शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

लड़की सांवली है, हमें तो चप्पल घिसनी पड़ेगी!

   देश के प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थान बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से जागृति ने अपनी पढ़ाई पूरी की थी। आईएएस पिता की एकलौती बेटी थी वह। पढ़ाई-लिखाई के अलावा, घर के कामों से लेकर हर काम में दक्ष थी जागृति। उसे अच्छी नौकरियों के ऑफर भी मिले थे, पर वह आईएएस बन कर अपने पापा का सपना पूरा करना चाहती थी। 

 एक दिन उसके घर में कुछ रिश्तेदार आए।  जागृति ने अपने पापा के मुंह से ऐसी बातें सुनीं कि उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई। उसके पापा उन लोगों से कह रहे थे- मेरी लड़की सांवली है। हमें तो उसके लिए पचास-साठ लाख रुपए के साथ चप्पल भी घिसनी पड़ेगी। उस क्षण जागृति को अपनी पढ़ाई-लिखाई और तमाम उपलब्धियां मिट्टी लगने लगीं। उसकी यह प्रतिक्रिया बिल्कुल ज़ायज थी, क्योंकि समाज में प्रतिष्ठित ओहदे पर आसीन पिता को उसने हमेशा अपना आदर्श माना था। जागृति ने थिएटर से लेकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया तक में काम किया था। मगर उसे कभी भी अपने सांवले रंग की वजह से किसी भी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा, पर दुर्भाग्यवश, जीवन में अपनी सांवली रंगत पर पहली टिप्पणी उसे अपने ही पिता से सुननी पड़ी।


 विकास-पथ की अंधी दौड़ में भागते अपने देश का यह वो कड़वा सच है, जहां जागृति जैसी न जाने कितनी ही लड़कियों को अपनी सांवली रंगत की वजह से तिरस्कृत होना पड़ता है। जर्मन नेशनल कमेटी, यूएन वूमन की उपाध्यक्ष डॉ. कंचना लांसेट कहती हैं- मैंने कई बार मां बाप के या परिजनों के मुंह से सुना है, अभागी काली लड़की उसके इतने अच्छे नाक नक्श हैं, बस गोरी होती। कौन एक काली लड़की से शादी करेगा। उसके लिए अच्छा लड़का ढूंढना मुश्किल हो जाएगा।’ 

   समाज की इसी सोच ने लड़कियों को अपनी सांवली रंगत पर सोचने को मजबूर कर दिया है। वास्तव में रंगभेद का आईना सबसे पहले घर में ही दिखाया जाता है। यह हमें समाज के उस अक्स से रू-ब-रू करवाता है, जहां सभी जगहों पर गोरी बहुओं की तलाश चल रही है। रविवार के दिन अखबार में आने वाले मेट्रोमोनियल पेज पर हम इस तलाश को प्रत्यक्ष रूप से देख सकते हैं, जहां लिखा होता है - मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत लड़के के लिए गोरी-सुंदर लड़की चाहिए। चूंकि आज भी भारतीय समाज की पहचान एक पितृसत्तात्मक समाज के रूप में होती है और यहां लड़कियों को घर संभालने का साधन भर समझा जाता है, ऐसे में इन विज्ञापनों को देख कर यह साफ जाहिर होता है कि अपने बेटे के लिए हम जिस लक्ष्मी का चुनाव कर रहे है, उसमें घर चलाने के गुण भले ही न हों, पर उसका रंग जरूर गोरा होना चाहिए।


 यह दुखद है कि सांवले रंग की लड़की के जन्म पर किसी गोरे रंग की बच्ची से ज्यादा अफसोस जताया जाता है। समाज में यह धारणा बहुत गहराई से जज्ब है कि गहरे रंग की त्वचा सुंदर नहीं होती। विवाह के समय ज्यादा दहेज देकर लड़की के सांवले रंग के 'अवगुण' की भरपाई करने की कोशिश की जाती है। यह रंगभेदी सोच नहीं तो और क्या है?

  मुद्दा तो यह है कि भारत में रंगभेद किसी न रूप में मौजूद है। एक तरह से कहा जा सकता है कि भारत में जहां लोगों की नजर गोरी चमड़ी पर पड़ती है, वहीं वह गोंद की तरह चिपक जाती है। लड़का सांवला हो तो चलता है, लेकिन लड़की गोरी ही होनी चाहिए। ऐसी धारणा के कारण आज भी हमारे देश में लाखों लड़कियां हीन भावना से जूझ रही हैं। शादी के बाज़ार में रिजेक्ट हो रहीं इन लड़कियों ने रंगत को लेकर समाज की सोच बदलने की आस छोड़ चुकी हैं। नतीजन उन्हें न चाहते हुए भी बाजार में उपलब्ध रंग गोरा करने वाले तमाम उत्पादों का सहारा लेना पड़ रहा है। 

भारत में रंगभेद से फिल्मी-जगत भी अछूता नहीं। चाहे फिल्मों के गाने हों या फिर अभिनेत्री का चयन। हर जगह सिर्फ गोरे रंग की लीपापोती दिखाई पड़ती है। मगर ऐसा नहीं कि गोरे रंग के काले साये की चपेट में सिर्फ फिल्मी जगत ही है, बल्कि आज का इलेक्ट्रोनिक मीडिया भी इससे नहीं बचा। बस फर्क सिर्फ इसके प्रस्तुतिकरण में है। किसी नामचीन हस्ती के रंगभेद से संबंधित कोई बयान देते ही, न्यूज़ चैनलों में बहस के लिए चौपाल बैठ जाती है। ये बहसें चैनलों की आम बहसों की ही तरह होती है, जिनमें समाज के अलग-अलग वर्गो के बुद्धिजीवी बुला लिए जाते हैं। सभी वक्ता-मेहमान, रंगों के आधार पर होने वाले भेदभाव के खिलाफ लंबे-चौड़े भाषण देते हैं और चंद मिनट में ये बहसें झगड़े का रूप ले लेती है। ऐसे में गोरी रंगत के बावजूद सफेदी वाले मेकअप पोते एंकर बार-बार अपना गला फाड़-फाड़ कर मेहमानों के चिल्लपो से बनती गुत्थी को सुलझाने की नाकाम कोशिश करती है। वहीं दूसरी तरफ, इन चौपालों के प्रायोजक होते हैं- सालों से लोगों को गोरा करने की मुहिम में लगीं- फेयरनेस क्रीम, साबुन और टॉनिक बनाने वाली कंपनियां। इस तरह दोहरे-चरित्र वाला इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रंगभेद की इस कुप्रथा को ही आगे बढ़ाता है।



 शिक्षा का क्षेत्र हो या रोजगार की तलाश, परिवार व आस-पड़ोस में सम्मान हो या फिर शुभ विवाह; हर जगह गुड लुकिंगकी डिमांड है और इसके लिए ज़रूरी है- सिर्फ गोरी रंगत। विकासशील सभ्य समाज में रंगभेद बेहद शर्मसार करने वाली सोच है। इंसान का अपनी बनावट और रंगत पर कोई वश नहीं होता, यह जानते हुए भी  रंगभेद को बढ़ावा देना चिंताजनक है। भारतीय समाज में गोरी रंगत के इस काले साये ने सफलता के मानक को योग्यता व गुणों से परे उन्हें अधिक सिकोड़ते हुए इंसान की रंगत तक संकुचित कर दिया है। पर सौ बात की एक बात यह है कि गोरा रंग भी एक दिन ढल जाता है और फिर अच्छे स्वभाव व गुण को अंतिम समय तक समाज और परिवार याद करता है।    


स्वाती सिंह 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें