मंगलवार, 27 सितंबर 2016

पितृसत्ता से कितनी आजाद हैं महिलाएं?

पंछी बनूं उड़ती फिरूं मस्त गगन में, आज मैं आजाद हूं दुनिया के गगन में............1956 में आई फिल्म चोरी-चोरी का यह गीत स्त्री अस्तित्व की पहचान का गीत है, जिसमें नायिका पितृसत्ता को ललकारती हुई सभी बंधनों से मुक्त हो जाना चाहती है। आज छह दशक बाद न्यूज-चैनलों, पत्रिकाओं, अखबारों और संगोष्ठियों में इस्तेमाल किए जाने वाले शब्द पितृसत्ताको सुनते ही अगर आपके मन में इसके अर्थ और तात्पर्य को लेकर सवाल कौंधने लगता है, तो यह लेख आपके लिए है। अक्सर हम अपनी बातों में ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, जिनके वास्तविक अर्थ से हम अच्छी तरह वाकिफ नहीं होते। 



  नारी-सशक्तीकरण के इस दौर में पितृसत्ताएक ऐसा शब्द है, जिसके निहितार्थ को समझना आज के दौर की युवतियों को समझना जरूरी है। दरअसल, यह बहेलिये के उस जाल की तरह है, जिसमें चिड़िया जरूर फंसती है। और फिर कभी निकल नहीं पातीं। मगर पितृसत्ता का जाल तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है, जिसमें औरतें ताउम्र कैद रहती हैं। कभी परिवार की मर्यादा के नाम पर, तो कभी समाज का भय दिखा कर, तो कभी उसे पुरुषों से कमजोर बता कर। यह कुल मिला कर नारी को पहले पिता और भाई फिर पति और अंत में बेटे के अधीन बना कर उसकी इच्छाओं-सपनों और अधिकारों को कुचलने का सदिया पुराना कुचक्र है। जिससे आज तक नहीं तोड़ सकी हैं भारतीय महिलाएं। 
 
हमारे समाज में कई तरह की असमानताएं हैं। स्त्री और पुरुष के बीच असमानता भी उन में से एक है। आम तौर पर पितृसत्ता का प्रयोग इसी असमानता को बनाए रखने के लिए होता है। नारीवादी अध्ययन का एक नया क्षेत्र है। इसलिए नारीवादी विमर्श का पहला काम यही है कि महिलाओं को अधीन करने वाली जटिलताओं और दांवपेच को पहचाना जाए और उसे एक उचित नाम दिया जाए। बीसवीं सदी के आठवें दशक के मध्य से नारीवादी विशेषज्ञों ने पितृसत्ताशब्द का प्रयोग किया। 

    

 क्या है पितृसत्ता? 



   पितृसत्ता अंग्रेजी के पैट्रियार्की (Patriarchy) का हिंदी समानार्थी है। अंग्रेजी में यह शब्द यूनानी शब्दों पैटर (Pater)  और आर्के (Arch)  को जोड़ कर बनाया गया है। पैटर का अर्थ पिता और आर्के का अर्थ शासन होता है। इस तरह पैट्रियार्की का शाब्दिक अर्थ है-पिता का शासन। पितृसत्ता जिसके जरिए अब संस्थाओं के एक खास समूह को पहचाना जाता है, इसे सामाजिक संरचना और क्रियाओं की एक ऐसी व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसमें पुरुषों का वर्चस्व रहता है और वे महिलाओं का निरंतर शोषण और उत्पीड़न करते है।’ 
   
पितृसत्ता को एक व्यवस्था के रूप में देखना बेहद जरूरी है क्योंकि इससे पुरुष और स्त्री के बीच शक्ति व हैसियत में असमानता के लिए जैविक निर्धारणवाद के मत को खारिज करने में सहायता मिलती है। इसके साथ ही, यह भी स्पष्ट होता है कि स्त्री या पुरुष का वर्चस्व कोई व्यक्तिगत घटना नहीं, बल्कि यह एक व्यापक संरचना का अंग है। 

     

क्या महिलाएं बपौती हैं


  गर्डा लर्नर पितृसत्ता को परिभाषित करते हुए कहती हैं कि पितृसत्ता, परिवार में महिलाओं और बच्चों पर पुरुषों के वर्चस्व की अभिव्यक्ति है। यह संस्थागतकरण व सामान्य रूप से महिलाओं पर पुरुषों के सामाजिक वर्चस्व का विस्तार है। इसका अभिप्राय है कि पुरुषों का समाज के सभी महत्त्वपूर्ण सत्ता प्रतिष्ठानों पर नियंत्रण है। महिलाएं ऐसी सत्ता तक अपनी पहुंच से वंचित रहती है।वे यह भी कहती हैं कि इसका यह अर्थ नहीं है कि महिलाएं या तो पूरी तरह शक्तिहीन हैं या पूरी तरह अधिकारों, प्रभाव और संसाधनों से वंचित हैं।इसका अर्थ यह भी नहीं है कि हर पुरुष हमेशा वर्चस्व की और हर महिला हमेशा अधीनता की स्थिति में ही रहती है बल्कि जरूरी बात यह है कि इस व्यवस्था, जिसे हमने पितृसत्ता का नाम दिया है, के तहत यह विचारधारा प्रभावी रहती है कि पुरुष स्त्रियों से अधिक श्रेष्ठ हैं और महिलाओं पर उनका नियंत्रण है और होना चाहिए। यहां महिलाओं को पुरुषों की संपत्ति के रूप में देखा जाता है।  


     महिलाओं की मुखरता से डरते हैं पुरुष 


  यह सत्तर के दशक की बात है, जब अमेरिका में वियतनाम युद्ध के विरोध में और नागरिक अधिकारों के लिए छेड़े गए आंदोलनों में महिलाओं ने भी बड़ी संख्या में हिस्सा लिया था। उन महिलाओं ने पाया कि आंदोलन में शांति, न्याय और समानता की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले साथी पुरुषों का उनके प्रति जो व्यवहार है, वह आम पुरुषों से अलग है। यह वे महिलाएं थीं जो अपने लिए निर्धारित कर दी गर्इं पारंपरिक भूमिकाओं के दायरों में सीमित नहीं रहना चाहती थीं। वे यौन-नैतिकता से संबंधित रूढ़ियों को उखाड़ फेंकने की बात कर रहीं थीं, पर उनकी मुखरता पुरुषों को हजम नहीं हो पा रही थी। वे न केवल युद्ध से परे कर दी गर्इं बल्कि वियतमान-युद्ध विरोधी मुहिम का झंडा थामे संगठन के नेतृत्व ने उनसे कहा कि आंदोलन में स्त्रियों को पुरुषों के पीछे रहना चाहिए। वहां के कड़वे अनुभवों से वे इस नतीजे पर पहुंचीं कि घर हो या बाहर, पुरुष शोषक और स्त्रियां शोषित के रूप में है। कोई दो राय नहीं कि महिलाओं की मुखरता से पुरुष आज भी डरते हैं। 

    पहला नियंत्रण प्रजनन पर



   पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्रियों के जीवन के जिन पहलुओं पर पुरुषों का नियंत्रण रहता है, उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष उनकी प्रजनन क्षमता है। गर्डा लर्नर के अनुसार, महिलाओं के अधीनीकरण की तह में यह सबसे प्रमुख कारण है। स्त्री की प्रजनन क्षमता को शुरू-शुरू में कबीले का संसाधन माना जाता था, जिससे वह स्त्री जुड़ी होती थी। बाद में जब अभिजात शासक वर्गों का उदय हुआ, तो यह शासक समूह के वंश की संपत्ति बन गई। सघन कृषि के विकास के साथ, मानव श्रम का शोषण और महिलाओं का यौन-नियंत्रण एक-दूसरे से जुड़ गए। इस तरह स्त्री की यौनिकता पर नियंत्रण की आवश्यकता पैदा हुई। यह नियंत्रण निजी संपत्ति के उदय और वर्ग आधारित शोषण के विकास के साथ तेज होता चला गया। यह दौर भी बदला नहीं। आज भी ग्रामीण परिवेश में वंश को चलाने के लिए नारी को प्रजनन का साधन भर ही माना जाता है। आधुनिक समाज भी इस विचार से अछूता नहीं।  

      
      श्रमशक्ति को भी नहीं बख्शा



   पितृसत्ता में स्त्री की यौनिकता पर नियंत्रण के अलावा उसकी उत्पादकता या श्रमशक्ति पर भी नियंत्रण कर लिया जाता है। घर के भीतर और बाहर स्त्रियों पर पुरुषों का अधिकार रहता है और यह फैसला भी उन्हीं के हाथ में रहता है कि महिलाएं घर के बाहर जाकर कहां काम करेंगी। या फिर करेंगी भी या नहीं। जीवन में क्या करना है? किस स्कूल-कालेज में कहां तक पढ़ना है और किस क्षेत्र मे करियर बनाना है या किस के साथ जीना या मरना है? सब कुछ पितृसत्ता से तय होता है। इस स्थिति में श्रमशक्ति पर खुद के नियंत्रण के लिए महिलाओं का आत्मनिर्भर होना कितना जरूरी है, इसे बखूबी समझा जा सकता है।   

   

  विचारधारा का खेल है पितृसत्ता 


विचारधारा के तौर पर पितृसत्ता व्यवस्था के दो पहलू हैं : एक, यह सहमति बनाती है और महिलाओं के पितृसत्ता के बने रहने में मददकरती हैं। सहयोगया मिलीभगतको सहमति के रूप में कई तरीकों से हासिल किया जाता रहा है। दूसरा. उत्पादक संसाधनों तक पहुंच का न होना और परिवार के पुरुष मुखिया पर आर्थिक-निर्भरता, इस तरह सहयोग या सहमति एक तरह से उगलवा ली जाती थी, न कि स्वेच्छा से दी जाती थी। इसलिए यह समझा जाना चाहिए कि पितृसत्ता महज वैचारिक व्यवस्था नहीं है बल्कि उसका एक भौतिक आधार भी है। 

 इस तरह, चारों तरफ से दबाव डाल कर महिलाओं से उनका सहयोग हासिल करना आसान हो जाता है। क्योंकि जब वे इस व्यवस्था का अनुकरण करने लगती हैं, तो उन्हें न केवल वर्गीय सुविधाएं मिलने लगती हैं, बल्कि उन्हें मां-सम्मान तमगों से भी नवाजा जाता है। और जो महिलाएं पितृसत्ता के कायदे-कानूनों व तौर-तरीकों को अपना सहयोग या सहमति नहीं देती हैं, उन्हें पथभ्रष्ट करार दे दिया जाता है। उन्हें बेहया और कुलटा तक कहा जाने लगता है। इसके साथ ही, उन्हें पुरुषों के भौतिक संसाधनों के उपभोग से बेदखल भी किया जाता है।
 
दशकों के नारी विमर्श और आंदोलनों के बाद देर से ही सही, यह भयावह कुचक्र सामने आ गया है। और आधुनिक दौर की नारियां पितृसत्ता के इस जाल को तोड़ कर आजाद हो रही हैं। वे उस आसमान को छू रही हैं, जहां कई बार पुरुष भी पहुंच नहीं पाते। 


स्वाती सिंह 

शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

इस्मत का सेक्सी ‘लिहाफ’

कहां है भारत की वह महान नारी, वह पवित्रता की देवी सीता, जिसके कमल जैसे नाजुक पैरों ने आग के शोलों को ठंडा कर दिया और मीराबाई जिसने बढ़ कर भगवान के गले में बाहें डाल दीं। वह सावित्री जिसने यमदूत से अपने सत्यवान की जीवन-ज्योत छीन ली। रजिया सुल्ताना जिसने बड़े-बड़े शहंशाहों को ठुकरा कर एक हब्शी गुलाम को अपने मन-मंदिर का देवता बनाया। वह आज लिहाफ में दुबकी पड़ी है या फोर्स रोड पर धूल और खून की होली खेल रही थी।’ 



  यह वक्तव्य है लेखिका इस्मत चुगताई उर्फ उर्दू अफसाने की फर्स्ट लेडीका। जिन्होंने महिला सशक्तीकरण की सालों पहले एक ऐसी बड़ी लकीर खींच दी, जो आज भी अपनी जगह कायम है। उनकी रचनाओं में स्त्री मन की जटिल गुत्थियां सुलझती दिखाई देती हैं। महिलाओं की कोमल भावनाओं को जहां उन्होंने उकेरा, वहीं उनकी गोपनीय इच्छाओं की परतें भी खोलीं। इस्मत ने समाज को बताया कि महिलाएं सिर्फ हाड़-मांस का पुतला नहीं, उनकी भी औरों की तरह भावनाएं होती हैं। वे भी अपने सपने को साकार करना चाहती हैं। 

 पंद्रह अगस्त, 1915 में उत्तर प्रदेश के बदायूं में जन्मीं इस्मत चुगताई को इस्मत आपाके नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने निम्न मध्यवर्गीय मुसलिम तबके की दबी-कुचली सकुचाई और कुम्हलाई, पर जवान होतीं लड़कियों की मनोदशा को उर्दू कहानियों व उपन्यासों में पूरी सच्चाई से बयान किया है।



   इस्मत चुगताई ने महिलाओं के सवालों को नए सिरे से उठाया, जिससे वे उर्दू साहित्य की सबसे विवादस्पद लेखिका बन गर्इं। उनके पहले औरतों के लिखे अफसानों की दुनिया सिमटी हुई थी। उस दौर में तथाकथित सभ्य समाज की दिखावटी-ऊपरी सतहों पर दिखते महिला-संबंधी मुद्दों पर लिखा जाता था, लेकिन इस्मत ने अपने लेखन से आंखों से ओझल होते महिलाओं के बड़े मुद्दों पर लिखना शुरू किया। उनकी शोहरत उनकी स्त्रीवादी विचारधारा के कारण है। साल 1942 में जब उनकी कहानी लिहाफप्रकाशित हुई तो साहित्य-जगत में बवाल मच गया। समलैंगिकता के कारण इस कहानी पर अश्लीलता का आरोप लगा और लाहौर कोर्ट में मुकदमा भी चला। उस दौर को इस्मत ने अपने लफ्जों में यों बयां किया-

उस दिन से मुझे अश्लील लेखिका का नाम दे दिया गया। लिहाफसे पहले और लिहाफके बाद मैंने जो कुछ लिखा किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया। मैं सेक्स पर लिखने वाली अश्लील लेखिका मान ली गई। ये तो अभी कुछ वर्षों से युवा पाठकों ने मुझे बताया कि मैंने अश्लील साहित्य नहीं, यथार्थ साहित्य दिया है। मैं खुश हूं कि जीते जी मुझे समझने वाले पैदा हो गए। मंटो को तो पागल बना दिया गया। प्रगतिशीलों ने भी उस का साथ न दिया। मुझे प्रगतिशीलों ने ठुकराया नहीं और न ही सिर चढ़ाया। मंटो खाक में मिल गया क्योंकि पाकिस्तान में वह कंगाल था। मैं बहुत खुश और संतुष्ट थी। फिल्मों से हमारी बहुत अच्छी आमदनी थी और साहित्यिक मौत या जिंदगी की परवाह नहीं थी। लिहाफका लेबल अब भी मेरी हस्ती पर चिपका हुआ है। जिसे लोग प्रसिद्धि कहते हैं, वह बदनामी के रूप में इस कहानी पर इतनी मिली कि उल्टी आने लगी। लिहाफमेरी चिढ़ बन गया। जब मैंने टेढ़ी लकीरलिखी और शाहिद अहमद देहलवी को भेजी, तो उन्होंने मुहम्मद हसन असकरी को पढ़ने को दी। उन्होंने मुझे राय दी कि मैं अपने उपन्यास की हीरोइन को लिहाफट्रेड का बना दूं। मारे गुस्सा के मेरा खून खौल उठा। मैंने वह उपन्यास वापस मंगवा लिया। लिहाफने मुझे बहुत जूते खिलाए थे। इस कहानी पर मेरी और शाहिद की इतनी लड़ाइयां हुर्इं कि जिंदगी युद्धभूमि बन गई।

  इस तरह इस्मत को समाज की निर्धारित लेखन-धारा से हट कर लिखने की जुर्रत का खमियाजा सामाजिक, मानसिक और आर्थिक क्षति से भरना पड़ा। इन सबके बावजूद इस्मत ने माफी न मांग कर कोर्ट में लड़ाई लड़ी और जीत हासिल की। उनके भाई मिर्जा अजीम बेग चुगताई प्रतिष्ठित लेखक थे। वे इस्मत के पहले शिक्षक और मेंटरभी रहे। 1936 में जब इस्मत बीए में थीं, लखनऊ के प्रगतिशील लेखक संघ सम्मेलन में शरीक हुई थीं। बीए और बीएड करने वाली वे पहली भारतीय मुसलिम महिला थीं। रिश्तेदारों ने उनकी शिक्षा का विरोध किया तो उन्होंने अपने लेखन की शुरुआत में कुरान के साथ गीता और बाइबिल भी पढ़ी। महिला लेखकों में उनकी जगह पूरे उप-महाद्वीप में बहुत ऊंची है। 
  
