गुरुवार, 4 सितंबर 2014

भारतीय शिक्षा के आईने में 'लोकतंत्र'

'भारतीय इतिहास की कई घटनाएं इस बात की गवाह हैं कि दुश्मन का मुकाबला करने के लिए तो हमारी एकता कई बार बनी लेकिन दुश्मन पर विजय पाने के बाद हम क्या करेंगे,भावी मुकम्मिल योजना क्या होगी,यह विचार देश में मुकम्मिल ढंग से आगे नहीं बढ़ पाया। आज़ादी तो मिल गयी लेकिन आज़ादी के बाद की दुनिया हम कैसे बनाएँगे उसके बारे में बहुत स्पष्टता नहीं थी"।- राजमोहन गाँधी( प्रसिद्ध इतिहासकार,दार्शनिक और पत्रकार)
वर्तमान समय में,भारतीय शिक्षा के सन्दर्भ राजमोहन जी का ये कथन एकदम सटीक बैठता है। यूँ तो आज से साठ-पैसठ वर्ष पहले हमारा भारत आज़ाद हो गया था। आज़ादी के इतने सालों बाद क्या सच में हम आज़ाद हो पाए? इस सवाल का जवाब 'हाँ' में दे पाना मुश्किल है। समानता,साम्प्रदायिकता और जातिवाद जैसे जिन मुद्दों को लेकर 1857 में आज़ादी की जिस लड़ाई का आगाज हुआ,क्या वास्तव में,हमने उन मुद्दों पर आज़ादी हासिल कर ली? विशेषकर शिक्षा का मुद्दा,जिसके बूते दुनिया भर की सभ्यता,संस्कृति और समानता व स्वतन्त्रता जैसी अवधारणा तक हमारे देश में पहुची,जो न केवल देश के विकास के लिए ही नहीं देश की संस्कृति-साहित्य के लिए भी अहम है।1857 से 1947 तक के लम्बे समय के बाद,स्वाधीनता के इतने अनूठे हिंसारहित संघर्ष के बाद हासिल किया गया हमारा 'लोकतंत्र' क्या वास्तविक तौर पर 125 करोड़ की जनता तक पहुच पाया? ये कह पाना मुश्किल है। आज जब हम आये दिन अख़बार और न्यूज़ चैनलों में असमानता की बेचैन करने वाली खबरों को देखते है तो ऐसा लगता है मानो, स्वाधीनता की जटा से निकली गंगा को समाज के शीर्ष के दो-चार प्रतिशत अमीरों ने बांध बनाकर रोक लिया है।
            आज भारत की 74.04 प्रतिशत शिक्षित जनता में,जहाँ  82.1 प्रतिशत पुरुष है तो वहीँ दूसरी ओर,65.5 प्रतिशत महिला। भारत में हर साल 11 प्रतिशत यानि लगभग 30 लाख युवा स्नातक व स्नातकोतर करते है,लेकिन दुर्भाग्यवश! जिसमें उच्च शिक्षा के लिए सर्वे करने वाली संस्था ऐसोचैम के अनुसार,85 प्रतिशत भारतीय युवा अपनी योग्यता सिद्ध करने में असफल है। इससे पता चलता है कि हमारे देश के 650 शैक्षणिक संस्थान व 33,000 से ज्यादा डिग्री देने वाले कॉलेजों ने डिग्रीधारियों की तादात तो बढ़ा दी,लेकिन इनकी गुणवत्ता के लिए कोई खास काम नहीं किया। आज हमारे तथाकथित महान भारत में एक तरफ,भूख से मरते एक-एक कक्षा में सौ से भी अधिक बच्चे रोटी के जुगाड़ (मिड-डे-मील) के लिए स्कूल आते है तो वहीँ दूसरी ओर, एयरकंडिशन,प्रति कक्षा बीस से तीस बच्चे,हर वर्ष पन्द्रह दिन विदेशी स्कूल के साथ सहशिक्षा और इसके साथ ही घोड़े से लेकर हेलीकाप्टर तक सीखने की तैयारी करते है। जहाँ करोड़ों बच्चों के लिए तो स्कूल तक नहीं है। ऐसी असमान शिक्षा से हमारा देश किस समान देश की तरफ बढ़ रहा है और बढेगा?
                  यदि बात की जाय तकनीकी क्षेत्र में विकास की तो,पिछले तीन दशकों में,देश में हर वर्ष इंजिनीयर की संख्या करोड़ों हो गई है,लेकिन इसके बावजूद अभी-भी हम रक्षा,दवा,कृषि और तकनीक के क्षेत्र में पीछे है।क्या देश के इतने इंजिनीयर और करोड़ों बेरोजगार युवा इन क्षेत्रों में देश कोआत्मनिर्भर नहीं बना पा रहे? आज भारत मूल के तमाम वैज्ञानिक विदेशों में जा कर अपनी योग्यता का परचम लहरा रहे है,जिनकी रचनात्मकता को समझने में हमारा देश बौना साबित हो रहा है।चिकित्सा हो या विज्ञानं के दूसरे क्षेत्र क्यों दुनिया के प्रसिद्ध  जर्नल्स में हमारा एक भी शोध पत्र शामिल नहीं किया जाता?
