गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

गुलाम वंश का सफल सुल्तान : इल्तुमिश

भारतीय इतिहास में दर्ज इल्तुतमिश का नाम उन सफल शासकों में शुमार है, जिन्हें कभी भी किसी पुरानी रीति के चलते अपने भविष्य को खतरे डालना गवारा नहीं था। इल्तुतमिश ने अपने जीवन जहां एक ओर सफल योद्धा की तरह अपनी जीत का परचम लहराते हुए अपना साम्राज्य-विस्तार किया। वहीं दूसरी ओर स्थापत्य-कला व अन्य प्रशासनिक सुधारों से जनता का प्रिय शासक भी कहलाया। 



चौकोर बॉक्सनुमा पत्थर की कटाई और उसपर बारीक नक्काशियों की साज-सज्जा के साथ कुरान में लिखी बातों को उकेरना। इस कला को आज के समय में एक इमारत का रूप दे पाना वाकई मुश्किल है। आज से करीब आठ सौ साल पहले, जब ना तो आज की तरह आधुनिक मशीनें हुआ करती थी और न तकनीक, उस समय कठोर पत्थरों पर शानदार नक्काशी करके विशाल इमारत खड़ा कर देना अजूबा ही तो है। और ये अजूबा मुझे देखने को मिला दिल्ली के क़ुतुब मीनार काम्प्लेक्स में बनी इल्तुतमिश की कब्र के रूप में। जिसे उन्होंने अपनी मृत्यु के एक साल पहले बनवाया था। ऐसा भी माना जाता है कि भारत में बनने वाली यह पहली इस्लामिक कब्र है।
सैकड़ों साल पहले बनी यह नायाब कब्र हमेशा इस शासक के बारे में जानने के लिए हमारी जिज्ञासा बढ़ाती है। इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत में गुलाम वंश का एक ऐसा सफल शासक था, जिसने इतिहास में अपनी एक अलग पहचान बनाई। गुलाम वंश के संस्थापक क़ुतुब-बिन-ऐबक के दामाद इल्तुतमिश 1211 इस्वी से लेकर 1236 इस्वी तक शासन किया। इल्तुतमिश को सिंहासन तो मिला लेकिन साथ में मिली कई सारी कठिनाइयां और लोगों का विरोध। अचानक मौत हो जाने के कारण कुतुबद्दीन ऐबक अपने किसी उत्तराधिकारी का चुनाव नहीं कर सका था। इसलिए लाहौर के तुर्क अधिकारियों ने कुतुबद्दीन ऐबक के विवादित पुत्र आरामशाह को लाहौर की गद्दी पर बैठाया, पर दिल्ली के तुर्को सरदारों और नागरिकों के विरोध के बाद कुतुबद्दीन ऐबक के दामाद इल्तुतमिश को दिल्ली आमंत्रित करके राज्यसिंहासन पर बैठाया गया। इस तरह ऐबक वंश के बाद इल्बारी वंश का शासन शुरू हुआ।

फ़रवरी, 1229 में बग़दाद के ख़लीफ़ा से इल्तुतमिश को सम्मान में ‘खिलअत’ और प्रमाण पत्र से नवाज़ा गया। ख़लीफ़ा ने इल्तुतमिश के जीते सभी क्षत्रों की पुष्टि कर दी। साथ ही ख़लीफ़ा ने उसे 'सुल्तान-ए-आजम' (महान शासक) की उपाधि भी दी।
इल्तुतमिश पहला तुर्क सुल्तान था, जिसने पहली बार शुद्ध अरबी सिक्के चलवाये। उसने सल्तनत काल में दो ख़ास सिक्के 'चाँदी का टका' (लगभग 175 ग्रेन) और 'तांबे' का ‘जीतल’ चलवाया। इल्तुतमिश ने सिक्कों पर टकसाल के नाम अंकित करवाने की परम्परा को भी शुरू किया। इल्तुतमिश ने ‘इक्ता व्यवस्था’ का प्रचलन किया और राजधानी को लाहौर से दिल्ली स्थानान्तरित किया।इसके साथ ही, स्थापत्य कला के तहत इल्तुतमिश ने कुतुबुद्दीन ऐबक के निर्माण कार्य को पूरा करवाया। जिसमें दिल्ली में स्थित कुतुबमीनार का काम महत्वपूर्ण है। जिसे इल्तुतमिश ने पूरा करवाया। और भारत में सम्भवतः पहला मक़बरा निर्मित करवाने का श्रेय भी इल्तुतमिश को दिया जाता है। इल्तुतमिश ने बदायूँ की जामा मस्जिद और नागौर में अतारकिन के दरवाज़ा का निर्माण करवाया। ‘अजमेर की मस्जिद’ का निर्माण इल्तुतमिश ने ही करवाया था।
इल्तुतमिश ने अपने जीवन जहां एक ओर सफल योद्धा की तरह अपनी जीत का परचम लहराते हुए अपना साम्राज्य-विस्तार किया। वहीं दूसरी ओर स्थापत्य-कला व अन्य प्रशासनिक सुधारों से जनता का प्रिय शासक भी कहलाया। लेकिन इल्तुतमिश के उत्तराधिकार के संबंध में लिए गए फैसले के लिए आज भी उन्हें न केवल याद किया जाता है, बल्कि वास्तविक रूप में एक दूरगामी सोच वाला सफल शासक भी माना जाता है। इल्तुतमिश ने रज़िया सुल्तान को अपना उत्तराधिकारी बनाया, जो भारत की पहली मुस्लिम शासिका बनी। अपने अंतिम दिनों में इल्तुतमिश अपने उत्तराधिकार के सवाल को लेकर चिन्तित था। इल्तुतमिश के सबसे बड़े पुत्र नसीरूद्दीन महमूद की, जो अपने पिता के प्रतिनिधि के रूप में बंगाल पर शासन कर रहा था, 1229 ईस्वी में मौत हो गई। सुल्तान के बाकी बेटे शासन कार्य के लिए योग्य नहीं थे। नतीजतन इल्तुतमिश ने अपनी मृत्यु शैय्या पर से अपनी पुत्री रज़िया को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
भारतीय इतिहास में दर्ज इल्तुतमिश का नाम उन सफल शासकों में शुमार है, जिन्हें कभी भी किसी पुरानी रीति के चलते अपने भविष्य को खतरे डालना गवारा नहीं था। कर्म को सर्वोपरि रखने वाले इन्हीं शासकों की देन है जो आज से सैकड़ों-हजारों साल पहले हमारे समाज में कई सकारात्मक परिवर्तनों ने अपनी जगह बनाई। शायद यही वजह है कि इन शासकों के नाम न तो इतिहास के पन्नों से कभी ओझल हो पाते है और न इनकी बनाई इमारतें हमारे शहर से।

स्वाती सिंह





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