सोमवार, 29 दिसंबर 2014

'सुशासन-दिवस' पर तकनीकी भाषण

25 दिसंबर 2014 को भारत सरकार की तरफ से 'भारतीय भारतीय सुशासन दिवस' घोषित किया गया।25 दिसंबर जन्मदिवस है-जीसस क्राइस्ट,मदन मोहन मालवीय,अटल बिहारी वाजपेयी,मोहम्मद अली जिन्ना और नवाज़ शरीफ़ का।यूँ तो भारतीय समाज के परिपेक्ष्य में सुशासन की अवधारणा जितनी नयी प्रतीत होती है,इसकी जड़े उतनी ही पुरानी और गहरी है।प्राचीन काल से ही हर शासक और हर एक बादशाह ने इसे अपनी सत्ता में लागू करना चाहा है। उन्हें सत्ता चाहे विरासत में मिली हो या फिर उन्होंने युद्ध में जीती हो लेकिन उनकी ख्वाहिश सिर्फ एक रही- सुशासन। क्योंकि ये सुशासन ही है जो किसी सत्ता की वैलिडिटी और डेवलपमेंट को वारेंटी प्रदान करता है। सुशासन की इसी महत्ता को ध्यान में रखते हुए,इस संगोष्ठी और भाषण-प्रतियोगिता का आयोजन किया गया-जिसमें सुशासन के लिए तकनीक और प्रौधिकी के उपयोग को केंद्रित किया गया है।  
 
सुशासन क्या है?
        अब सवाल है कि एक सुशासन के मानक क्या हो?जिनके आधार पर सुशासन को परिभाषित किया जाए?संयुंक्त राष्ट्र में सुशासन के कुल आठ मानक बताये है:-
1.विधि का शासन
2.समानता
3.भागीदारी
4.अनुक्रियता
5.बहुमत
6.प्रभावशाली दक्षता
7.पारदर्शिता
8.उत्तरदायित्व
      जिस शासन में,किसी व्यक्ति-विशेष का नहीं बल्कि विधि का शासन हो। जहां समानता हो अवसरों की, न्याय की और जिंदगी जीने की। जिस देश में शासन में किसी एक की नही हर जन की भागीदारी हो,अनुक्रियता हो और नागरिकों का बहुमत हो। शासन में प्रभावशाली दक्षता हो, पारदर्शिता हो, किसी विशेष समूह के समक्ष नहीं नागरिक और शासन-प्रणाली में और जहां उत्तरदायित्व एक का नहीं सबका हो, ये गुण जिस शासन में हो, उस देश का शासन 'सुशासन' कहलाता है।
         
तकनीक क्या है?
        अब बारी आती है टेक्नोलॉजी की। यदि हम तकनीक को सिर्फ रसायन,भौतिकी,और जीव विज्ञान की टर्मिनोलॉजी में परिभाषित करते है तो ये एक तकनीक को परिभाषित करने के का पारम्परिक दृष्टिकोण कहलाएगा। क्योंकि तकनीक का तातपर्य मानव-ज्ञान और उपलब्ध संसाधनो के उपयोग कर  किसी समस्या का समाधान करने और अपनी जरूरतो की पूर्ति करने या प्रयोगशाला में भौतिक चीज़ों की ख़ोज करना मात्र नहीं है। कार्य-कारण को पूर्ण तार्किकता से प्रस्तुत करना 'तकनीक' कहलाता है और इस तकनीक शब्द का प्रयोग हम उन सभी विषयों के लिए करते है जहां हम किसी भी समस्या का समाधान तार्किक सोच या तर्कों के आधार पर करते है।

Innovation क्या है?
Innovation यानी, नवाचार। जिसका शाब्दिक अर्थ है-नई खोज।
       एक नयी खोज तभी एक सफल सोच बन सकती है जब इसे हर इंसान समझ सके और इसे लागू कर सके। जिनके कुछ मूल तत्वों पर प्रकाश डालना ज़रूरी है, क्योंकि कोई भी सच या अच्छी चीज़ तभी सफल हो सकती है जब वह देशकाल और वातावरण के अनुकूल हो।
1.अडोप्टर्स की समझ
2.संचार चैनल
3.समय
4.सामाजिक व्यवस्था।
सुशासन के सन्दर्भ में,जबतक किसी नवाचार को देश के अंतिम नागरिक तक ना पहुंचे तबतक सुशासन की कल्पना भी अधूरी है। क्योंकि सुशासन अपने आप में एक नवाचार है,और जब हम इस नवाचार की बात करते है तो उतनी ही सक्रियता से इसका लागू होना भी आवश्यक है।

