रविवार, 28 अगस्त 2016

‘जेंडर’ से बनाई जाती है महिलाएं...!

शिवधाम कॉलोनी का सबसे ऊंचा हवेली जैसा मकान टंडन अंकल का था| और भला होता भी क्यों न? टंडन अंकल आईएएस और उनका बेटा आईपीएस जो थे| आंटी ने हिंदी से पीएचडी की थी और हाउसवाइफ थी| घर में सबसे छोटी थी उनकी बेटी- अंजली| आईआईटी एग्जाम में अंजली की टॉप फ़िफ्टी में रैंक थी| लेकिन इसके बावजूद उसका एडमिशन घर के पास वाले प्राइवेट कॉलेज में बीए के कोर्स में करवा दिया गया| इसपर टंडन आंटी अक्सर कहा करती कि ‘क्या करेगी इतना पढ़-लिखकर, घर में सभी तो है कमाने वाले| बस बीए के बाद अच्छे घर में शादी करवा देंगे, घर में बैठकर राज करेगी, बस|' आंटी, अंजली को हमेशा एक आदर्श-शाही बहू बनने के सभी गुण सिखाती रहती थी| इसे देखकर ऐसा लगता जैसे अंजली को उसकी अपनी पहचान से दूर समाज की गढ़ी लड़की होने की परिभाषा वाले सांचे में ढाला जा रहा हो|

यह कहानी उस जमाने की है, जब हम खुद को ‘वेल-एजुकेटेड-मॉडर्न एंड सिविलाइजड’ कहकर कभी टीवी के सामने अपने कान खड़े करके यूपीएससी टॉपर टीना डाबी का इंटरव्यू सुनते है, तो कभी ओलंपिक गेम में महिला-खिलाड़ियों के शानदार प्रदर्शन को देखने के लिए मोहल्ले-कॉलोनियों में बड़े परदे लगवाते है| महिलाओं के संदर्भ में हमारा समाज हमेशा सकारात्मक परिवर्तन का पक्षधर रहा है और इसकी शुरुआत की आस भी इसने निरंतर लगाये रखी है| पर दुर्भाग्यवश वह इसका आगाज पड़ोसी के घर से चाहता है| समाज की कथनी और करनी के बीच का फ़र्क समाज के उन दोहरे-मानकों को उजागर करता है, जिससे हम आधुनिकता की नकली खोल के नीचे संकीर्ण-पितृसत्तात्मक सोच को साफ़ देख सकते है|

महिलाओं के सन्दर्भ में सिमोन द बोउवार ने कहा था कि ‘महिला होती नहीं, बल्कि बनाई जाती है’| समाज में महिलाओं के इस निर्माण-कार्य और उनके हिस्से आती ‘असमानता’ का विश्लेषण किया जाए तो हम इसका एक प्रमुख कारक - ‘जेंडर की अवधारणा’ को पाते है| 


जेंडर का ताल्लुक समाज में स्त्री-पुरुष के बीच गैर-बराबरी के आईने से है| यह अंग्रेजी के ‘सेक्स’ या हिंदी के ‘लिंग’ से अलग है| ‘सेक्स’ का संबंध महिला-पुरुष के बीच शारीरिक बनावट के फ़र्क से है| वहीं, ‘जेंडर’ का संबंध महिला-पुरुष के बीच सामाजिक तौर पर होने वाले फ़र्क से है| पितृसत्तात्मक समाज की संरचना जेंडर-विभेद पर आधारित होती है| जैसे - बेटे की चाह, कन्या-हत्या, स्त्री-पुरुष में भेदभाव व सामाजिक कामों में स्त्रियों का पुरुषों से नीचे का दर्जा| जेंडर हमें इन सभी सामाजिक-भेदभाव को समझने का नजरिया देता है| सरल शब्दों में कहा जाए तो यह एक इनफार्मेशन है, जो ज्ञान के रास्ते से होकर गुजरता है और हमें समाज में सोचने समझने का नजरिया देता है|

यह सत्य है कि स्त्री-पुरुष दोनों ही जैविक संरचना है| पर इनकी पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक व राजैनैतिक भूमिका का निर्धारण ‘जेंडर’ करता है| जेंडर, अस्मिता की पहचान का सबसे मूक घटक है जो हमें स्त्री व पुरुष की निर्धारित सीमा को परिभाषित करने और दुनिया को देखने के नजरिए की नाटकीय भूमिका को बताता है। यह केवल लिंगों के बीच के अंतर को नहीं बताता बल्कि सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक स्तर पर सत्ता से इसके संबंध को भी परिभाषित करता है|

ब्रिटिश समाजशास्त्री व नारीवादी लेखिका ऐना ओक्ले के अनुसार ‘जेंडर’ सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना है, जो स्त्रीत्व और पुरुषत्व के गुणों को गढ़ने के सामाजिक नियम व कानूनों का निर्धारण करता है। उनका मानना था कि जेंडर समाज-निर्मित है, जिसमें व्यक्ति की पहचान गौण होती है और समाज की भूमिका मुख्य। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, जैविक बनावट और संस्कृति के अंतरसंबंधों की समझ को अगर हम जेंडर पर लागू करें तो निष्कर्ष यही निकलता है कि महिलाओं के शरीर की बनावट भी सामाजिक बंधनों और सौन्दर्य के मानकों द्वारा निर्धारित की गई है। शरीर का स्वरूप जितना प्रकृतिसे निर्धारित हुआ है उतना ही संस्कृतिसे भी। इस प्रकार महिलाओं की  मौजूदा अधीनता, उनकी जैविक असमानता से पैदा नहीं होती है बल्कि यह समाज में उनपर केंद्रित सामाजिकसांस्कृतिक मूल्यों और संस्थाओं की ही देन है|

जेंडर की अपनी कोई मुकम्मल परिभाषा नहीं है| कुछ विद्वानों ने इसे भाषा के संदर्भ में देखा तो कुछ ने सामाजिक संदर्भों में| इसके अतिरिक्त जेंडर को इतिहास, संस्कृति, प्रकृति, सेक्स और सत्ता से जोड़कर भी देखनें व समझने का प्रयास किया गया। स्त्री के संदर्भ में हमेशा से यह माना गया है कि वह एक ऑब्जेक्ट है|

हिंदी-प्रसिद्ध लेखिका महादेवी वर्मा लिखती हैं - स्त्री न घर का अलंकार मात्र बनकर जीवित रहना चाहती है, न देवता की मूर्ति बनकर प्राण प्रतिष्ठा चाहती है। स्त्री और पुरुष, शरीर के केवल एक गुणसूत्र के अलग होने मात्र से हम स्त्री के व्यक्तित्व को पूर्णतः पुरुष से अलग कर देते हैं| जबकि ऐसा नहीं है यह शारीरिक संरचना भर है’|

समाज में स्त्री को हमेशा उन्ही अपराधों के लिए सजा दी जाती है, जिसकी जिम्मेदार वह खुद नहीं होती है। उसका स्त्री होना उसका नहीं, बल्कि सत्ता, समाज और संस्कृति की परवरिश रही है और उस परवरिश से उभरे गुण उसकी सीमा रेखा। जिसने जाने-अनजाने में उसे स्वयं के प्रति ही अपराधी बना दिया। फिर वह अपराध उसका सौंदर्य, शीलभंग, अवैध गर्भधारण व गर्भ में पुत्री की माँ होना ही क्यों ना हो, जिसने समाज के समक्ष उसे उपेक्षित व हास्यास्पद बनाया है।

यह सत्ता और समाज ही है जिसने हमें सिखाया कि लड़कियाँ नाजुक होती है, इसलिए उन्हें गुड़ियों से खेलना चाहिए और लड़के शक्तिशाली होते है, इसलिए उन्हें क्रिकेट और कबड्डी जैसे खेल खेलने चाहिए| इस तरह हम ‘शक्ति’ के इस तथाकथित पैमाने को अपनाने लगते है। जेंडर व्यवहार मूलक समाज-निर्मित है| इसमें केवल स्त्री ही शामिल नहीं है, बल्कि वह भी शामिल है जो मान्य लिंगों से अलग है, जिनमें पुरुष और स्त्री के समलैंगिक संबंध व उसमें आई जटिलताएं भी शामिल हैं।






ज़रूरी है आज फेमिनिस्ट होना....

औरतों और पुरुषों को बराबर मानने वाला और उनकी बराबरी के लिए लड़ने वाला हर इंसान फेमिनिस्ट कहलाता है| फेमिनिस्ट विचार यह नहीं है कि सत्ता के ढांचे को पलट दिया जाए बल्कि फेमिनिस्ट विचार यह है कि औरतों और पुरुषों के बीच सत्ता का संबंध ख़त्म हो जाए|


आजकल लोग अपने नाम के आगे किसी भी तरह के ‘-इस्टऔर इज्म का टैग लगने से खुद को दूर रखना चाहते हैं| उन्हें लगता है कि इससे उनकी एक छवि बन जाएगी| और दूसरों का उनके बारे में सोचने का दायरा छोटा हो जाएगा| ऐसे दौर में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा का खुद को ‘फेमिनिस्ट’ कहना वाकई काबिले तारीफ़ है| अपने जन्मदिन के दिन ‘गैल्मर’ मैगज़ीन के लिए उन्होंने एक लेख लिखा, जो दुनिया की राजनीति या अर्थव्यस्था से परे केंद्रित था - महिलाओं पर| उन्होंने अपने लेख में लिखा-  
 ‘औरत होने के लिए ये एक अच्छा समय है| ऐसा मैं अमेरिका के राष्ट्रपति के तौर पर ही नहीं, एक फेमिनिस्ट होने के तौर पर कह रहा हूं| अपनी बेटियों साशा और मालिया को पालते हुए मैंने यह महसूस किया है कि लड़कियों के ऊपर समाज का कितना प्रेशर रहता है| यह हमें दिखता नहीं| पर हमारा कल्चर चुपके-चुपके उनके दिमाग में यह भर रहा होता है कि उन्हें कैसा दिखना है, किस तरह का बर्ताव करना है| यहां तक कि किस तरह सोचना है| हमें यह सोच बदलनी होगी, जिसके चलते लड़कियों को चुप-चाप रहना और लड़कों को मर्दाना होना पड़ता है| जो हमारी बेटियों को खुलकर बोलने और लड़कों को आंसू बहाने से रोकता है| हमें खुद को बदलना होगा|’

कहते है न कि ‘बात निकलेगी तो दूर तल्क जायेगी’| अब जब बराक ओबामा जी ने फेमिनिस्म (नारीवाद) पर बात शुरू की है तो इस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए हम भारतीय सन्दर्भ में भी इसपर एक चर्चा करते है|
सर्वप्रथम, हमारे समाज में नारीवाद को समझने से पहले उन भ्रांतियों का जिक्र करना ज़रूरी है जो ‘नारीवाद’ शब्द को हमारे बीच कुख्यात करने में अहम भूमिका निभा रहा है| जैसे - नारीवाद का मतलब पुरुषों की आलोचना करना है; सिर्फ महिलाएं ही नारीवादी हो सकती है; नारीवादी होने का तात्पर्य मातृसत्ता से है या हर कामयाब औरत नारीवादी होती है, इत्यादि|
नारीवाद से जुड़ी ये सभी ऐसी भ्रांतियां है जिसने हमारे समाज में ‘नारीवाद’ शब्द को एक ऐसे टैग के तौर पर प्रसिद्ध कर दिया है जिससे आज हर शख्स अपने आपको बचाने की कोशिश करता है|
इन सभी भ्रांतियों के विपरीत, नारीवाद एक ऐसा दर्शन है, जिसका उद्देश्य है - समाज में नारी की विशेष स्थिति के कारणों का पता लगाना और उसकी बेहतरी के लिए वैकल्पिक समाधान प्रस्तुत करना| नारीवाद ही बता सकता है कि किस समाज में नारी-सशक्तीकरण के कौन-कौन से तरीके या रणनीति अपनाई जानी  चाहिये। लेकिन दुर्भाग्यवश आज भी हमारे समाज में बहुत से लोग यह मानते ही नहीं कि महिलाओं की स्थिति दोयम दर्ज़े की है। महिलायें किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं हैं, इसके बावजूद उन्हें अवसरों से वन्चित कर दिया जाता है| - नारीवाद ऐसी परिस्थितियों के विषय में बताता है|



नारीवाद को राजनैतिक आंदोलन का एक ऐसा सामाजिक सिद्धांत भी माना जाता है जो स्त्रियों के अनुभवों से जनित है। हालांकि नारीवाद मूलतः सामाजिक संबंधो से अनुप्रेरित है पर कई स्त्रीवादी विद्वान का मुख्य जोर लैंगिक असमानता और औरतों के अधिकार पर होता है|

भारत की ऐतिहासिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विभिन्नता से जन्मी परिस्थितियों के चलते ही भारत में नारीवाद की प्रकृति और प्रवृत्ति पश्चिम के नारीवाद से अलहदा रही है। यहां नारीवाद की शुरुआत ‘वैचारिक संघर्ष’ से हुई जिसकी अगुआई पुरुषों ने की थी| और बाद में इसमें स्त्रियां शामिल हुई। इन्हीं भिन्नताओं के कारण पश्चिमी देशों में महिलाओं को नागरिक अधिकारों के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा; जबकि भारतीय महिलाओं को मताधिकार और अन्य नागरिक अधिकार स्वत: ही प्राप्त हो गए। पर दुर्भाग्यवश नारीवाद के आगमन का प्रमुख कारक ‘वैचारिक संघर्ष’ आज भी नए-नए रूप लिए हमारे समाज में कायम है| 
नारीवाद का सबसे बड़ा योगदान है "सेक्स" और "जेन्डर" में भेद स्थापित करना है| सेक्स एक जैविक शब्दावली है, जो स्त्री और पुरुष में जैविक भेद को प्रदर्शित करती है| वहीं जेन्डर शब्द स्त्री और पुरुष के बीच सामाजिक भेदभाव को दिखाता है| जेन्डर शब्द इस बात की ओर इशारा करता है कि जैविक भेद के अतिरिक्त जितने भी भेद दिखते हैं, वे प्राकृतिक न होकर समाज द्वारा बनाये गये हैं और इसी में यह बात भी सम्मिलित है कि अगर यह भेद बनाया हुआ है तो दूर भी किया जा सकता है|