इस्मत पर प्रारंभिक दौर में हिजाब इम्तियाज अली और डा. रशीद का प्रभाव देखा जा सकता है। वे हमेशा सामंती और कठोर-अत्याचारी आवाजों के विरुद्ध रहीं। उनके पात्रों की तुलना मंटो से की जाती है। उर्दू में मंटो और इस्मत बेमिसाल लेखक हैं। समाज के ठेकेदारों की इन दोनों ने ऐसी-तैसी की।

   इस्मत प्रबुद्ध, निर्भीक, रुढ़िभंजक और प्रगतिशील कथाकार है। उर्दू के आलोचक उनकी जिन कहानियों को सेक्सीकहते हैं, वे सही अर्थ में समाजी लड़खड़ाहटों की कहानियांहै। उनके ऊपर डीएच लारेंस, फ्रायड और बर्नार्ड शॉ का भी प्रभाव है। चोटें, कलियां और छुई-मुई उनके अफसानों के संग्रह हैं, जो उपन्यासों से कहीं अधिक कहानियों में प्रभावशाली है। 


 
स्त्रीवादी विचार उनके यहां तब देखने को मिला, जब इस उपमहाद्वीप में उसका आगमन नहीं हुआ था। टेढ़ी लकीरको उर्दू उपन्यासों में अच्छा दर्जा मिला। कागजी है पैरहनसंस्मरण है और दोजखनाटकों का संकलन। उन्होंने अपनी और मुसलमान, दोनों की छवि तोड़ी। ऐतिहासिक उपन्यास एक कतरा खूनमें हुसैन के नेतृत्व में कर्बला के मैदान में हक के लिए लड़ी गई लड़ाई है, जहां उनकी आवाज इंसानियत की आवाज है, जो आज कम सुनाई देती है।

  इस्मत ने आज से करीब सत्तर साल पहले पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों के मुद्दों को स्त्रियों के नजरिए से कहीं चुटीले और कहीं संजीदा ढंग से पेश करने का जोखिम उठाया। उनके अफसानों में औरतें अपने अस्तित्व की लड़ाई से जुड़े मुद्दे उठाती हैं।

  साहित्य और समाज में चल रहे स्त्री विमर्श को इस्मत आपा ने आज से सत्तर साल पहले ही प्रमुखता दी थी। इससे पता चलता है कि उनकी सोच अपने समय से कितनी आगे थी। उन्होंने अपनी कहानियों में स्त्री चरित्रों को बेहद संजीदगी से उभारा। इसी कारण उनके पात्र जिंदगी के बेहद करीब नजर आते हैं। स्त्रियों के सवालों के साथ ही उन्होंने समाज की कुरीतियों अन्य पात्रों को भी बखूबी पेश किया। उनके सभी अफसानों में करारा व्यंग्य मौजूद है।

उनकी पहली कहानी गेंदा अपने दौर की सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका साक़ीमें 1949 में छपी। पहला उपन्यास जिद्दी 1941 में आया। उन्होंने अनेक फिल्मों की पटकथा लिखी। फिल्म जुगनू में अभिनय भी किया। उनकी पहली फिल्म छेड़छाड़ 1943 में आई। इस्मत कुल 13 फिल्मों से जुड़ी रहीं। उनकी आखिरी फिल्म गर्म हवा (1973) को कई पुरस्कार मिले।

  कोई दो राय नहीं कि इस्मत चुगताई स्त्री मन की चितेरी हैं। उन्होंने तत्कालीन दौर की महिलाओं की दशा-दुर्दशा को बखूबी समझा और उसे समाज के सामने पूरी संजीदगी से रखा। वे धर्म-समुदाय से ऊपर उठ कर सोचती थीं। इसलिए वे अपनी रचनाओं में बेहद उदार और बोल्डलगती हैं। रूढ़िवादियों को उनकी रचनाएं अखरती हैं तो क्या? उनकी बला से। 

स्वाती सिंह


शनिवार, 17 सितंबर 2016

मंटो की वो अश्लील औरतें


बीसवीं सदी के शुरुआती दशक में विश्व एक नई  करवट ले रहा था। हिंदुस्तान में भी हलचल थी। गुलामी का दामन उतार फेंकने को आमादा भारत अपने वजूद को हासिल करने की जिद पर अड़ा था। राजनीतिक और आर्थिक  ही नहीं, सामाजिक बदलावों के लिए भी उथल-पुथल मची थी। साहित्य जगत भी नया रूप-रंग अंगीकार करने को उतावला हो रहा था। ऐसे ही झंझावतों वाले दौर में हिंदुस्तानी साहित्य में एक ऐसे सितारे का उदय हुआ, जिसने अपनी कहानियों से अपने समय और समाज को नंगा सच दिखाया। इस लेखक का नाम था- सआदत हसन मंटो। 




