बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

हैदर':- इंतकाम से आज़ादी तक का सफ़र

2 अक्टूबर,2014 को रिलीज हुई,विशाल भारद्वाज की फिल्म- हैदर।           
         गाँधी-जयंती पर आई इस फिल्म ने खूबसूरत वादियों वाली जन्नत -'कश्मीर', के सन्नाटों में कैद 'आज़ादी' की चीख को मानो दर्शकों के सामने पर्दे पर उतार दिया। शाहिद कपूर,श्रद्धा कपूर,तब्बू,इरफ़ान खान व केके मेनन द्वारा अभिनीत इस फिल्म के माध्यम से विशाल भारद्वाज ने, खूबसूरत वादियों के चारों तरफ घिरे लोहे के बाड़ों और फ़ौज की तैनाती में कसी  घुट-घुट कर आज़ादी की पुकार लगाती जिंदगियां तो वहीं दूसरी तरफ,श्रापित इंसानियत का शिकार होकर मानवता के खून से लहूलुहान झेलम की चुप्पी को बड़े ही सम्वेदनशील अंदाज में फिल्माया है और बरसों से बर्फीली कब्रों में ढके इन मुद्दों को पर्दे पर उतार कर एक नयी जान फूंक दी है। हैदर के जरिए, खुद के अस्तित्व को तलाशते इंसान की जिंदगी को सामने लाया गया ह जहाँ वो पलपल सोचता है कि -' दिल की सुनु  तो तू है,दिमाग की सुनु तो तू नहीं। जान लूँ की जान दूँ,मैं रहूँ कि मैं नहीं।'      
            इस फिल्म को देखकर शुरू से लेकर अंत तक जेहन में बस एक शब्द गूंजता है-'इंतकाम'। इंतकाम की इस लड़ाई में एक इंसान की क्या हालत होती है जब वो अपने आप से, अपने परिवार से,अपने लोगों की श्रापित इंसानियत का शिकार होकर किस कदर हरपल घुट-घुट कर जीता है और उसके कदम कितनी बार लड़खड़ाते है सम्भलते है,इस हर एक पल के एहसास को महसूस करने के लिए ये फिल्म दर्शकों को मजबूर कर देती है। सरहद की लड़ाई से लेकर अपनों की लड़ाई तक, इंतकाम के आगाज़ से लेकर,इंतकाम से आज़ादी तक की कहानी को विशाल ने हैदर में समेटा है। इस फिल्म ने एक बार फिर साबित कर दिया कि बॉलीवुड में 'रंगीन मसालों' के बिना भी सफल फ़िल्में बनाई जा सकती है। जिसका श्रेय निर्देशकों के साथ-साथ उस दर्शक वर्ग को भी जाता है जिन्हें अब खूबसूरत वादियों में फिल्माया रोमांस रास नहीं आता। अब वो इन खूबसूरत वादियों की पीछे छिपे इसके सच को जानना चाहते है।  फिल्म के अंत में,तब्बू का 'इंतकाम' को लेकर तब्बू का अंतिम डायलाग जो मुझे पूरी फिल्म में सबसे ज्यादा पसंद आया आप सभी से शेयर करना चाहूंगी-
" इंतकाम से सिर्फ इंतकाम पैदा होता है और जब तक हम इंतकाम से आज़ाद नहीं हो जाते,तब तक हमें कोई आज़ादी आज़ाद नहीं कर सकती।"

स्वाती सिंह

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