बुधवार, 8 जून 2016

कितना निस्वार्थ था वो ‘अग्नि-युवा’...!

मात्र उन्नीस साल की उम्र में देश के लिए फांसी पर झूलने वाले खुदीराम की कहानी मैं जितनी बार भी पढ़ती हूं, मेरे मन में बस एक ही ख्याल बार-बार आता है कि - ‘क्या इस अग्नि-युवा को हमारी तरह दोस्तों के साथ खेलने का मन नहीं करता होगा? या फिर उनकी आँखों ने कभी अपने पिता जैसे बनने का सपना नहीं संजोया होगा, जो इतनी छोटी-सी उम्र में उसने अपने जीवन को देश के नाम पर न्योछावर कर दिया.



 


जब मैं दसवीं क्लास में थी, तभी मैंने डिसाइड कर लिया था कि मुझे बड़े होकर अपने पापा की तरह डॉक्टर बनना है| इसमें कोई नयी बात भी नहीं है| आज के समय में तो बच्चे दसवीं-बारहवीं की परीक्षा पास करते ही अपने करियर की राह तय कर लेते है, कि उन्हें बड़े होकर क्या बनना है| लेकिन दुर्भाग्यवश ये युवा पीढ़ी राजनीति के क्षेत्र को छोड़कर करीब हर क्षेत्र में सफलता के परचम लहराने का ख्वाब देखती है| अपने इस फैसले में युवा अक्सर इस बात को नज़रअंदाज कर देते है कि उनके इन सभी ख्वाबों का लेखा-जोखा राजनीति ही निर्धारित करती है| जिस राजनीति को वे करियर नहीं मानते आज से सालों पहले इस राजनीति के मंच से ही अंग्रेजों के खिलाफ़ विजय का परचम लहराया गया| नतीजतन आज हम दासता से मुक्त अपने देश में खुद के लिए ख्वाब देख पा रहे है|

जिस उम्र में हम अपने दोस्तों के साथ खेलने या दुनिया को और अधिक जानने में जुटे होते है, उस उम्र के हमारे देश में कई ऐसे क्रांतिकारी भी हुए जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए अपनी जान तक दाँव पर लगा दी और हंसते हुए अपनी सरजमीं के नाम शहीद हो गए| क्योंकि जिस उम्र में हम टीवी पर कार्टून देखने या फिर प्ले स्टेशन पर गेम खेलने में अपना समय बिताते है, उस वक़्त वे समाज की समस्याओं को देखकर उनकी तह तक जाने में जुटे थे| इन्हीं क्रांतिकारियों में से एक है – खुदीराम बोस|

खुदीराम का नाम देश के इतिहास में एक स्वतंत्रता सेनानी मात्र तक सीमित नहीं है| बल्कि इनका नाम उस फेहरिस्त में शामिल है, जिन लोगों ने छोटी-सी उम्र में अपनी ज़िन्दगी देश के नाम कर दी थी| शायद यही वजह है कि इन्हें ‘अग्नि युवा’ भी कहा जाता है|

तीन दिसंबर, 1889 में बंगाल के मिदनापुर जिले में जन्मे खुदीराम ने बचपन में ही अपने माता-पिता को खो दिया था| उनकी बड़ी बहन ने उनका लालन-पालन किया| बंगाल विभाजन (साल 1905) के वक़्त खुदीराम ने स्वतंत्रता संग्राम में कदम रखा| अपने स्कूल के दिनों से ही खुदीराम राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे थे| कक्षा नौ के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और सत्येन बोस के नेतृत्व में अपने क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत की| शुरुआती दिनों में, उन्होंने रिवोल्यूश्नरी पार्टी के सदस्य बनकर वन्देमातरम की पंफलेट बटवाने में अहम भूमिका निभाई| साल 1906 में सोनार बंगला नाम के इश्तिहार बांटते वक़्त पुलिस ने उन्हें दबोच लिया| पर खुदीराम उनकी गिरफ्त से भाग निकले| इसके बाद एक बार फिर पुलिस ने उन्हें दबोचा, लेकिन कम उम्र होने के कारण उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया गया|

युगांतर क्रांतिकारी दल के नेता वीरेंद्र कुमार घोष ने ये घोषणा की कि कलकत्ता का किंग्सफोर्ड चीफ प्रेंसीडेसी मजिस्ट्रेट मुजफ्फरपुर (बिहार) में मारा जायेगा| इस काम के लिए खुदीराम और प्रपुल्ल चाकी को चुना गया| ये उन दोनों के लिए किसी बड़े ख़ुशी के मौके से कम नहीं था| उनलोगों ने इस मिशन पर अपना काम शुरू कर दिया था| मुज्जफरपुर जाकर आठ दिन तक वे लोग एक धर्मशाला में रहकर किंग्सफोर्ड पर नज़र रखते रहे| अब अपने प्लान को मुकाम तक पहुँचाने का समय आ चुका था| तीस अप्रैल, 1908 की शाम किंग्सफोर्ड और उनकी पत्नी पास के क्लब में पहुंचे| उसी समय मिसेज कैनेडी भी अपनी बेटी के साथ पहुंची| उनकी और किंग्सफोर्ड की बग्घी का रंग एक ही था| खुदीराम और उनके साथियों ने गलती से कैनेडी की बग्घी को किंग्सफोर्ड की बग्घी समझकर बम फेंक दिया और वहां से भाग निकले|

पुलिस ने खुदीराम को पूसा रोड रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया| खुद को घिरा देखकर प्रपुल्ल ने खुद को वहीं गोली मार ली| लेकिन खुदीराम ने ऐसा नहीं किया| उन्हें जेल में डाल दिया गया और उनपर हत्या का मुकदमा चलाए जाने लगा| अदालत में बिना किसी के डर के उन्होंने अपना गुनाह कबूल किया| उनपर केवल पांच दिन (8 जून, 1908 से लेकर 13 जून) तक मुकदमा चलाया गया और फिर उन्हें फांसी की सजा सुना दी गयी| 11 अगस्त, 1908 को उन्हें फांसी दे दी गयी|

खुदीराम को संगठित क्रांतिकारी आन्दोलन का पहला शहीद माना जाता है| अपनी शहादत के बाद वे इतने लोकप्रिय हुए कि बंगाल के जुलाहे उनके नाम की एक खास किस्म की धोती बुनने लगे थे|


मात्र उन्नीस साल की उम्र में देश के लिए फांसी पर झूल जाने वाले खुदीराम की कहानी मैं जितनी बार भी पढ़ती हूं, मेरे मन में बस एक ही ख्याल बार-बार आता है कि - ‘क्या इस अग्नि-युवा को हमारी तरह दोस्तों के साथ खेलने का मन नहीं करता होगा? या फिर उनकी आँखों ने कभी अपने पिता जैसे बनने का सपना नहीं संजोया होगा, जो इतनी छोटी-सी उम्र में उसने अपने जीवन को देश के नाम पर न्योछावर कर दिया. आज के समय में जहां हम अपने बिना किसी के स्वार्थ के कोई काम नहीं करते| ऐसे में इस युवा का देश के नाम पर अपनी जान न्योछावर कर देना, हमेशा हमें अपने स्वार्थो से ऊपर उठकर जिंदगी जीने की प्रेरणा देता है|    

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