एक दिन स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों के बारे में पढ़ते वक़्त एक ऐसे क्रांतिक्रारी के बारे में जाना, जिन्हें जानकर ख्याल आया कि यूँ तो हमारी किताबों में स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों की फेहरिस्त बहुत लंबी है और उनमें से कई चुनिन्दा सेनानियों के बारे में हम जानते भी है। पर दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता संग्राम के कई ऐसे सेनानी भी है जिनके नाम तक से हम ठीक तरीके से वाकिफ़ नहीं है। मदन लाल ढींगरा इन्हीं नामों में से एक है। वह एक महान क्रान्तिकारी थे। स्वतंत्र भारत के निर्माण के लिए देश के कई शूरवीरों ने हंसते-हंसते अपने जान की बाजी लगा दी थी, उन्हीं महान शूरवीरों में ‘अमर शहीद मदन लाल ढींगरा’ का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखे जाने योग्य हैं। देश की आज़ादी के लिए मदन लाल ढींगरा ने अपने जीवनभर कठिनाईयों का सामना किया। लेकिन वह अपने मार्ग से विचलित न हुए और स्वाधीनता के लिए फांसी पर झूल गए।
मदन लाल ढींगरा का जन्म सन् 1883 में पंजाब के एक संपन्न हिंदू परिवार में हुआ था। उनके पिता सिविल सर्जन थे और अंग्रेज़ी रंग में पूरे रंगे हुए थे; लेकिन उनकी माताजी बहुत ही धार्मिक एवं भारतीय संस्कारों से परिपूर्ण महिला थीं। उनका परिवार अंग्रेजों का विश्वासपात्र था। जब मदन लाल को पहली बार भारतीय स्वतंत्रता सम्बन्धी क्रान्ति के आरोप में लाहौर के एक विद्यालय से निकाल दिया गया, तभी उनके परिवार ने मदन लाल से नाता तोड़ लिया। जिसके बाद, मदन लाल को एक क्लर्क रूप में, एक तांगा-चालक के रूप में और एक कारखाने में श्रमिक के रूप में काम करना पड़ा। वहाँ उन्होंने एक यूनियन (संघ) बनाने का प्रयास किया; पर वहां से भी उन्हें निकाल दिया गया। कुछ दिन उन्होंने मुंबई में भी काम किया। अपनी बड़े भाई से विचार विमर्श करने के बाद वे सन् 1906 में उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड गये जहां 'यूनिवर्सिटी कॉलेज' लन्दन में यांत्रिक प्रौद्योगिकी में प्रवेश लिया। इसके लिए उन्हें उनके बड़े भाई और इंग्लैंड के कुछ राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओं से आर्थिक सहायता मिली। लंदन में वह विनायक दामोदर सावरकर और श्याम जी कृष्ण वर्मा जैसे कट्टर देशभक्तों के संपर्क में आए।
सावरकर ने उन्हें हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया। ढींगरा 'अभिनव भारत मंडल' के सदस्य होने के साथ ही 'इंडिया हाउस' नाम के संगठन से भी जुड़ गए। जो उस समय भारतीय विद्यार्थियों के लिए राजनीतिक गतिविधियों का आधार था। इस दौरान सावरकर और ढींगरा के अलावा ब्रिटेन में पढ़ने वाले अन्य बहुत से भारतीय छात्र भारत में खुदीराम बोस, कनानी दत्त, सतिंदर पाल और कांशीराम जैसे देशभक्तों को फांसी दिए जाने की घटनाओं से गुस्से में थे। इस घटना के बाद मदन लाल ढींगरा ने अंग्रेजों से बदला लेने की ठानी। 1 जुलाई 1909 को 'इंडियन नेशनल एसोसिएशन' के लंदन में आयोजित वार्षिक दिवस समारोह में बहुत से भारतीय और अंग्रेज़ शामिल हुए। ढींगरा भी इस समारोह में अंग्रेज़ों को सबक सिखाने के उद्देश्य से गए थे। अंग्रेज़ों के लिए भारतीयों से जासूसी कराने वाले ब्रिटिश अधिकारी सर कर्ज़न वाइली ने जैसे ही हाल में प्रवेश किया तो ढींगरा ने रिवाल्वर से उसपर चार गोलियां दाग़ दीं। कर्ज़न को बचाने की कोशिश करने वाला पारसी डॉक्टर कोवासी ललकाका भी ढींगरा की गोलियों से मारा गया। कर्ज़न वाइली को गोली मारने के बाद मदन लाल ढींगरा ने अपने पिस्तौल से अपनी हत्या करनी चाही; पर उन्हें पकड़ लिया गया।
23 जुलाई को ढींगरा के प्रकरण की सुनवाई पुराने बेली कोर्ट, लंदन में हुई। अदालत में उन्होंने कहा कि उन्हें कर्जन वाइली को मारने का कोई अफसोस नहीं है क्योंकि वह भारत में राज कर रहे अमानवीय ब्रिटिश शासन की मदद करता था। ढींगरा को इस मामले में फांसी की सजा सुनाई गई। उनको मृत्युदण्ड दिया गया और 17 अगस्त सन् 1909 को फांसी दे दी गयी।
फैसले के बाद उन्होंने कहा कि देश के लिए अपने जीवन का बलिदान करते हुए मुझे गर्व है। मदन लाल ढींगरा को 17 अगस्त 1909 को फांसी पर लटका दिया गया। फांसी पर चढ़ाए जाते समय उनके चेहरे पर डर का कोई भाव नहीं था और वह हंसते-हंसते फंदे पर झूल गए। ढींगरा पर पक्षपातपूर्ण ढंग से मुकदमा चलाया गया । ब्रिटिश सरकार ने उन्हें वकील तक मुहैया नहीं कराया। इतना ही नहीं, उनकी लाश को न तो उनकी भारतभूमि नसीब हुई और न ही हिंदू रीति-रिवाज से उनका अंतिम संस्कार किया गया।
स्वाती सिंह