केंद्रीय कारागार व बिरसा मुंडा हवाईअड्डा भी बनाया गया है।
बिरसा मुंडा ने अपना पूरा जीवन अपनी जन्मभूमि और आदिवासी समाज के उत्थान के नाम कर दिया और भारतीय इतिहास में मुंडा विद्रोह एक न भूलने वाला आंदोलन है। अंग्रेजों के खिलाफ उनका विद्रोह झारखंड का सबसे बड़ा और अंतिम रक्तप्लावित जनजातीय विप्लव था, जिसमें हजारों की संख्या में मुंडा आदिवासी शहीद हुए।
स्वाती सिंह
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