रविवार, 28 सितंबर 2014

"मुझे यकीन होता है,कि यहाँ किसी पत्थर में चमकता हीरा नहीं है।" .....

कल दोपहर(26-09-2014) बीएचयू के राधाकृष्णनन सभागार मे एक भव्य कार्यक्रम का आयजन किया गया।सभागार के द्वार की दीवारों पर लगे मुक्तिबोध जी की कविता-पोस्टर और पुस्तक-प्रदर्शन देखकर इस कार्यक्रम की भव्यता का अंदाज़ा लग गया था।कविता-पोस्टर में,मुक्तिबोध जी एक कविता देखी-

" मुझे भ्रम होता है,कि प्रत्येक पत्थर में चमकता हीरा है।" बेहद पसंद आई ये कविता।
लेकिन जब पूरे कार्यक्रम के बाद जब बाहर निकलना हुआ तो यूँ लगा कि मानो इस कविता की पंक्तियाँ पूरी तरह उल्ट कर -"मुझे यकीन होता है,कि यहाँ किसी पत्थर में चमकता हीरा नहीं है।" बन गई हो।

सभागार के बाहर दीवारों पर जहाँ हर तरफ कविता-पोस्टर था तो वहीँ दूसरी ओर पुस्तक-प्रदर्शनी।पुस्तक-प्रदर्शनी का काम दो छात्राएं देख रहीं थी,जो हिंदी विभाग की थी और जहाँ तक मेरी जानकारी है उनमें से एक संयोजक महोदय जी की शोध-छात्रा थी।जिन्हें कबीर से उत्तर-कबीर तक वाले कार्यक्रम में भी पुस्तक-प्रदर्शनी में पुस्तक की दुकान पर देखा था।इसके बाद,पूरे कार्यक्रम में मंच पर बैठे अध्यक्ष-मंडल में मेरी निगाहें किसी महिला-कवियत्री को खोजती रहीं। लेकिन पूरे कार्यक्रम में उनका नामों-निशान तक नहीं मिला। अब बात आयी,युवतम कवि की,जिनमें कुल पांच कवियों ने कविता-पाठ किया।इनमें से मात्र दो छात्राएं(एम.ए द्वितीय वर्ष) की  थी।
इन सबके बाद दिमाग में आये इन सवालों ने कविता की उस पंक्ति को उल्ट दिया :-
*हमेशा स्त्री-विमर्श और स्त्री से जुड़े हर मुद्दे पर खुद को प्रगतिशील बताने वाले हमेशा लोगों को सिमोन की किताबें पढ़ने की सलाह देने वाले बुद्धिजीवी ऐसी गलती कैसे कर सकते है?
*बनारस से दिल्ली तक के सफ़र में,क्या इन्हें एक भी योग्य महिला-कवियत्री नहीं मिली जो इनके अध्यक्ष-मंडल में शामिल होने हो?
*बाज़ार और पूंजीवाद पर हमेशा बड़ी-बड़ी बात करने वाले क्यों हर बार उसी बाज़ार के नियमों पर चलते है?
*क्यों वे दुकान पर पुस्तक-बेचने के लिए हर बार लड़कियों को ही चयनित करते है?
*क्या उत्तर कबीर के युवतम-कवियों में बुद्धिजीवियों का विभाग मात्र दो युवा-महिला कवित्रियों को तलाश पाया?
*क्या पुस्तक-प्रदर्शनी की दुकान पर बैठी छात्राओं ने कभी कोई कविता या कहानी लिखी नहीं होगी? क्या इनपर पारखियों की नज़र नहीं पड़ी या जानबुझ कर नजरअंदाज़ कर दिया गया?
विभाग के एक प्रगतिशील और बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा जानेअनजाने में इतनी बड़ी भूल करना,समाज में गलत संदेश देता है।इन सभी बिन्दुओं पर जल्द-से-जल्द विचार कर प्रयोग में लाने की जरूरत है। कहीं ऐसा न हो की बहुत देर हो जाए और इन अभी उपमाओं के आगे 'तथाकथित' की उपमा अपना नाता जोड़ ले।
यूँ तो सवाल बहुत है लेकिन प्रचार के बाज़ार में वाह!वाह! की तेज़ आवाज़ वाले डीजे में क्या ये बात सही कानों तक पहुँच पाएगी? ये नहीं  पता...पर आवाज़ पहुचाने की कोशिश हमेशा जारी रहेगी। 

      आखिरकर ये कोशिश कुछ रंग लायी और मेरे प्रश्न सही कानों तक पहुँचे। जहाँ सही लोगों ने अप्रत्यक्ष रूप से अपनी बात रखी और सीधा निशाना मुझ पर साधा। प्रतिक्रिया सफाई, प्रश्नों, मतों और सलाहों में लिपटे आरोपों से पूर्ण था।

* पहली सफाई, अध्यक्ष-मंडल में महिलाओं की उपस्तिथि को लेकर थी। जिसमें,कहा गया कि महिला प्रोफेसरों ने नवरात्र का व्रत रखा था,इसलिए वे आमंत्रित करने के बाद भी नहीं आ सकी।            

जिस दिन ये कार्यक्रम हुआ वो नवरात्र का दूसरा दिन था और सिर्फ वे लोग ही नवरात्र के दूसरे दिन व्रत रखते जिन्हें पुरे नौ दिन तक व्रत करना होता है। तो क्या बनारस से लेकर दिल्ली तक की सभी हिन्दी-साहित्य से जुडी महिलाएं नवरात्र के नौ दिन तक व्रत रहती है। ये तर्क कम बहाना ज्यादा नजर आता है। खैर,विभाग के युवतम कवियों में मात्र दो छात्राओं की उपस्तिथि के बारे में क्या कहना चाहेंगे आप सब लोग? 

