रविवार, 15 मार्च 2015

शहीद उधम सिंह :- "एक सफ़र -जलियावालाबाग हत्याकांड के इंतकाम से शहादत के नाम"

भारतभूमि साक्षी है, देश की आज़ादी के लगभग नब्बे वर्ष के बनते इतिहास का। जिस दौरान इस देश ने देखा - बलिदान, देशप्रेम, संघर्ष, हक की लड़ाई और प्रशासन की लगाई आग में झुलसती इंसानियत।
                    अमृतसर में स्तिथ स्वर्ण मन्दिर को भारत की सम्पन्न संस्कृति और इतिहास के मानकों में अहम माना जाता है, लेकिन 13 अप्रैल 1919 ये वो तारीख है जब सम्पन्नता का मानक माना जाने वाला ये मन्दिर साक्षी बना, 'एक नृशंस हत्याकांड' यानी की 'जलियावाला बाग़ हत्याकांड' का।
                  रोलेट एक्ट का विरोध करने के जुर्म में डा.सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू को अंग्रेजी सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। नतीजन आक्रोशित भारतीय जनता ने इस गिरफ्तारी के विरोध में, स्वर्ण मन्दिर के पास स्तिथ जलियावालाबाग में एक जनसभा का आयोजन किया। जब ये सुचना अंग्रेजी सरकार को मिली तो गवर्नर जनरल माइकल ओ ड्वायर ( रेजीनॉल्ड एडवाड हैरी डायर ) के निर्देशन में जलियावाला बाग़ में सभा के दौरान बाग़ के सभी दरवाजे बन्द कर दिए गए और जनसभा कर रहे भारतीयों को चारो तरफ से घेर लिया गया, जिसके बाद अंग्रेजी सेना ने धुंआधार बन्दूक से फायरिंग की । देखते ही देखते वहां लाशों का ढेर हो गया, क्या बच्चे, क्या औरतें, क्या बूढ़े और क्या जवान, बिना किसी रियायत के लोगों को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया गया। बाग़ में लगी एक पट्टी के अनुसार 120 शव कुए से बरामद हुए।
     जलियावालाबाग़ हत्याकांड की ये घटना, भारतीय इतिहास में दर्ज उन घटनाओं में से एक है जब इंसानियत को शर्मसार कर दिया गया और आज भी उस घटना का ज़िक्र हर भारतीय की आत्मा को झकझोर देता है। लेकिन अफ़सोस, हर बार की तरह इस घटना का विवरण तो इतिहास में वृहत रूप से किया गया पर उस शख्स को इतिहास ने अपने उजाले से दूर रखा जिसने इस घटना का बदला लिया और आज़ादी की लड़ाई को एक ऊँचे मुकाम तक पहुंचाया। उस शख्स का नाम है - उधम सिंह।

उधम सिंह का जन्म पंजाब के संगरुर जिले के सुनाम गांव में हुआ। उनका वास्तविक नाम शेर सिंह था। सन् 1901 में शेर सिंह की माता और 1907 में उनके पिता का देहांत हो गया। माता-पिता की मृत्यु के बाद शेर सिंह और उनके बड़े भाई मुक्ता सिंह ने पंजाब के एक अनाथ आश्रम में पनाह ली। दुर्भाग्यवश! सन् 1917 में उनके बड़े भाई की भी मृत्यु हो गई। जिसके बाद, सन् 1919 में शेर सिंह ने क्रांतिकारियों से हाथ मिलाया और आज़ादी की लड़ाई में अपना योगदान देने में जुट गए। जलियावालाबाग हत्याकांड की घटना ने शेर सिंह को बुरी तरह आहत किया और उन्होंने इस नृशंस घटना का बदला लेने की प्रतिज्ञा की।
      सन् 1934 में उधम सिंह जनरल ओ ड्वायर की तलाश में लन्दन पहुंचे और वहां 9 एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड के पास रहने लगे। जिसके बाद 13 मार्च 1940, यानी जलियावालाबाग हत्याकांड की घटना के कुल 21 साल बाद, रॉयल सेंट्रल एशियन सोसाइटी की लन्दन के एक हाल में बैठक का आयोजन किया गया। जहां माइकल ओ ड्वायर वक्ताओं में से एक था। मौका मिलते ही उधम सिंह ने हाल में जनरल पर दो गोलियां दागी, जिससे जनरल की तुरन्त मौत हो गई।
          जिसके बाद, 4 जून 1940 में उधम सिंह को हत्या जा दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई 1940 को उन्हें फांसी दे दी गयी। उधम सिंह के इस बलिदान के लिए उन्हें शहीद-ए-आज़म की उपाधि दी गई। इसके साथ ही, उत्तर भारतीय राज्य उत्तराखण्ड के एक जिले का नाम भी इनके नाम पर 'उधम सिंह नगर' रखा गया है। सन् 2000 में शहीद उधम सिंह नाम से एक फ़िल्म भी बनाई गई, जो उधम सिंह के जीवन पर आधारित है। लेकिन अफ़सोस, भारत सरकार ने उधम सिंह को 'शहीद-ए-आज़म' की उपाधि से तो नवाज दिया पर उनके जीवन से जुड़ी वस्तुएं ,उनके विचार और उनपर लिखी किताबों को संग्रहित करने के लिए कोई जगह मुहैया ना करा सकी। नतीज़न, आज उधम सिंह की यादें एक छोटे से पुराने कमरे में अपनी यादें, विचार और इतिहास के कई पन्ने समेटे अपने गुम होते अस्तित्व के एक-एक पल की साक्षी बन रही है।
         आज़ादी के इतने सालों बाद आज भी जहां एक ओर जलियावालाबाग हत्याकांड की घटना का ज़िक्र देशवासियों की आखों सामने उस निर्मम मंजर को याद दिलाता है। वहीं दूसरी ओर, उधम सिंह का व्यक्तित्व एक सच्चे देशभक्त की मिशाल बनकर हर देशवासी का सिर गर्व से ऊपर कर देता है। इतिहास के अँधेरे में गुम इस हीरे समान व्यक्तित्व को देश की ओर से श्रद्धांजलि।

स्वाती सिंह

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