शनिवार, 17 जनवरी 2015

 'दुर्गा भाभी' : सुनहरे इतिहास के पन्नों में गुम, एक सुनहरा व्यक्तित्व

        
           भारतीय इतिहास में सन् 1857 से लेकर 1947 तक के कुल नब्बे वर्ष दर्ज़ है, -"एक संघर्ष की लड़ाई "के नाम। ये "संघर्ष की लड़ाई" थी-'भारत को ब्रिटिश शासन से आज़ाद करके, लोकतन्त्र की स्थापना करने के लिए'। इस संघर्ष में हज़ारों-लाखों जवानों ने देश के लिए शहादत दी। जिससे उनके आने वाला भविष्य एक स्वतन्त्र देश में सांस ले सके।'                  
          यूँ तो भारतीय इतिहास के पन्नों में, आज़ादी की इस लड़ाई और इसमें सक्रियता से भाग लेने वाले तमाम आंदोलनकारियों के नाम दर्ज़ किए गए। लेकिन ऐसे बहुत से ऐसे आंदोलनकारी भी है, जिन्होंने ना केवल अपना पूरा जीवन इस संघर्ष के नाम किया, बल्कि इस संघर्ष को सफ़ल बनाने में भी अपना अदभुत योगदान दिया और इस लड़ाई की अगुआई की बजाय पर्दे के पीछे रह कर अपने अगुवाओं को आगे बढ़ने और डटे रहने का साहस प्रदान किया। लेकिन दुर्भाग्यवश! इन्हें ना तो हमारे इतिहास के पन्नों पर जगह दी गई और ना ही इनकी शहादत को वो सम्मान मिल सका, जिनके ये हक़दार थे और वे महत्वपूर्ण शख्स धीरे-धीरे हमारे सुनहरे इतिहास की चमक से पीछे अँधेरे में गुम होते जा रहे है। ऐसी ही शख्सियतों में से एक हैं-'दुर्गा भाभी'।                      
      'दुर्गा भाभी' का वास्तविक नाम था-दुर्गावती देवी। इनका जन्म 7 अक्टूबर 1907 में शहजादपुर ग्राम में पण्डित बांके बिहारी के यहां हुआ। दुर्गावती का विवाह 11 वर्ष की अल्पायु में प्रो.भगवती चन्द्र वोहरा के साथ हुआ। दुर्गावती के पिता जहां इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाज़िर थे और उनके ससुर शिवचरण जी रेलवे में ऊँचे पद पर तैनात थे।                  
         वोहरा क्रन्तिकारी संगठन(HSRA-Hindustan Republican Association)के प्रचार सचिव थे। दिल्ली के क़ुतुब रोड में स्तिथ घर में,वोहरा विमल प्रसाद जैन के साथ बम बनाने का काम करते थे,जिसमें दुर्गा भी उनलोगों की मदद करती। शुरूआती दिनों में,दुर्गा सूचना एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने और बम के सामान को लाने पहुँचाने का भी काम करती थी। 16 नवम्बर,1926 में लाहौर में,नौजवान भारत सभा द्वारा भाषण का आयोजन किया गया,जहां दुर्गावती नौजवान भारत सभा की सक्रिय सदस्य के तौर पर सामने आयी। दुर्गावती एक चिद्रनवेशि योजना-निर्मातक थी,जिनकी योजना कभी-भी विफ़ल नहीं होती थी।                    
          17 दिसंबर,1928 में,भगत सिंह और सुखदेव ने साथ मिलकर सौंडर्स की हत्या की। हत्या के बाद,ब्रिटिश पुलिस इनकी ख़ोज में जुट गई। जिसके बाद ये दोनों दुर्गावती के पास पहुँचे और दुर्गावती ने बड़ी ही सतर्कता के साथ भगत और सुखदेव को सुरक्षित कलकत्ता पहुंचाने की योजना बनाई।             
               18 दिसंबर,1928 भारतीय इतिहास में दर्ज़ एक ऐसी तारीख है, जिसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में 'रेड-लेटर डे' माना जाता है, क्योंकि इसी दिन भारत में एक नयी उम्मीद की पटरी पर दौड़ी,यानी भारत की पहली ट्रेन-'कलकत्ता मेल'। जो हिस्सा बनी दुर्गावती की योजना की। दुर्गावती ने भगत सिंह और सुखदेव को कलकत्ता पहुंचाने का निश्चय किया,उस समय दुर्गावती के पति प्रो.वोहरा भी कलकत्ता में थे।              
         दुर्गावती की योजना के अनुसार,भगत सिंह ने अंग्रेजों को रंग में रंगे एक भारतीय का वेश धारण किया और दुर्गा उनकी पत्नी बनी और सुखदेव ने उनके नौकर का रूप धरा। सुखदेव ने दुर्गावती और भगत सिंह के लिए कलकत्ता मेल में फर्स्ट-क्लास की दो टिकट लिया और खुद के लिए स्लीपर का टिकट लिया,  जिससे किसी को शक ना हो। ये योजना जितनी आसान नज़र आ रही थी,वास्तव में ये उतनी की जोखिम भरी थी। क्योंकि रेलवे स्टेशन पर अंग्रेजी सेना का कड़ा पहरा था और जगह-जगह भगत सिंह और सुखदेव की तलाश करने के लिए उनकी तस्वीरों के पोस्टर लगवाएं गए थे। लेकिन दुर्गावती के आत्मविश्वास और दूरदृष्टि पर सभी को भरोसा था, इन सबमें दुर्गावती का दो साल का बेटा शचीन्द्र भी उनके साथ था। अंतत:दुर्गावती की योजना सफल हुई और वे सभी सुरक्षित कलकत्ता पहुंच गए।                  
           कलकत्ता पहुंचने पर,दिल्ली केंद्र पर बम फेकनें की योजना बनी। जिसके लिए बम निरक्षण करते वक़्त प्रो.वोहरा की मौत हो गई। इसके बाद,भगत सिंह,सुखदेव और राजगुरु ने बम फ़ेकनें के बाद आत्मसमर्पण कर दिया और 8 अप्रैल,1929 को इन्हें फांसी की सज़ा सुनाई।                          