भारत में तकनीकी-विकास:-
* भारत आज तकनीक और विज्ञान के क्षेत्र में दुनिया में एक सशक्त देश के रूप में तो उभर रहा है।
लेकिन वहीँ दूसरी ओर, महिलाओं के लिए इसे जी-20 देशों में सबसे खतरनाक देश घोषित किया गया।

*भारत में हर साल, लाखों- करोड़ों की संख्या में देश के युवा डॉक्टर और इंजीनीयर बनते है,लेकिन इसके बावज़ूद कृषि, दवाओं तथा तकनीकी-विकास सम्बन्धी चीज़ों का निर्यात हम विदेशों से करते है।

*आरटीआई को भारत इ-गवर्नेंस का एक सशक्त हथियार माना जा रहा है, वहीं दूसरी ओर, आरटीआई एक्टिविस्टों की हत्या की घटनाएं दिन-दुगनी और रात-चौगुनी की गति से बढ़ रही है।

*सीसीटीवी कैमरे और न्यू मीडिया की तकनीकी क्रांति तो कई साल पहले भारत में आ गई,लेकिन इसके बावज़ूद, आशाराम बापू,निठारी-हत्याकांड और निर्मल बाबा जैसे तमाम लोगों के गोरख-धंधे फलते-फूलते रहे और देश को खोखला करते रहे। उससे पहले,ना कोई सीसीटीवी इनकी करतूतों की रिकॉर्डिंग कर पाया और ना न्यू-मीडिया के किसी जर्नलिस्ट की कलम इनकी तरफ घूम पायी।

*भारत में 4-जी नेट की स्पीड तो आ गई,लेकिन 2-जी घोटाले के साथ-साथ चारा-घोटाले भी आ गए।

*भारत में अगर बात हो तकनीकी-विकास और हम भारतीय युवाओं के हाथ में दिखते स्मार्टफोन और बैग में टंगे लैपटॉप की बात ना करें,तो कुछ ख़ालीपन महसूस होता है। भारत में आज हर दस युवाओं में से आठ के पास स्मार्टफोन देखने को मिल जाता है और लगभग छः के बैग में लैपटॉप,लेकिन इन युवाओं में से अधिकांश के लैपटॉप और स्मार्टफोन का ज़्यादातर इस्तेमाल नौकरी डॉट कॉम और अन्य साइट्स पर नौकरी खोजते हुए बीतता है।

ये तो चन्द उदाहरण थे,हमारी चमकती तकनीक और जमीनी हक़ीक़त की। जो इस सुनहरी चमक के पीछे का अँधेरे को दिखाती है।
25 दिसंबर को, प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने बनारस के विकास के लिए कुल 1300 करोड़ रूपये दिए। इसके साथ ही,बिजली की खपत कम करने के लिए सोलर प्लांट,लोको शेड,आटोमेटिक स्टोर तथा अन्य उच्च तकनीकों के माध्यम से सुशासन और विकास गति को aceelerate करने के लिए नयी योजनाओं को लागू करने की बात कही।
               लेकिन अगर मैं याद दिलाऊं,हाल में हुई बनारस की एक महिला के साथ छेड़खानी की घटना जिसका विरोध करने पर उसे जला दिया गया। तो आप क्या कहेंगे? क्या यही है, हमारा तकनीकी विकास?

आज हम तकनीक में तो प्रगति कर रहे है लेकिन वहीं दूसरी ओर,व्यवहारिक परिपेक्ष्य में एक फांक देखने को मिलती है। जो किसी भी देश में सुशासन लागू होने में सबसे बड़ी रुकावट है।

