'मीडिया' यानी कि संचार का एक ऐसा माध्यम, जो 'लोक' को 'तंत्र' से और 'तंत्र' को 'लोक' से जोड़ने का काम करता है। लेकिन इस मीडिया का काम सिर्फ यहीं खत्म नहीं होता, ये माध्यम समाज को आईना दिखाने और अपनी संस्कृति व इतिहास को समेटे भविष्य की ओर बढ़ने की तरफ़ भी मार्गदर्शिका के तौर पर एक प्रभावी माध्यम है।
'नाटक' संचार माध्यमों में से सबसे प्रभावशाली माध्यम है। जो ना केवल समाज के इतिहास और उसके संस्कृति को अपने साथ लिए चलता है, वरन् ये समाज के उन छिपे कोनों को भी उजागर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जो समाज की चमकदार चादर के पीछे छिपाए या यूँ कहें कि, रौंद दिए जाते है।
वर्तमान समय में जहां एक ओर नाटक की संस्कृति विलुप्त होती दिख रही है, तो वहीं दूसरी ओर आज के दौर के युवाओं का संचार कला की इस विधा की ओर बढ़ते रुझान ने इस विलुप्त होती संस्कृति में मानो दुबारा जान फूंकने का काम किया है। युवाओं द्वारा लिखित नाटकों की विशेषता है,' इन नाटकों का वर्तमान-समाज से सरोकार होना'।
इलेक्ट्रॉनिक सदी में जीने वाली ये युवा-पीढ़ी द्वारा निर्मित इन नाटकों का मंचन चकाचौंध वाली हाईवोल्टेज वाली रंगीन रोशनी में तो अक्सर देखा जाता है, लेकिन जब इसी युवा-पीढ़ी द्वारा निर्मित नाटकों का मंचन मशालों की रोशनी में किया जाता तो ये हर दर्शक के मानस-पटल पर अपनी एक विशेष छाप छोड़ती है। और जब ऐसे नाटक समाज के उन मुद्दों पर आधारित होते है जिन्हें मुठ्ठी भर लोग अपने स्वार्थों की रोटी सेंकने के काम लाते है और जिनकी आंच में जलती है-इंसानियत, तो ऐसे नाटक लोकप्रियता की बुलंदी छुने के साथ-साथ नाटक की सार्थकता और सफलता को भी प्रमाणित करती है।
कुछ दिन पहले, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के राधा कृष्णनन हाल (कला संकाय) में ऐसे ही एक नाटक का मंचन पत्रकारिता एवमं जनसम्प्रेषण विभाग के युवा-छात्रों ने किया।
जुस्तजू थी जमाने को जिसकी सुबहों-शाम।
कब्र में बैठा मिला, देखो मुझे वो राम।।
'कब्र में राम'?????????
अरे साहब! ये कल्पना नहीं, हक़ीक़त है, अपने समाज की। जो दिखाई पड़ती है, मानव-निर्मित 'आडम्बर-धर्म' के नाम पर कत्ले-आम करते वक़्त।
जब इंसानियत ताक़ पर रख कर एक खूनी जूनून लोगों के सर चढ़ कर बोलने लगता है। तब क्या राम? क्या रिज़वान?....!!! समाज की ये कड़वी सच्चाई लोगों को नज़र तो आती है। अंदाज-ए-ब्यान में कहा जाए तो,
'दिलों की दूरी मिटाने में कहीं इतनी देर ना हो जाए,कि कब्र में जाकर ये दूरी मिटानी पड़ जाए, क्योंकि ये शहर जिन्दा मुर्दों से सजता है.....'।
इसी तर्ज पर आधारित नाटक -"हमज़मींन" का मंचन इन छात्रों ने किया। नाटक रजनीश मणि द्वारा लिखा गया। 'एकता' की एक आवाज, बर्फ़ीली पड़ती इंसानियत के नाम पर लिखा गया नाटक 'हमज़मींन'। ये नाटक आधारित है, कब्र में दफ़न दो मुर्दों के बीच हुए संवाद पर। जिस संवाद में बयां करते है अपनी दर्दनाक मौत की दास्तां। जब उनके अपनों ने उन्हें 'आडम्बर-धर्म' के अंधेपन में उन्हें मौत के घाट उतार दिया।
नाटक में जहां एक ओर समाज के पुरौधों द्वारा भड़काए दंगों में झुलसती इंसानियत को दर्शाया गया, वहीं दूसरी ओर, शमसान की उन कड़वी सच्चाई को भी बखूबी उभारा गया, जब कुछ बेकसूर बेजुबानों को जन्म लेते ही दफना दिया जाता है।
नाटक में हिन्दू-मुस्लिम के प्रेम-विक्षोभ को कविता और शयराना अंदाज़ में दिखाया गया। नाटक के ये दृश्य जहां समाज की इस कड़वी सच्चाई का सजीव चित्रण कर आत्मा को झकझोरने पर मजबूर करती है, तो वहीं दूसरी ओर हर दृशय में उठायी गयी समस्याओं के बीच शायराना अंदाज़ में ब्यान उम्मीद, इंसानियत और जिंदादिली भरे संवाद, जैसे-
मजहब की ऊँची दीवारों के तले, अपनी अंतिम सांसे लेते प्यार को कुछ इस अंदाज़ में अपनी नयी दुनिया बसाने को कहा गया-
'गमों की आंच पर आँसू उबाल कर देखो,
बनेंगे रंग किसी पर डाल कर देखो।
तुम्हारे दिल की चुभन भी जरूर कम होगी,
किसी के पाँव का कांटा निकाल कर तो देखो।
वहीं दूसरी ओर, समाज के मुठ्ठी भर मठाधीशों की ऊँचीं कोठियों और बस्तियों की बीच की गहरी फांक को कुछ इस अंदाज-ए-ब्यान किया गया-
'आज के दौर में ऐसी गलतियां नहीं होती
कत्ल करने वालों को फांसियां नहीं होती।
हर तरफ गरीब की ही बस्ती जलती है
वर्क के निशाने पे ये कोठियां नहीं होती।।
उम्मीद की उस अलख ज्योति का दीदार कराते है, जो ये एहसास दिलाती है कि 'इंसानों के जहन के किसी कोने में अब भी इंसानियत के कुछ जर्रे बाकी है।'
नाटक में समस्या से समाधान तक, जिन्दगी से श्मसान तक,महफ़िल से वीरान तक और हैवान से इंसान तक के सफ़र को बेहद बख़ूबी और जिंदादिली से दर्शाया गया। जो इस नाटक को देखने वाले हर एक दर्शक को ना केवल एक बार सोचने पर मजबूर करती है, बल्कि ये दर्शकों के मानस-पटल पर अपनी एक अमिट छाप भी छोड़ती है।
इस नाटक में, अनुपम सिंह, विकास चंद्रा, सविता उपाध्याय, दिव्यांशु श्रीवास्तव, वरुण गुप्ता,सौरभ यादव,रिचर्ड होरो,प्रियंका सिंह व स्वाती सिंह ने अपने अभिनय से नाटक के किरेदारों को बखूबी निभाया। वहीं अनामिका हल्दर, चमरं व विकास के अपने सुरों को जोड़कर इस नाटक को और भी प्रभावशाली बनाया।
तो
सलाम! युवाओं की इस सोच को,
सलाम! युवाओं के इस जोश को,
सलाम! युवाओं की रचनात्मकता को,
और हर हमज़मींन को।
स्वाती सिंह
प्रिय खुकु,
जवाब देंहटाएंआज तुम्हारे सारे ब्लागों को पढ़ा. विषयों का चुनाव अच्छा लगा. तुम्हारे लिखावट की लय भी अच्छी लगी. मुझे पता नहीं कि अच्छी, प्रेरक हिंदी कैसे लिखते हैं. पर अच्छी कम्पल्सिव अंग्रेजी के कुछ गुण मुझे मालूम हैं. शायद वो तुम्हारे कुछ काम आयें. अभी मैं जल्दी में हूँ. मौका मिलते ही मैं तुम्हें लिखूंगा.
दादा
प्रिय खुकु,
जवाब देंहटाएंअच्छी कम्पल्सिव अंग्रेजी लिखने के लिए विलियम ज़िन्न्सर की किताब "ऑन राइटिंग वेल" पत्रकारों की बाईबिल मानीजाती है. मेरे सुझाव उसी किताब पर आधारित हैं.
१. काम्प्लेक्स सेंटेंसेस के बजाय सिम्पुल सेंटेंसेस बेहतर संवाद करते हैं.
२.बड़े भारीभरकम शब्दों के बजाय साधारण रोजमर्रा के शब्द बेहतर संबाद करते हैं.
३. जितने कम शब्दों में अपनी बात कहोगे, संवाद उतना ही शक्तिशाली होगा, कम्पल्सिव होगा.
४. लेख लिखलो. फिर हर उन शब्दों को काट दो जो जरूरी नहीं हैं. अपने संवाद को अक्षुण रखते हुए जितने शब्दों को कम करोगे , तुम्हारा सम्प्रेषण उतना ही जोरदार होता जायेगा.
४.अपनी बात को कभी भी किसी भी सूरत में दुहराओ मत. यह पाठक को खिजाता है गोया उससे कहता हो "तुम बवकूफ हो."
५.कभी भी वह चीज मत लिखो जो पाठक जानता है या जिसका वह अंदाजा लगा सकता है.
६.पैसिव वोयस की जगह एक्टिव वोयास का इस्तेमाल करो.यह पाठक के जेहन में चित्र उकेरता है जो कोम्पल्सिव लेखन का अत्यावश्यक अंग है.
७. एक्टिव क्रियाओं का इस्तेमाल करो. ये भी जेहन में इमेज बनाती है, जबरदस्त संवाद करती हैं.
८.एक राइटिंग प्रोजेक्ट में चार-पांच विचार देने की कोशिश मत करो , दो भी नहीं, सिर्फ एक विचार दो. फैसला करो तुम कौन सा विचार (आईडिया) देना चाहते हो. उसे पूरी सिद्दत से कहो. अपने प्रोजेक्ट को देश, काल और व्यति में रिड्यूस करो - एक व्यक्ति की एक लक्ष्य को हासिल करने की जद्दोजेहद. तुम्हारे लेख का फोकस और शार्प हो जायेगा, वह जबरदस्त कम्पल्सिव प्रोज बन जायेगा. उसे इग्नोर करना मुश्किल से मुश्किलतर होता जायेगा.
९.और अंत में - लेखन का निचोड़ है पुनर्लेखन. जोरदार लेखक अपने लेखन को दर्जनों बार काटते-पीटते हैं, घटाते-बढ़ाते हैं,चुस्त-दुरुस्त करते हैं. कोई भी लेख दुनिया के सामने तब तक न आने दो जब तक वह तुम्हें पूरी तरह से संतुष्ट न कर दे. याद रखो लेखन की दुनिया में रेस क्वालिटी के लिए है,जल्दबाजी में कुछ भी लिख देने के लिए नहीं.
दादा
खुकु,
हटाएंटिप्पणी का अंतिम हिस्सा देखा क्या?
दादा