         इस सबके बाद दुर्गावती एकदम अकेली पड़ गई,लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और पंजाब के पूर्व राज्यपाल लार्ड हैली को मारने की साजिश रच डाली,जो क्रांतिकारियों का बड़ा दुश्मन था।
        1 अक्टूबर,1931 को बॉम्बे के लमिंगतों रोड पर दुर्गावती ने साथियों के साथ मिलकर हैली की गाड़ी को बम से उड़ा दिया, जिसके बाद पूरी ब्रिटिश पुलिस दुर्गावती की तलाश में जुट गई। लेकिन वे दुर्गावती को खोज नहीं पाए, फिर एक दिन खुद दुर्गावती ने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। जिसके बाद उन्हें तीन साल की सज़ा सुनाई गई। तीन साल की सज़ा के खत्म करने के बाद दुर्गावती ने लखनऊ के पुराने किले में गरीब बच्चों को पढ़ना शुरू किया,जिसका नाम -'मोन्टेसोरी स्कूल' पड़ा। दुर्गावती ने 15 अक्टूबर,1999 में दुनिया को अलविदा कह दिया।       
         दुर्गावती की मृत्यु हुए यूँ तो कई साल बीत चुके है,लेकिन आज भी उनकी वीरता की कहानी हर हिन्दुस्तानी के ध्यान को आकृष्ट कर,उन्हें गौरववन्वित करती है। दुर्गावती मिशाल है, नारी के सशक्त रूप की और सच्चे देश भक्त की। जिनके लिए क्रांति का मतलब सिर्फ सत्ता का तख्ता पलट करना मात्र नहीं था,उनके लिए असल क्रांति का मतलब था,आज़ादी के बाद एक सशक्त देश की नींव डालना, एक शिक्षित समाज का निर्माण करना और यही वजह थी कि दुर्गावती ने शुरू से ही गरीब बच्चों को पढ़ाने का नेक काम शुरू किया,जिसे उन्होंने जीवन पर्यन्त कायम रखा। दुर्गावती की यही कार्य-प्रणाली और दूरदृष्टी उनके व्यक्तित्व को महान और अविस्मरणीय बनाती है।

स्वाती सिंह