रविवार, 6 सितंबर 2015

तिरंगे में लहराई वो संघर्ष-दास्तां


ब्रिटिश शासन के दौरान भारतवासी दासता से जकड़े माहौल में अपना जीवन गुजारने के लिए मजबूर थे लेकिन उस दासता में भी कैद की दोहरी दासता की जिंदगी गुजारती थी - उस समय की महिलाएं समाज में धनी परिवार की महिलाएं अगर अच्छी तालीम हासिल कर भी लें, फिर भी उनके पास ऐसा कोई मंच नहीं था जहां वे अपने विचारों को रख सकें और न ही समाज में उन्हें और उनके विचारों को वो महत्ता दी जाती थी जिससे वे अपने लिए, अपने विचारों के लिए मंच बना सके|



लेकिन जब साल 1907 में स्टुटगार्ड (जर्मनी) की सरजमीं के ‘अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद सम्मेलन’ में तिरंगा फहराकर उन्होंने आत्मविश्वास के साथ सभी भारतवासियों को संबोधित करते हुए कहा - यह भारतीय स्वतंत्रता का ध्वज है। इसका जन्म हो चुका है। हिन्दुस्तान के युवा वीर सपूतों के रक्त से यह पहले ही पवित्र हो चुका है। यहाँ उपस्थित सभी महानुभावों से मेरा निवेदन है कि सब खड़े होकर हिन्दुस्तान की आज़ादी के इस ध्वज की वंदना करें| तब सभा में मौजूद सभी लोगों की नज़रें उनपर आ टिकी और वे अपनी जगह खड़े होकर ध्वज की वंदना करने लगे|

ये न तो कोई क्रांतिकारी परिवार से थी और न ही किन्हीं हालातों से मजबूर होकर वे क्रांतिकारी बनीं| चौबीस सितंबर साल 1861 में बंबई के एक धनी पारसी परिवार में जन्मी भारतीय मूल की फ्रांसीसी नागरिक भीकाजी कामा स्वभाव से ही समाजसेवी थी तमाम ऐशो-आराम में पली-बढ़ी कामा को यूँ तो कभी भी दासता के जीवन-संघर्ष का सामना नहीं करना पड़ा, लेकिन इसके बावजूद वे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य से देश को आज़ाद करवाने की लड़ाई में आजीवन शामिल रही|

मैडम कामा की अंग्रेजी भाषा पर अच्छी पकड़ थी| बचपन से ही वो सच्ची देशभक्त थी| उन्हें राजनीतिक मुद्दों पर बात करना बेहद पसंद था| कामा की शादी एक अमीर सामाजिक कार्यकर्ता व वकील रुस्तम केआर कामा से हुई| विचारधारा के आधार पर वे दोनों बिल्कुल अलग थे| केआर कामा जहां ब्रिटिश शासन को सही मानते थे, वहीं भीकाजी इसकी सख्त विरोधी थी|

साल 1896 में जब देश में प्‍लेग फैला तो अपनी जान की परवाह किए बगैर भीकाजी ने मरीजों की भरपूर सेवा की और स्‍वतंत्रता की लड़ाई में बढ़-चढ़कर हिस्‍सा लिया। बाद में वो लंदन चली गईं और उन्‍हें भारत आने की अनुमति नहीं मिली। लेकिन देश से दूर रहना उनके लिए संभव नहीं हो पाया और वो फिर से अपने वतन लौट आईं। सामाजिक कार्यों में अत्यधिक व्यस्त रहने की वजह से उनका स्वास्थ बिगड़ गया, जिसके उपचार के लिए उन्हें 1902 ई में इंग्लैण्ड जाना पडा। वहाँ वे 'भारतीय होम रूल समिति' की सदस्या बनी श्यामजी कृष्ण वर्मा ने उन्हें 'इण्डिया हाउस' के क्रांतिकारी दस्ते में शामिल कर लिया गया|

मैडम कामा ने श्रेष्ठ समाज सेवक दादाभाई नौरोजी के यहां भी सेक्रेटरी के पद पर कार्य किया। उन्होंने यूरोप में युवकों को एकत्रकर स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए मार्गदर्शन किया और ब्रिटिश शासन के बारे में जानकारी दी। मैडम कामा ने लंदन में पुस्तक प्रकाशन का काम भी शुरू किया। उन्होंने विशेषत: देशभक्ति पर आधारित पुस्तकों का प्रकाशन किया। 

वीर सावरकर की ‘1857 चा स्वातंत्र्य लढा’ (1857 का स्वतंत्रता संग्राम) पुस्तक प्रकाशित करने के लिए उन्होंने सहायता की। मैडम कामा ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए क्रांतिकारियों को आर्थिक सहायता के साथ ही अनेक प्रकार से भी सहायता की।

मैडम कामा ने 1905 में अपने सहयोगी विनायक दामोदर सावरकर और श्यामजी कृष्ण वर्मा की मदद से भारत के ध्वज का पहला डिजाइन तैयार किया| ये तिरंगा तब वैसा नहीं था, जैसा हमें आज दिखाई देता है| भारत के इस पहले झंडे में हरा, केसरिया और  लाल रंग के पट्टे थे। लाल रंग यह शक्ति का प्रतीक है, केसरिया विजय का और  हरा रंग साहस उत्साह का प्रतीक है। उसी तरह  8 कमल के फूल भारत के 8 राज्यों के प्रतीक थे। वन्दे मातरम् यह देवनागरी अक्षरों में झंडे के बीच में लिखा था। इसे आज भी पुणे के मराठा और केसरी लाइब्रेरी में सुरक्षित रखा गया है| साल 1907 में जर्मनी के स्ट्रटगार्ड नामक जगह पर अंतरराष्ट्रीय साम्यवादी परिषदसंपन्न हुई थी। इस परिषद के लिए कई देशों के हजारों प्रतिनिधी आए थे। उस परिषद में मैडम भीकाजी कामा ने साड़ी पहनकर भारतीय झंडा हाथ में लेकर लोगों को भारत के विषय में जानकारी दी। इसके बाद से उन्हें ‘क्रांति-प्रसूता’ कहा जाने लगा|

वह अपने क्रांतिकारी विचार अपने समाचारपत्र ‘वंदे मातरम्’ और ‘तलवार’ के माध्यम से लोगों तक पहुंचाती थी| उनकी लड़ाई दुनियाभर के साम्राज्यवाद के खिलाफ़ थी| मैडम कामा के सहयोगी उन्हें भारतीय क्रांति की माता मानते थे, जबकि अंग्रेज उन्हें खतरनाक क्रांतिकारी, अराजकतावादी क्रांतिकारी और ब्रिटिश विरोधी कहते थे| यूरोप के समाजवादी समुदाय में मैडम कामा प्रसिद्ध थी| यूरोपीय पत्रकार उन्हें भारतीय राष्ट्रीयता की महान पुजारिन कहकर बुलाते थे|

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान उन्हें काफ़ी कष्ट झेलने पड़े। भारत में उनकी सम्पत्ति जब्त कर ली गई। उन्हें एक देश से दूसरे देश में लगातार भागना पड़ा। वृद्धावस्था में वे भारत लौटी और 13 अगस्त, 1936 को बम्बई (वर्तमान मुम्बई) में गुमनामी की हालत में उनका देहांत हो गया।
यूँ तो मैडम कामा को इस दुनिया से रुखसत हुए कई साल बीत चुके है, लेकिन आज भी भारतीय स्वतंत्रता की इस महान शख्सियत की संघर्ष-दास्तां देश के तिरंगे में लहराती है|
स्वाती सिंह  




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