मंटो अपना परिचय अपने अंदाज में कुछ यों देते हैं, ‘......मेरे जीवन की सबसे बड़ी घटना मेरा जन्म था। मैं पंजाब के एक अज्ञात गांव समरालामें पैदा हुआ। अगर किसी को मेरी जन्मतिथि में दिलचस्पी हो सकती है तो वह मेरी मां थी, जो अब जीवित नहीं है। दूसरी घटना साल 1931 में हुई, जब मैंने पंजाब यूनिवर्सिटी से दसवीं की परीक्षा लगातार तीन साल फेल होने के बाद पास की। तीसरी घटना वह थी, जब मैंने साल 1939 में शादी की, लेकिन यह घटना दुर्घटना नहीं थी और अब तक नहीं है। और भी बहुत-सी घटनाएं हुईं, लेकिन उनसे मुझे नहीं दूसरों को कष्ट पहुंचा। जैसे मेरा कलम उठाना एक बहुत बड़ी घटना थी, जिससे शिष्टलेखकों को भी दुख हुआ और शिष्टपाठकों को भी।’ 

  मंटो उर्दू के एकमात्र ऐसे कहानी-लेखक हैं, जिनकी रचनाएं जितनी पसंद की जाती हैं, उतनी ही नापसंद भी। और इसमें किसी संदेह की गुंजाइश नहीं है कि उन्हें गालियां देने वाले लोग ही सबसे अधिक उसे पढ़ते हैं। ताबड़तोड़ गालियां खाने और काली सलवार’, ‘बू’, ‘धुआं’, ठंडा गोश्त’, खोल दोजैसी रचनाओं के कारण बार-बार अदालतों के कटघरे में घसीटे जाने पर भी वे बराबर उस वातावरण और उन पात्रों के संबंध में कहानियां लिखते रहे, जिन्हें सभ्यलोग घृणा की नजर  से देखते हैं और अपने समाज में कोई स्थान देने को तैयार नहीं हैं। दरअसल, उनकी कहानियां समाज का पोस्टमार्टम करती हैं। इसलिए पाठक उन्हें पढ़ते हुए विचलित हो जाते हैं।



यह सही है कि जीवन के बारे में मंटो का दृष्टिकोण कुछ अस्पष्ट और एक सीमा तक निराशावादी है। वे अपने युग के बहुत बड़े निंदक थे, लेकिन मानव मनोविज्ञान को समझने और फिर उसके आलोक में झूठ का पर्दाफाश करने की जो क्षमता मंटो को थी, वह निसंदेह किसी अन्य उर्दू लेखक में नहीं है। बेबाक सच लिखने वाले मंटो ने कई ऐसे मुद्दों को छुआ, जिन्हें उस समय के समाज में बंद दरवाज़ों के पीछे दबा कर-छुपा कर रखा जाता था।

 सच सामने लाने के साथ, कहानी कहने की अपनी बेमिसाल अदा और उर्दू जबान पर बेजोड़ पकड़ ने सआदत हसन मंटो को कहानी का बेताज बादशाह बना दिया। मात्र 43 सालों की जिंदगी में उन्होंने 200 से अधिक कहानियां, एक उपन्यास, तीन निबंध-संग्रह, अनेक नाटक और रेडियो व फिल्म पटकथाएं लिखीं।

मंटो की कहानियों में अक्सर अश्लीलता के इल्ज़ाम लगते थे, जिसके जवाब में वे कहते- अगर आपको मेरी कहानियां अश्लील या गंदी लगती हैं, तो जिस समाज में आप रह रहे हैं, वह अश्लील और गंदा है। मेरी कहानियां तो केवल सच दर्शाती हैं।

 भारतीय-साहित्य में नारीवाद की शुरुआत करने वाले लेखकों में मंटो भी शामिल हैं। उन्होंने अपनी कहानियों के जरिए महिलाओं और उनसे जुड़े तमाम पहलुओं को बेबाकी से सामने रखा, जो हमेशा से हमारे सभ्य-समाज की बुनियाद में छिपी घिनौनी सच्चाई रही है। 

मंटो की कहानियों का विश्लेषण करने के बाद, जब हम बात करते हैं उनकी रचनाओं में महिलाओं की, तो उनसे जुड़े मुद्दों को समझने के लिए हम उनकी महिला पात्रों को तीन प्रमुख वर्गों में बांट सकते हैं- लड़की, गृहणी और वेश्या। 

मंटो की लिखी कहानी शरीफन’, ‘ठंडा गोश्तऔर खोल दो’  वस्तुत: बंटवारे व हिंदू-मुसलिम फसादों में महिलाओं की उस स्थिति को दर्शाती है, जब सभ्य समाज की कथित इंसानियत, हैवानियत और वहशीपन में तब्दील होने लगती है। लेखक ने शरीफनऔर सकीनानाम की पात्रों के जरिए उस तस्वीर को सामने रखा, जहां समाज के लिए ये दो लड़कियां नहीं, बल्कि मांस का वो लोथड़ा है, जिनसे शरीफजादे अपने हवस को ठंडा करते हैं। 
 
 वहीं दूसरी ओर, कहानी धुआंके जरिए मंटो ने एक ऐसी सशक्त लड़की की दास्तां बयां की, जो अपने आपको किसी भी मामले में अपने भाई से कम नहीं मानती। औलादमंटो की एक ऐसी कहानी है, जिसमें उन्होंने समाज की बनाई स्त्री का बखूबी चित्रण किया है। यह मुसलिम विवाहिता की ऐसी कहानी है, जो बच्चे की चाहत में पागल हो जाती है और इस चाहत का खाका भी खुद उसकी मां ने खींचा होता है। इस कहानी के जरिए मंटो ने अपने बेबाक अंदाज में महिलाओं के मन में समाज की जमाई उन तमाम परतों को उजागर किया, जो हमारे महिला को महिला साबित करने के लिए ज़रूरी होती है। अगर वे इनके किसी भी एक पहलू पर खरी नहीं उतरतीं, तो यह सभ्य समाज उनके अस्तित्व को अस्वीकार कर देता है।

 मंटो की महिला केंद्रित कहानियों में तीसरा प्रमुख वर्ग है- वेश्या। उन्होंने अपनी कहानियों में वेश्याओं की संवेदनाओं को जिस कदर उकेरा है, वैसा उनसे पहले किसी भी लेखक ने नहीं किया। कहानी काली सलवारकी सुलताना, वेश्याओं की तमाम हसरतों को हमारे सामने रखती है, जिससे यह साबित होता है कि उसका अस्तित्व सिर्फ लोगों की जिस्मानी जरूरतों को पूरा करना वाली एक वस्तु की तरह ही नहीं है, बल्कि उसके भी अरमान एक आम लड़की की तरह होते हैं।  



मंटो ने अपनी कहानियों में महिलाओं को इंसान के तौर पर स्वीकार किया। उन्होंने महिला-संबंधित सभी सामाजिक पहलुओं को हमारे सामने रखा, जिसे सदियों से समाज ने सभ्यता और इज्जत की र्इंटों में चुनवा रखा था। शायद उनकी यही हिमाकत समाज को नागवार गुजरी और उसने मंटो की कहानियों के महिला पात्रों को अश्लील करार दिया।
 
मंटो की इन सभी कहानियों को जब पाठक पढ़ता है, तो वह वही तिलमिलाहट महसूस करता है, जिसे लिखने से पहले और लिखते वक्त लेखक को बैचेन किया। मंटो की कहानी में अनुभव की सच्चाई के साथ-साथ जुल्म का अहसास भी है। स्त्री पात्रों का मार्मिक चित्रण पाठकों को अंदर तक हिला कर रख देता है। समाज की गंदगी और उसका घिनौना बर्ताव पाठक के सामने साकार हो उठता है, जिसे वह कभी नहीं भुला पाता। मंटो की कहानियों में स्त्री पात्र अश्लील नहीं हैं, अश्लीलता और निर्ममता तो समाज की दिखती है।

 मंटो ने उस दौर के समाज पर जो व्यंग्य और कटाक्ष किया है, वह अगर आज भी चुभता है, तो जाहिर है कि वह मानसिक विकृति अब भी खत्म नहीं हुई, जिसके खिलाफ अंतिम सांस तक वे लड़ते रहे। 

स्वाती सिंह

गुरुवार, 8 सितंबर 2016

पता है तुम्हें कि तुम कितनी सुंदर हो?


     

   
तस्वीर में दिखने वाली इस लड़की का नाम लॉरा डे है। यह बेल्जियम की रहने वाली है।पिछले महीने इसने फेसबुक पर अपनी इस प्रोफाइल पिक्चर को अपडेट किया था। इस फोटो में दिखाई पड़ रहे थे- लॉरा के हेयरी अंडरआर्म्स। इस फोटो पर लोगों ने कमेंट किया- 

 तुम्हारी तस्वीर देख कर मैंने 146 बार उल्टी की
तुम रंडी हो
तुम सूअर हो

  लॉरा ने यह फोटो अपने अंडरआर्म्स दिखाने के लिए अपडेट नहीं की थी बल्कि उसने समाज में लड़कियों के बालों को लेकर दिमाग में जमी गंदगी को साफ करने और एक सच्चाई से रू-ब-रू करने के लिए दिखाई| लेकिन उस पर लोगों ने ऐसे कमेंट किए जिसे पढ़ने के बाद खुद को सभ्य कहने वाले लोगों की असभ्य सोच की झलक साफ दिखाई दी। 
 
लॉरा ने बताया कि, ‘मुझे मालूम था लोग इस तस्वीर पर लोग प्रतिक्रिया देंगे, पर इस तरह मेरे साथ हैरेसमेंटऔर वर्चुअल हिंसाकरेंगे, यह नहीं सोचा था। मैं सिर्फ यह दिखाना चाहती थी कि यह मेरा शरीर है और मैं इसके साथ कुछ भी कर सकती हूं।‘ बालों के साथ हम पैदा होते है। औरतें अपने सिर के लंबे बालों पर गुमान करती है, लेकिन हाथ, पांव, चेहरे या अंडरआर्म्स पर आए बालों को छिपाती है क्योंकि हमारी सोच में यह बात गहराई से जज्ब हैं कि बाल मर्दाना होते है| अगर औरत को औरत दिखना है, तो शरीर के बाल साफ कराने होंगे।अंडरआर्म्स आपके शरीर का हिस्सा हैं। आपके अपने ही शरीर को उसे शेव करना है या उसमें बाल रखने हैं, ये आपका फैसला है। 

लॉरा की इस कहानी को जानने के बाद ऐसा लगता है जैसे अपनी सोसाइटी में सब कुछ सेट है। खासकर महिलाओं के संदर्भ में| ये तय है कि उन्हें कैसे दिखना है, कैसे रहना है, क्या पहनना है....वगैरह-वगैरह। स्कूल में हमारी पहली क्लास की वो इंग्लिश की किताब वाली कविता - चिब्बी चिक, डिम्पल चिन होया फिर नानी-दादी की राजकुमारी और परियों वाली कहानी, इन सभी जगह एक सांचे में ढली खूबसूरतीकी परिभाषा की झलक हमें बचपन से दिखाई जाती है जहां आंखें झील-सी नीली या कजरारी, बाल सुनहरे रेशम से मुलायम, गालों का रंग दूध-सा सफेद, गुलाब की पंखुड़ियों से होंठ और छरहरा चंदन-सा बदन होता है। हमारे शरीर के हर एक अंग के लिए समाज का बनाया हुआ खूबसूरती का पैमाना, तब हमारे आत्मविश्वास और व्यक्तित्व को बुरी तरह प्रभावित करता है, जब हम उस सांचे में फिट नहीं बैठते।

