शुक्रवार, 10 जुलाई 2015

देवी ही तो थी वो

उस दौर में जब पति की मृत्यु होने पर पत्नियाँ अपने जीवन को उसकी चिता पर जिन्दा जलाकर खत्म कर देती थी। ऐसे दौर में  उनका एक कुशल शासिका के तौर पर शासन की बागडोर सम्भलना उनके सशक्त व्यक्तित्व का परिचायक है।






दुनिया में कभी भी कोई चीज़ ज़्यादा दिनों तक स्थायी नहीं रहती है। 'परिवर्तन' प्रकृति का नियम है। जो इस दुनिया का एक सच है। एक सच ये भी है कि वर्तमान के हर सवाल का जवाब हमें हमेशा हमारा बीता हुआ कल ही देता है। वो बीता हुआ कल जिसकी जगह आज एक नए परिवर्तन ने ले ली है। भारतीय इतिहास में भी कई ऐसी शख्सियत रहीं है, जो समाज में उन बड़े परिवर्तनों की कर्णधार बनी जिनकी चमक आज भी हमें रोशनी देती है| जिन्होंने इतिहास में अपनी एक अलग पहचान बनाई और अपने कर्तव्यों से इतिहास के पन्नों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है।

ऐसी शख्सियतें यूँ तो दुनिया को कुछ समय बाद अलविदा कह देती है। लेकिन उनके विचार और कार्य हमेशा उन्हें समाज में जिंदा रखते है| ऐसी ही शख्सियतों में से एक है - अहिल्याबाई साहिबा होल्कर।                     

रानी अहिल्याबाई का ताल्लुक भारतदेश के उस प्रान्त से है, जिस प्रान्त की पहचान भारतीय इतिहास के पन्नों पर मोटे स्वर्णिम अक्षरों में वर्णित सशक्त महिला महारानी लक्ष्मीबाई से की जाती है। यानी की मध्य प्रदेश। अहिल्याबाई का जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के चौण्डी नामक स्थान में मकोजी शिन्दे के घर हुआ। जब वे 10 साल की थी, तब उनका विवाह इतिहास-प्रसिद्ध सूबेदार मल्हारराव होल्कर के पुत्र खंडेराव से किया गया। खेलने-कूदने की नन्हीं उम्र में उन्हें उस रिश्ते में बाँध दिया गया, जिसका मतलब तक वो खुद नहीं जानती थी। विवाह के बाद अहिल्याबाई मालवा (वर्तमान में, मध्य प्रदेश) की रानी बनी। 29 वर्ष की उम्र में उनके पति का स्वर्गवास हो गया।

कम उम्र में विवाह हो जाने के कारण अहिल्याबाई अपनी शिक्षा-दीक्षा पूर्ण न कर सकी। विवाह से पहले उनके पिता ने गुरु की भूमिका निभायी। उन्होंने अहिल्याबाई को शासन व जीवन-सम्बंधित विभिन्न चुनौतियों का सामने करने का गुण सिखाया। वह एक कुशल योद्धा और तीरंदाज भी थी| पति का साथ छूटने के बाद अहिल्याबाई ने अपना संयम बनाए रखा और अपने ससुर यानी कि मल्लहारराव से अच्छे शासन के दांवपेंच सीखती रहीं| मल्लहारराव की मृत्यु के बाद अहिल्याबाई ने मालवा का शासन संभाला और करीब तीस तीस वर्षों तक मालवा में शासन किया। 42 वर्ष की आयु में उनके पुत्र का स्वर्गवास हो गया। जिसके बाद वे पूरी तरह अकेली हो गई। लेकिन एक कुशल शासक की तरह उन्होंने कभी-भी अपनी व्यक्तिगत समस्याओं को अपनी प्रजा के बीच नहीं आने दिया।                

अहिल्याबाई का शासनकाल भारतीय इतिहास में वर्णित एक स्थायी शासनकाल माना जाता है। जहां की स्थिति एकसमान रही। न बेहद युद्ध, न साम्राज्य का ज़्यादा विस्तार और न किसी तरह की आपदा। उन्होंने अपने शासनकाल में अपने साम्राज्य में सुख-शान्ति और विकास को कायम रखा। उन्होंने मालवा प्रान्त में इंदौरे नामक शहर की स्थापना करवायी। अहिल्याबाई ने विधवाओं के पक्ष में कई सुधार-कार्य किए। उन्होंने दत्तक-पुत्र की प्रथा को मान्यता दिया। इसके साथ ही साथ उन्होंने जनता के लिए भारत के अलग-अलग भागों में कई मंदिरों और  धर्मशालाओं का निर्माण करवाया| कलकत्ता से बनारस तक सड़क, बनारस में अन्नपूर्णा का मंदिर, गया में विष्णु मंदिर भी बनवाया| जनता के लिए नलकूपों और सराय  भी बनवाना । कहा जाता है कि अहिल्याबाई शिव की भक्त थी और उन्होंने विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया था|      

इंदौर में देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी है। आज अहिल्याबाई की पहचान भी इसी विश्वविद्यालय से की जाती है| ठाणे में बच्चों के लिए अहिल्याबाई देवी होल्कर उद्यान की भी स्थापना की गयी। उन्होंने शिक्षा की महत्ता और समाज की मूलभूत ज़रूरतों को पूरा करने पर विशेष ध्यान दिया। अहिल्याबाई की इसी प्रजापालक- नीति और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर प्रजा उन्हें देवी समझने लगी थी। इतना ही नहीं, उनके नाम के आगे देवी लगाया जाने लगा। इंदौर में प्रतिवर्ष भाद्रपद कृष्णा चतुर्दशी के दिन अहिलयोत्सव होता चला आया है।     

13 अगस्त 1775 में अहिल्याबाई ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। लेकिन उनके विचार और इतिहास में उनकी विशिष्ट पहचान आज भी इस शख्सियत को जिन्दा रखे हुए है।
उस दौर में जब पति की मृत्यु होने पर पत्नियाँ अपने जीवन को उसकी चिता पर जिन्दा जलाकर खत्म कर देती थी। ऐसे दौर में अहिल्याबाई का एक कुशल शासिका के तौर पर शासन की बागडोर सम्भलना उनके सशक्त व्यक्तित्व का परिचायक है।

ऐसी आत्मशक्ति और आत्मविश्वास को देखकर उस समाज का इन्हें देवी मान लेना कोई आश्चर्य की बात नहीं। अपने दुखों को भूलकर प्रजा का ख्याल रखना और समाज के हर तबके की ज़रूरत व विकास के लिए आवश्यक स्रोंतों को उपलब्ध कराना और वो भी एक महिला के हाथों, वास्तव में ये  किसी न किसी चमत्कारिक शक्ति के ही सूचक लगते है। और जिनके पास ये शक्ति हो उन्हें 'देवी' ही तो कहा जाता है।


स्वाती सिंह

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें