फ़रवरी की हल्की सर्दी आते ही बचपन के वो दिन याद आने लगते है, जब हम अपने बोर्ड एग्जाम की तैयारी में जोर-शोर से लगे रहते थे। और हमें अपनी शिक्षिका की दी हुई सभी नसीहतें याद आने लगती थी। जिसपर अमल करके हम सभी कड़ी मेहनत किया करते। उस समय भी आज के समय की ही तरह हमारी कक्षाओं में लड़कियां अव्वल दर्जे पर आती थी। पर आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि आज से करीब 160 साल पहले लड़कियों के लिए स्कूल खोलना भी पाप माना जाता था। इतना ही नहीं, जब लड़कियां स्कूल जाती थीं, तब लोग पत्थर मारते थे। ऐसे में ये जानना भी दिलचस्प होगा कि देश की पहली शिक्षिका कौन होगी? जिन्होने देश में महिला शिक्षा की नींव रखी। आइये तो आज हम आपको देश की पहली शिक्षिका से रु-ब-रु करवाते है......।
सावित्रीबाई फुले भारत की पहली शिक्षिका और पहले किसान स्कूल की संस्थापिका थी। सावित्रीबाई को महाराष्ट्र और भारत में सामाजिक सुधार आंदोलन में एक ख़ास व्यक्तित्व माना जाता है। उन्हें महिलाओं और दलितों को शिक्षित करने के प्रयासों के लिए जाना जाता है। सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को हुआ था। इनके पिता का नाम खन्दोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मी था। सावित्रीबाई फुले का विवाह 1840 में ज्योतिबा फुले से हुआ था।
सावित्रीबाई ने अपने जीवन को एक मिशन की तरह से जीया जिसका उद्देश्य था-विधवा विवाह करवाना, छुआछूत मिटाना, महिलाओं की मुक्ति और दलित महिलाओं को शिक्षित बनाना। वे एक कवियत्री भी थीं, उन्हें मराठी की आदिकवियत्री के रूप में भी जाना जाता था। अपने पति ज्योतिराव गोविन्दराव फुले के साथ मिलकर स्त्रियों के अधिकारों और शिक्षा के लिए बहुत से कार्य किए।जब सावित्रीबाई कन्याओं को पढ़ाने के लिए जाती थीं, तो रास्ते में लोग उन पर गंदगी, कीचड़ और गोबर तक फेंका करते थे। वो एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थी और स्कूल पहुंचकर गन्दी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं। इस तरह वे लोगों को हमेशा अपने पथ पर चलते रहने कीं प्रेरणा देती थी। साल 1848 में, पुणे में अपने पति के साथ मिलकर कई जातियों की नौ छात्राओं के साथ उन्होंने एक विद्यालय की स्थापना की। एक साल में सावित्रीबाई और महात्मा फुले पांच नए विद्यालय खोलने में सफल हुए। सरकार ने उनकी इस सफलता को सम्मानित भी किया। एक महिला प्रिंसिपल के लिए साल 1848 में बालिका विद्यालय चलाना कितना मुश्किल रहा होगा, इसकी कल्पना आज के समय में नहीं की जा सकती है। लड़कियों की शिक्षा पर उस समय सामाजिक पाबंदी थी।
सावित्रीबाई उस दौर में न सिर्फ खुद पढ़ी, बल्कि उन्होंने दूसरी लड़कियों की भी शिक्षा-व्यवस्था पर ध्यान दिया।सावित्रीबाई की मृत्यु भी समाजसेवा के क्षेत्र में एक बलिदान ही थी। 10 मार्च 1897 को प्लेग की वजह से सावित्रीबाई का निधन हो गया। प्लेग महामारी में सावित्रीबाई प्लेग के मरीजों की सेवा किया करती थी। एक प्लेग के छूत से प्रभावित बच्चे की सेवा करने की वजह से वह भी प्लेग ग्रसित हो गयी और उनकी मृत्यु हो गयी।
स्वाती सिंह
महिला अधिकारों और जागरूकता की मिसाल रही सावित्री बाई फूले. एक बेहतर लेख
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