 जब हमारी आंखें बादाम की शेप वाली हल्की ब्राउन रंग की हों, हमारे बाल उलझे-बिखरे और हमसे भी ज्यादा जिद्दी हों, गालों का रंग सांवला हो, तब उस सांचे को मानक मान कर हमारी शारीरिक-बनावट की छोटी-छोटी कमियां हमें हर वक्त बदसूरत होने का अहसास कराने लगती हैं।  

  लेकिन अब समय बदल चुका है और समय के साथ इस सांचे को भी बदलना होगा। महिलाओं को यह समझना होगा कि अब वे हर क्षेत्र में जमाने के साथ कदम से कदम से मिला कर चल रही हैं। इसलिए ज़रूरी है कि वे खूबसूरतीकी भी अपनी एक नई परिभाषा गढ़ें।
 
ब्लशद्वारा निर्मित फाइंड योर ब्यूटीफुलनाम का विडियो इस दिशा में बेहद सफल और सराहनीय प्रयास है। यह विडियो हर उस लड़की को देखना चाहिए, जो अपने आपको खूबसूरत नहीं समझती। जिसे लगता है कि उसमें कुछ कमी है। जिसके कानों में हमेशा पड़ोस वाली आंटी और बड़ी बुआ व तमाम महिलाओं के बताए खूबसूरती वाले घरेलू-नुस्खे गूंजते रहते हैं। 

   इस वीडियो को देखने के बाद वे नोटिस करें कि मेकअप में छिपी अपनी उन आंखों को, जो झील-सी नीली या कजरारी नहीं दिखती, जैसी हमारी फिल्मी नायिकाओं की होती हैं बल्कि उनकी आंखें रोस्टेड बादामों जैसी दिखती है| हल्की-भूरी और नाजुक-सी| या फिर वे नोटिस करें अपने बालों को, जो रेशम से मुलायम होने के बजाय धूल-मिट्टी में लिपटे, उनसे भी ज्यादा जिद्दी हैं और अपनी इन खूबियों को देख कर वे पहचानें अपने-आपको.....क्योंकि लड़कियों तुम्हें नहीं पता कि तुम कितनी सुंदर हो!




  
   कहते है न, ‘आप जैसा सोचोगे, दुनिया वैसी ही नज़र आएगीपर समाज में हमारे सोचने से पहले ही हम सभी की आंखों पर एक ऐसा सामाजिक चश्मा चढ़ा दिया जाता है कि हम सभी के लिए जैसी नज़र, वैसा नज़ारावाली कहावत काम करने लगती है। समाज में जन्म लेते ही लड़की को नवजात शिशु समझने से पहले लड़की मान लिया जाता है और इसके बाद शुरू होता है, समाज की गढ़ी लड़की होने की परिभाषा में लड़की को ढालने का काम| लेकिन यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नज़र से ऊपर के स्थान पर हमारा दिमाग विराजमान है। इसलिए हम सभी को अब यह समझना होगा कि जब तक हम अपनी कद्र नहीं करेंगे, तब तक यह दुनिया भी हमारी कद्र नहीं करेगी’ 

  अपनी ज़िंदगी के लिए सिर्फ दो शब्द हमेशा कायम रखो- तुम सुंदर होदेखना फिर, ये दुनिया कैसे सुंदर हो जाएगी। बस तुम आगे बढ़ती जाओ। दुनिया की परवाह करना बंद करो। तुम जैसी भी हो, अच्छी हो। किसी से कम नहीं हो। यह तन और मन तुम्हारा है। इसे तुम खुद अपने हिसाब से ढालो न कि दुनिया के हिसाब से ढलने दो। क्योंकि प्रकृति ने हर लड़की को सुंदर बनाया है। और तुम भी सुंदर हो। 


स्वाती सिंह 

शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

लड़की सांवली है, हमें तो चप्पल घिसनी पड़ेगी!

   देश के प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थान बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से जागृति ने अपनी पढ़ाई पूरी की थी। आईएएस पिता की एकलौती बेटी थी वह। पढ़ाई-लिखाई के अलावा, घर के कामों से लेकर हर काम में दक्ष थी जागृति। उसे अच्छी नौकरियों के ऑफर भी मिले थे, पर वह आईएएस बन कर अपने पापा का सपना पूरा करना चाहती थी। 

 एक दिन उसके घर में कुछ रिश्तेदार आए।  जागृति ने अपने पापा के मुंह से ऐसी बातें सुनीं कि उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई। उसके पापा उन लोगों से कह रहे थे- मेरी लड़की सांवली है। हमें तो उसके लिए पचास-साठ लाख रुपए के साथ चप्पल भी घिसनी पड़ेगी। उस क्षण जागृति को अपनी पढ़ाई-लिखाई और तमाम उपलब्धियां मिट्टी लगने लगीं। उसकी यह प्रतिक्रिया बिल्कुल ज़ायज थी, क्योंकि समाज में प्रतिष्ठित ओहदे पर आसीन पिता को उसने हमेशा अपना आदर्श माना था। जागृति ने थिएटर से लेकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया तक में काम किया था। मगर उसे कभी भी अपने सांवले रंग की वजह से किसी भी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा, पर दुर्भाग्यवश, जीवन में अपनी सांवली रंगत पर पहली टिप्पणी उसे अपने ही पिता से सुननी पड़ी।


 विकास-पथ की अंधी दौड़ में भागते अपने देश का यह वो कड़वा सच है, जहां जागृति जैसी न जाने कितनी ही लड़कियों को अपनी सांवली रंगत की वजह से तिरस्कृत होना पड़ता है। जर्मन नेशनल कमेटी, यूएन वूमन की उपाध्यक्ष डॉ. कंचना लांसेट कहती हैं- मैंने कई बार मां बाप के या परिजनों के मुंह से सुना है, अभागी काली लड़की उसके इतने अच्छे नाक नक्श हैं, बस गोरी होती। कौन एक काली लड़की से शादी करेगा। उसके लिए अच्छा लड़का ढूंढना मुश्किल हो जाएगा।’ 

   समाज की इसी सोच ने लड़कियों को अपनी सांवली रंगत पर सोचने को मजबूर कर दिया है। वास्तव में रंगभेद का आईना सबसे पहले घर में ही दिखाया जाता है। यह हमें समाज के उस अक्स से रू-ब-रू करवाता है, जहां सभी जगहों पर गोरी बहुओं की तलाश चल रही है। रविवार के दिन अखबार में आने वाले मेट्रोमोनियल पेज पर हम इस तलाश को प्रत्यक्ष रूप से देख सकते हैं, जहां लिखा होता है - मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत लड़के के लिए गोरी-सुंदर लड़की चाहिए। चूंकि आज भी भारतीय समाज की पहचान एक पितृसत्तात्मक समाज के रूप में होती है और यहां लड़कियों को घर संभालने का साधन भर समझा जाता है, ऐसे में इन विज्ञापनों को देख कर यह साफ जाहिर होता है कि अपने बेटे के लिए हम जिस लक्ष्मी का चुनाव कर रहे है, उसमें घर चलाने के गुण भले ही न हों, पर उसका रंग जरूर गोरा होना चाहिए।


 यह दुखद है कि सांवले रंग की लड़की के जन्म पर किसी गोरे रंग की बच्ची से ज्यादा अफसोस जताया जाता है। समाज में यह धारणा बहुत गहराई से जज्ब है कि गहरे रंग की त्वचा सुंदर नहीं होती। विवाह के समय ज्यादा दहेज देकर लड़की के सांवले रंग के 'अवगुण' की भरपाई करने की कोशिश की जाती है। यह रंगभेदी सोच नहीं तो और क्या है?

  मुद्दा तो यह है कि भारत में रंगभेद किसी न रूप में मौजूद है। एक तरह से कहा जा सकता है कि भारत में जहां लोगों की नजर गोरी चमड़ी पर पड़ती है, वहीं वह गोंद की तरह चिपक जाती है। लड़का सांवला हो तो चलता है, लेकिन लड़की गोरी ही होनी चाहिए। ऐसी धारणा के कारण आज भी हमारे देश में लाखों लड़कियां हीन भावना से जूझ रही हैं। शादी के बाज़ार में रिजेक्ट हो रहीं इन लड़कियों ने रंगत को लेकर समाज की सोच बदलने की आस छोड़ चुकी हैं। नतीजन उन्हें न चाहते हुए भी बाजार में उपलब्ध रंग गोरा करने वाले तमाम उत्पादों का सहारा लेना पड़ रहा है। 

भारत में रंगभेद से फिल्मी-जगत भी अछूता नहीं। चाहे फिल्मों के गाने हों या फिर अभिनेत्री का चयन। हर जगह सिर्फ गोरे रंग की लीपापोती दिखाई पड़ती है। मगर ऐसा नहीं कि गोरे रंग के काले साये की चपेट में सिर्फ फिल्मी जगत ही है, बल्कि आज का इलेक्ट्रोनिक मीडिया भी इससे नहीं बचा। बस फर्क सिर्फ इसके प्रस्तुतिकरण में है। किसी नामचीन हस्ती के रंगभेद से संबंधित कोई बयान देते ही, न्यूज़ चैनलों में बहस के लिए चौपाल बैठ जाती है। ये बहसें चैनलों की आम बहसों की ही तरह होती है, जिनमें समाज के अलग-अलग वर्गो के बुद्धिजीवी बुला लिए जाते हैं। सभी वक्ता-मेहमान, रंगों के आधार पर होने वाले भेदभाव के खिलाफ लंबे-चौड़े भाषण देते हैं और चंद मिनट में ये बहसें झगड़े का रूप ले लेती है। ऐसे में गोरी रंगत के बावजूद सफेदी वाले मेकअप पोते एंकर बार-बार अपना गला फाड़-फाड़ कर मेहमानों के चिल्लपो से बनती गुत्थी को सुलझाने की नाकाम कोशिश करती है। वहीं दूसरी तरफ, इन चौपालों के प्रायोजक होते हैं- सालों से लोगों को गोरा करने की मुहिम में लगीं- फेयरनेस क्रीम, साबुन और टॉनिक बनाने वाली कंपनियां। इस तरह दोहरे-चरित्र वाला इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रंगभेद की इस कुप्रथा को ही आगे बढ़ाता है।



 शिक्षा का क्षेत्र हो या रोजगार की तलाश, परिवार व आस-पड़ोस में सम्मान हो या फिर शुभ विवाह; हर जगह गुड लुकिंगकी डिमांड है और इसके लिए ज़रूरी है- सिर्फ गोरी रंगत। विकासशील सभ्य समाज में रंगभेद बेहद शर्मसार करने वाली सोच है। इंसान का अपनी बनावट और रंगत पर कोई वश नहीं होता, यह जानते हुए भी  रंगभेद को बढ़ावा देना चिंताजनक है। भारतीय समाज में गोरी रंगत के इस काले साये ने सफलता के मानक को योग्यता व गुणों से परे उन्हें अधिक सिकोड़ते हुए इंसान की रंगत तक संकुचित कर दिया है। पर सौ बात की एक बात यह है कि गोरा रंग भी एक दिन ढल जाता है और फिर अच्छे स्वभाव व गुण को अंतिम समय तक समाज और परिवार याद करता है।    


स्वाती सिंह