भारत में शिक्षा के बिगड़ते हाल को एक साधारण से उदाहरण से समझा जा सकता है। भारत में क्रिकेट का कोई खिलाड़ी हो या फ़िल्मी-दुनिया की कोई हस्ती की जीवनी से लेकर दिनचर्या तक उनसे जुड़ी हर बात की जानकारी होती है हमे लेकिन यही प्रश्न अगर भारत के किसी वैज्ञानिक के बारे में पूछा जाय तो आधे से अधिक लोगों का डब्बा गुल वाली स्तिथि होती है। वहीँ दूसरी ओर, अगर आपसे किसी ऐसी भारतीय महिला वैज्ञानिक का नाम पूछा जाए जिन्हें नोबेल प्राइज से नवाजा गया हो तो आपके पास कोई उत्तर नहीं होगा। लेकिन हो सकता है आपके जेहन में एक बार सुनीता विलियम का नाम आये,जो भारतीय मूल की थी। तो आपको बता दें कि, वो वैज्ञानिक नहीं बल्कि एक इनजिनीयर थी।
वास्तव में ये सवाल है प्राथमिकताओं का, जिन्हें खड़ा करने का काम लोकतंत्र में कार्यपालिका,विधायिका और मीडिया करती है।
      बात करें शिक्षक बनने की,तो यूरोप के फ़िनलैंड या डेनमार्क में शिक्षक बनना सबसे मुश्किल है। क्यूंकि शिक्षक बनने के लिए उन्हें कई परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। लेकिन हमारे देश में,शिक्षा को लगातार निजीकरण का भोग बनने से कोई भी शिक्षक बन सकता है। उनके लिए बस एक योग्यता होनी चाहिए-अंगरेजी बोलना। इसके साथ ही,हमारे संविधान में सैक्युलर वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने का प्रावधान है। लेकिन इसे लागू करने की कोई व्यवस्तिथ योजना हमारे पास नहीं है,जिसे बनाने में हमारे ये अंगरेजी बोलते शिक्षक फेल होते दिख रहे है। हमारे देश में अंगरेजी के बढ़ते महत्व के लिए ये कहना उचित नहीं कि जिस अंगरेजी के बिना हमारे देश का तीन प्रतिशत पढ़ा-लिखा वर्ग हाय-हाय करने लगता है।क्या उन्हें ये पता है कि इंग्लैंड के पड़ोसी देश फ्रांस,स्पेन,इटली व जर्मनी कहीं भी अंगरेजी की शिक्षा नहीं दी जाती लेकिन इसके बावजूद वे विज्ञानं,खेल,कला व साहित्य के क्षेत्रों में हमसे कोसो आगे है। सिर्फ हमारे ही देश में ऐसा होता है कि गेट कीपर से लेकर साफ़-सफाई का काम करने वालों का अंगरेजी टेस्ट लिया जाता है,जो उनके कार्य-कौशल को प्रमाणिकता प्रदान करता है। क्या अंगरेजी भाषा को लादने के नाम पर देश की अधिसंख्यक जनता को लोकतंत्र से वंचित नहीं किया जा रहा?
     वर्ष 1979 में प्रसिद्ध वैज्ञानिक दौलत सिंह कोठारी समिति की सिफारिश पर भारतीय प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षा में अपनी भाषा में लिखने की छूट मिली थी, जो 2010 तक जारी रही। इसका परिणाम ये हुआ कि हिंदी के लगभग 15 प्रतिशत और बाकी भारतीय भाषा के लगभग 5 प्रतिशत चुने गये उमीदवारों में अधिकतर वे है जो पहली पीढ़ी की शिक्षित है। यानि कि जिनके माता-पिता मजदूर,सफाई कर्मचारी व आदिवासी है। 2011 में भारतीय भाषाओं पर पहला प्रहार किया गया जिसका परिणाम ये हुआ कि भारतीय भाषाओं में चुने जाने वाले उमीदवार जो 2010 तक 15-20 प्रतिशत थे घटकर 2-3 प्रतिशत हो गये। इन सब के बाद सबसे आश्चर्य की बात ये है कि हमारे देश के प्रमुख केन्द्रों में बैठे बड़े-बड़े पत्रकार और बुद्धिजीवी क्यों इन मुद्दों पर अपनी चुप्पी साधे है? क्यों वे हमारे प्राथमिकताओं के नये व सुदृढ़ स्तम्भ खड़े करते जिससे हमारे देश की जनता डिग्रीधारी नहीं शिक्षित हो सके?
उम्मीद है कि नयी व्यवस्था परिवर्तन के जो संकेत दे रही है,शायद शिक्षा में बेहतर बदलाव की शरुआत हो सके।

स्वाती सिंह


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