*  दूसरा प्रश्न,मेरे साहित्य-ज्ञान पर किया गया।

अब  इन सबका साहित्य-ज्ञान से क्या लेना-देना? मैंने मुक्तिबोध जी पर या किसी काव्य-पाठ करने वाली की गुणवत्ता पर कोई प्रश्न नहीं किया। और यदि इस बात पर माननीय बुद्धिजीवी इतना ज़ोर दे ही रहे तो मेरा प्रश्न ये है कि आपके पास तो मुझसे कई गुना ज्यादा साहित्य-ज्ञान है और कहा जाता है कि साहित्य आपको संवेदनशील बनाता है और आपलोगों इतनी असम्वेदनशीलता के साथ इतना बड़ा कार्यक्रम करवाना, कहीं ना कहीं आपकी गुणवत्ता को प्रश्नचिन्हित करता है।

* तीसरी सलाह मुझे पत्रकारिता के सिद्धांत को लेकर दी गयी। जिसमें कहा गया कि बिना छान बीन किये हमने कैसे ये प्रश्न खड़े कर दिए, इससे पता चलता है कि मुझे पत्रकारिता के सिद्धांत की समझ नहीं है।

साहब! सबसे पहले आपको बता दूँ कि हमने कोई फैसला नहीं सुनाया और ना ही किसी खबर को गलत तरीके से प्रस्तुत किया। पुरे कार्यक्रम में खुद मौजूद होने के बाद मैंने अपने प्रश्नों को सामने रखा है। जो कि पत्रकारिता के सिद्धांत के बिलकुल अनुकूल है। और जहाँ तक रही बात छानबीन की तो आपको बता दूँ कि इस कार्यक्रम के आयोजक महोदय से मेरी जान पहचान उतनी ही है जितनी की आप सभी की और इसी साल अप्रैल में वे मेरे एक कार्यक्रम में वक्ता भी थे और इस कार्यक्रम का पूरा आयोजन उनके निर्देशन में हुआ, जो उनके व्यक्तिव के बिलकुल विपरीत लगा। महोदय! जब कोई फिल्म थिएटर में लगती है जिनके कुछ दृश्य दर्शकों को नहीं भाते तो एक आम आदमी से लेकर मीडिया तक फिल्म-निर्माताओं से प्रश्न करती है। और तथ्यों से साथ इन प्रश्नों का जवाब देना उनकी जिम्मेदारी होती है। खुद को हमेशा प्रगतिशील और बुद्धिजीवी बताने वाले कार्यक्रम के संयोजक महोदय जैसे सम्मानित लोग ऐसी गलती  इतने बड़े मंच पर करे तो समाज में इसका क्या संदेश जाएगा? हमें इस बात पर गौर करना चाहिए क्यूंकि इस तरह की चीज़े एक इंसान को ही नहीं पुरे संस्थान और शिक्षा-प्रणाली को कटघरे में खड़ा कर देती है।             

* चौथा मत मीडिया को लेकर दिया माननीय लोगों के अप्रत्यक्ष प्रत्याशी ने दिया। उनका कहना था कि आज मीडिया की हालत देखी जा सकती है कि वे लोग कितनी असम्वेदनशीलता के साथ काम कर रहे है और आप ( मै ) भी उसी सिद्धांत पर काम कर रही है ।           

सज्जन से कहना चाहूँगी कि उन्होंने एकदम सटीक बात कही कि मीडिया सम्वेदनहीन होकर काम कर रहा है। जिसका उदाहरण है कार्यक्रम के दूसरे दिन का अखबार जहाँ हर तरफ इस कार्यक्रम की वाहवाही ही भरी थी। उनकी रिपोर्ट में दूर-दूर तक मेरे पूछे एक भी प्रश्न का एक अंश तक नहीं था।                            

 फेसबुक पर इन लम्बी बहसों से एक और बात सामने आयी कि अगर वास्तव में इन दी हुई सभी सफाईयों में एक प्रतिशत भी सच्चाई होती तो कमेंटकर्ताओं में कम-से-कम एक महिला या कार्यक्रम में उपस्तिथ किसी छात्रा का भी नाम शुमार होता।।।

इस पूरी बहस का दायरा कुछ प्रश्नों,मतों,आरोपों और सलाहों में सिमट कर रह गया। जो बेहद दुखद था। 

स्वाती सिंह


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