सोमवार, 1 दिसंबर 2014

महिला सशक्तिकरण के नाम एक और बाज़ारू-चौपाल

      पिछले रविवार को वाराणसी में, एक 'महिला सशक्तिकरण केंद्र' के शुभारम्भ समारोह में जाने का मौका मिला। इस केंद्र की स्थापना वाराणसी के एक नामी एनजीओ की ओर से हुई। इस शुभारम्भ कार्यक्रम में, शहर के कई प्रतिष्ठित हस्तियों में भागीदारी ली। लगभग चार घंटे तक चलने वाले इस कार्यक्रम में, इन सभी माननीयों हस्तियों ने 'महिला-सशक्तिकरण' पर अपने-अपने विचार प्रस्तुत किये।             
        लेकिन अब प्रश्न आता है कि, आखिर ये विचार क्या थे? क्या इन विचारों का वर्तमान की ज़मीनी हक़ीक़त से दूर-दूर तक कोई भी नाता था? कहीं ये विचार किसी किताब से टीपी तो नहीं गई? ये विचार कितने तार्किक थे? इन सब प्रश्नों के जवाब मिल पाना मुश्किल है। क्योंकि हर बार की तरह ये सभी विचारक अपने-अपने पेड़ पर चढ़कर 'महिला-सशक्तिकरण' पर बाग़ देते नज़र आये।      
         दलित-महिलाओं पर लिखने वाली लेखिका ने, पीड़िताओं में दलितों का बहुमत बताया तो वहीं, जिला प्रोबेशन अधिकारी में आर्थिक-तंगी को शोषण का कारण करार दे दिया। अब इन विचारकों व कार्यक्रम के वक्ताओं पर प्रश्न उठता है कि, पीड़ित को पीड़ित के रूप में देखना ज़रूरी है या किसी वर्ग व जाति के आधार पर? और जहां तक रही बात आर्थिक-तंगी की तो क्या अगर आर्थिक रूप से सशक्त होना अगर हर समस्या का समाधान होता तो 'अरुणा राय' जैसे केस हमारे सामने नहीं होते।       
       महिला सशक्तिकरण आज एक ऐसा मुद्दा बन चुका है, जिसपर हर कोई अपना बिना कुछ जाने-समझे हर कोई अपना मत देते फिरता है। इस सबमें ये बेहद ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि, महिला-सशक्तिकरण जैसे गम्भीर मुद्दे पर काम करने का आगाज़ तो बेहद ज्वलन्त और सकारात्मकता से शरू हुआ। लेकिन जब इसपर स्वयंसेवी संगठनों और समाज के तथाकथित बुद्धिजीवी व जागरूक वर्ग ने अपने स्वार्थ की रोटियाँ इस आग पर सेकना शुरू किया,तो वो सकारात्मकता अब दिन-प्रतिदिन ख़ाक में तब्दील होती नज़र आ रही है।   
       हमारे भारतीय समाज में, आज महिला-सशक्तिकरण के परिपेक्ष्य में एक ऐसा इंद्रधनुष देखने को मिल रहा है, जहां के उदभव की चमक सशक्त-महिला से शुरू होती दिखाई पड़ रही है लेकिन इस शुरुआत का अंत एक अन्धकार में जा कर गुम हो जाता है। जहां इसके प्रकाश की सबसे ज़्यादा जरूरत है, क्योंकि यहीं इस आधी आबादी की सर्वाधिक आबादी निवास करती है।   
         आज हमारे समाज में ऐसे केंद्रों की आवश्यकता है लेकिन इससे ज़्यादा आवश्यकता इनकी सूचना उस वर्ग तक पहुंचना आवश्यक है,जहां इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। अगर ऐसे कार्यक्रमों में समाज के एक विशेष अभिजात वर्ग के साथ-साथ ही उस वर्ग की भी भागीदारी उसी संख्या में हो जिनके सशक्त होने की बात की जा रही है तो ये होगी इस सकारात्मक आगाज़ का पहला सशक्त बिगुल।      
       वरना 'महिला सशक्तिकरण' के नाम पर आए दिन सजने वाली इन बाज़ारू चौपालों से सिर्फ अपने स्वार्थ की रोटियाँ ही सेकी जाएंगी।   
       अब आपने कागज़ से बनी जंजीर पर महिला-सम्बन्धी समस्याओं को लिख कर तो फाड़ दिया और कहा कि, महिला आज़ाद हो गई। अगर ये सब इतना आसान होता तो शायद आज हमारे समाज में इन केंद्रों के नाम वाले किसी भी आडम्बर का पनप पाना ना मुमकिन होता।

स्वाती सिंह             

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