शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

दूरगामी क्रांति के नायक : पण्डित मदन मोहन मालवीय

भारतवर्ष जब दासता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था, तब जहां एक ओर आज़ादी की लड़ाई इस दासता की जंजीरों को तोड़ फेकने की दिशा में संघर्षरत थी। वहीं दूसरी ओर, एक क्रांति आज़ाद देश की परिपक्व नींव रखने की तैयारी में जुटीं थी। इस क्रांति में वे लोग शामिल थे, जिनका लक्ष्य सिर्फ देश को दासता से मुक्त कराना मात्र नहीं था, बल्कि आज़ाद देश की ऐसी मजबूत नींव का भी निर्माण करना था, जिससे देश विकास की दिशा में अग्रसरित हो सके।

                       आज़ादी के बाद, भारतवर्ष के उज्जवल भविष्य की नींव धरने में भारत के कई विभूतियो ने अदभुत योगदान दिया। जिनकी मेहनत और दूरगामी सोच की मिशाल के तौर में आज भी हमें देखने को मिलते। ऐसी ही एक मिशाल का साक्षी बना, वरुणा और अस्सी के बीच बसे शहर 'वाराणसी'। जहां स्थित है, एशिया में 'सर्वविद्या की राजधानी' के नाम से जाना जाने वाला - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय। शिक्षा के इस भव्य मन्दिर के निर्माण का श्रेय जाता है, पण्डित मदन मोहन मालवीय।
पं. मदन मोहन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन विभूतियों में से है, जिन्होंने तत्कालिक संग्राम में अपना अदभुत योगदान देने के साथ-ही-साथ देश के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए सुदृण नींव भी रखी।

पण्डित मदन मोहन का जन्म 25 दिसम्बर सन् 1891 में इलाहाबाद के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनकी माता का नाम 'मूना देवी' और उनके पिता का नाम 'बृजनाथ' था। वे अपने माता-पिता की पाँचवी संतान थे। मदन मोहन के पूर्वज मालवा में संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे, जिससे उन्हें 'मालवीय' के नाम से जाना जाता है। मालवीय जी ने जुलाई 1884 में इलाहाबाद जिला स्कूल में बतौर शिक्षक अपने करियर की शुरुआत की। दिसम्बर 1886 में, दादाभाई नैरोजी की अध्यक्षता में कांग्रेस का दूसरा सम्मेलन कलकत्ता में हुआ, जहां मालवीय जी ने भाग लिया । मालवीय जी के विचारों से न केवल दादाभाई नैरोजी प्रभावित हुए, बल्कि हिंदी  साप्ताहिक अखबार 'हिंदुस्तान' के सम्पादक राजा रामपाल सिंह भी बेहद प्रभावित हुए।

मालवीय जी चार बार ( 1990, 1918,1930 और 1932) भारतीय कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। सन् 1930 में, उन्होंने प्रथम गोलमेज सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व भी किया। मालवीय जी एक राष्ट्रवादी नेता होने के साथ-ही-साथ सफल पत्रकार भी रहे है। सन् 1924 से 1946 तक मालवीय जी 'हिन्दुस्तान टाइम्स' के प्रमुख भी रहे। उन्होंने 'द इण्डियन यूनियन' में सम्पादक के तौर पर भी काम किया। मालवीय जी ने 'अभ्युदय' नामक एक साप्ताहिक हिंदी पत्रिका की भी शुरुआत की।

            मालवीय जी ने राजनीति और पत्रकारिता के क्षेत्र में अपने योगदान से सफलता की एक अविस्मरणीय दास्तां लिखी। लेकिन इन दोनों क्षेत्रों के अलावा मालवीय ने शिक्षा के क्षेत्र में भी अपने अदभुत व्यक्तित्व के तेज़ से शिक्षा की दिव्य ज्योति को अखण्ड ज्योति में तब्दील किया। शिक्षा के क्षेत्र में मालवीय जी के योगदान की मिशाल है, वाराणसी में मालवीय जी द्वारा निर्मित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय। अप्रैल 1911 में जब मालवीय जी की मुलाकात एनी बिसेन्ट से हुई, तो उनदोनो ने वाराणसी में 'हिन्दू विश्वविद्यालय' के निर्माण कार्य का निश्चय किया। मालवीय जी ने विश्वविद्यालय के निर्माण-कार्य के लिए भारत के कई राजा-महाराजों से मदद ली। सन् 1915 में बी. एच.यू एक्ट के तहत, 1916 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का निर्माण हुआ।  मालवीय जी सन् 1919 से 1938 तक विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। आज काशी हिन्दू विश्वविद्यालय भारत में शिक्षा के प्रमुख केंद्रों में से एक है।

वर्ष 2015 में, मदन मोहन मालवीय जी को भारत के उच्च सम्मान 'भारतरत्न' से सम्मानित किया। मालवीय जी के महान कार्यों को सम्मानित करते हुए, उन्हें 'महामना' की उपाधि से भी सम्मानित किया गया। मालवीय जी के सम्मान में उनके नाम से इलाहाबाद,भोपाल,दुर्ग,लखनऊ,दिल्ली और जयपुर में 'मालवीय नगर' की स्थापना की गयी और मालवीय नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी, जयपुर व मदन मोहन मालवीय इंजीनीयरिंग कॉलेज, (गोरखपुर) की स्थापना की गई।

मदन मोहन मालवीय जी ने 12 नवम्बर, 1946 में दुनिया को अलविदा कह दिया। मालवीय जी उन हस्तियों में से एक जिन्हें याद करने की ज़रूरत नहीं होती, क्योंकि उनके महान कार्य की मिशालें आज भी उन्हें जीवन्त रखती है, जो उनके व्यक्तित्व को भूलने की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ते। मालवीय जी के महान विचार आज भी उनकी बसायी शिक्षा की राजधानी (बी.एच.यू) की फ़िज़ाओं में घुली है।

स्वाती सिंह
 

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