स्वाती सिंह

सोमवार, 1 दिसंबर 2014

महिला सशक्तिकरण के नाम एक और बाज़ारू-चौपाल

      पिछले रविवार को वाराणसी में, एक 'महिला सशक्तिकरण केंद्र' के शुभारम्भ समारोह में जाने का मौका मिला। इस केंद्र की स्थापना वाराणसी के एक नामी एनजीओ की ओर से हुई। इस शुभारम्भ कार्यक्रम में, शहर के कई प्रतिष्ठित हस्तियों में भागीदारी ली। लगभग चार घंटे तक चलने वाले इस कार्यक्रम में, इन सभी माननीयों हस्तियों ने 'महिला-सशक्तिकरण' पर अपने-अपने विचार प्रस्तुत किये।             
        लेकिन अब प्रश्न आता है कि, आखिर ये विचार क्या थे? क्या इन विचारों का वर्तमान की ज़मीनी हक़ीक़त से दूर-दूर तक कोई भी नाता था? कहीं ये विचार किसी किताब से टीपी तो नहीं गई? ये विचार कितने तार्किक थे? इन सब प्रश्नों के जवाब मिल पाना मुश्किल है। क्योंकि हर बार की तरह ये सभी विचारक अपने-अपने पेड़ पर चढ़कर 'महिला-सशक्तिकरण' पर बाग़ देते नज़र आये।      
         दलित-महिलाओं पर लिखने वाली लेखिका ने, पीड़िताओं में दलितों का बहुमत बताया तो वहीं, जिला प्रोबेशन अधिकारी में आर्थिक-तंगी को शोषण का कारण करार दे दिया। अब इन विचारकों व कार्यक्रम के वक्ताओं पर प्रश्न उठता है कि, पीड़ित को पीड़ित के रूप में देखना ज़रूरी है या किसी वर्ग व जाति के आधार पर? और जहां तक रही बात आर्थिक-तंगी की तो क्या अगर आर्थिक रूप से सशक्त होना अगर हर समस्या का समाधान होता तो 'अरुणा राय' जैसे केस हमारे सामने नहीं होते।       
       महिला सशक्तिकरण आज एक ऐसा मुद्दा बन चुका है, जिसपर हर कोई अपना बिना कुछ जाने-समझे हर कोई अपना मत देते फिरता है। इस सबमें ये बेहद ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि, महिला-सशक्तिकरण जैसे गम्भीर मुद्दे पर काम करने का आगाज़ तो बेहद ज्वलन्त और सकारात्मकता से शरू हुआ। लेकिन जब इसपर स्वयंसेवी संगठनों और समाज के तथाकथित बुद्धिजीवी व जागरूक वर्ग ने अपने स्वार्थ की रोटियाँ इस आग पर सेकना शुरू किया,तो वो सकारात्मकता अब दिन-प्रतिदिन ख़ाक में तब्दील होती नज़र आ रही है।   
       हमारे भारतीय समाज में, आज महिला-सशक्तिकरण के परिपेक्ष्य में एक ऐसा इंद्रधनुष देखने को मिल रहा है, जहां के उदभव की चमक सशक्त-महिला से शुरू होती दिखाई पड़ रही है लेकिन इस शुरुआत का अंत एक अन्धकार में जा कर गुम हो जाता है। जहां इसके प्रकाश की सबसे ज़्यादा जरूरत है, क्योंकि यहीं इस आधी आबादी की सर्वाधिक आबादी निवास करती है।   
         आज हमारे समाज में ऐसे केंद्रों की आवश्यकता है लेकिन इससे ज़्यादा आवश्यकता इनकी सूचना उस वर्ग तक पहुंचना आवश्यक है,जहां इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। अगर ऐसे कार्यक्रमों में समाज के एक विशेष अभिजात वर्ग के साथ-साथ ही उस वर्ग की भी भागीदारी उसी संख्या में हो जिनके सशक्त होने की बात की जा रही है तो ये होगी इस सकारात्मक आगाज़ का पहला सशक्त बिगुल।      
       वरना 'महिला सशक्तिकरण' के नाम पर आए दिन सजने वाली इन बाज़ारू चौपालों से सिर्फ अपने स्वार्थ की रोटियाँ ही सेकी जाएंगी।   
       अब आपने कागज़ से बनी जंजीर पर महिला-सम्बन्धी समस्याओं को लिख कर तो फाड़ दिया और कहा कि, महिला आज़ाद हो गई। अगर ये सब इतना आसान होता तो शायद आज हमारे समाज में इन केंद्रों के नाम वाले किसी भी आडम्बर का पनप पाना ना मुमकिन होता।

स्वाती सिंह