भारत में नारीवाद की उपयोगिता पर प्रश्न लगाने वाले तर्क देते हैं कि भारतीय नारी तो नारीत्व का, ममता का, करुणा का मूर्तिमान रूप है और पश्चिम की नारीवादी महिलाएँ उसे भी अपनी तरह भ्रष्ट कर डालना चाहती हैं| अब सवाल यह है कि वर्तमान समय में सिर्फ़ भारत, अमेरिका या यूरोप ही नहीं, बल्कि एशिया, दक्षिण अमेरिका, अफ़्रीका के भी देशों में नारी आज अपनी परिस्थितियों को बदलने की माँग कर रही है और वह भी बिना अपनी संस्कृति को छोड़े|

नारीवाद, औरतों की निर्णय लेने और चयन की स्वतन्त्रता की बात करता है, न कि सभी औरतों को अपने स्वाभाविक गुण छोड़ देने की, चाहे वे नारीसुलभ गुण हों या कोई औरआज हमारे समाज में भ्रूण-हत्या, लड़का-लड़की में भेद, दहेज, यौन शोषण, बलात्कार आदि ऐसी कई समस्याएँ हैं, जिनके लिए एक संगठित विचारधारा की ज़रूरत है| इसलिए आज भारत में नारीवाद की सख्त ज़रूरत है| भारतीय नारीवाद, जो कि भारत में नारी की विशेष परिस्थितियों के मद्देनज़र एक सही और संतुलित सोच तैयार करते हुए ‘वैचारिक संघर्ष’ में विराम लगा सके| ताकि नारी-सशक्तीकरण के कार्य में सहायता मिले

स्वाती सिंह 


बुधवार, 10 अगस्त 2016

कल्पना से परे एक नायिका : सफर दो रूपये से पांच सौ करोड़ रूपये तक

 दो रुपए की कमाई से अपनी जिंदगी शुरू करने वालीं कल्पना सरोज ने बहुत संघर्ष किया है। आज वे जिस मुकाम पर हैं, वहां पहुंचना सबके लिए आसान नहीं। सही मायने में वे इस देश की किशोरियों के लिए जीवन-आदर्श हैं। समय के साथ अपनी पहचान बना चुकीं कल्पना को कमानी ट्यूब्स नाम की कंपनी चलाने का मौका मिला जो कर्ज में डूबी थी। मगर उन्होंने नवीनीकरण करते हुए इसकी हालत बदल दी। आज कमानी ट्यूब्स 500 करोड़ रुपए से अधिक मूल्य की बढ़ती हुई कंपनी है।



 इंटरनेट पर मैंने ट्रेन का स्टेटस चेक किया। पता चला कि ट्रेन समय पर चलेगी। उस दिन मेरी किस्मत अच्छी थी। रास्ते में कहीं ट्रैफिक जाम नहीं दिखा। मैं समय पर स्टेशन पहुंच गई। वाराणसी स्टेशन पर वह ट्रेन सिर्फ दस मिनट के लिए रुकती थी। इसलिए मैं बिना समय गंवाए तुरंत अपनी सीट पर जा पहुंची। मेरे सामने वाली सीट पर पहले से एक लड़की बैठी थी। उसे देख कर मैंने मुस्कुरा कर उसका अभिवादन किया। उसने भी मुस्कुराते हुए मेरे अभिवादन को स्वीकार किया। ट्रेन निर्धारित समय पर चल पड़ी। 

 उस लड़की ने पूछा कि आप दिल्ली जा रही हैं? मैंने जवाब दिया - जी। ......और आप? उसने कहा - हां, मैं भी वहीं जा रही हूं। धीरे-धीरे हमारी बातों का सिलसिला शुरू हुआ।

 उसका नाम आस्था था और वह लखनऊ की रहने वाली थी। संयोग से वह भी मेरी तरह बीएचयू की छात्रा थी। आस्था दृश्य-कला से एमएफए की पढ़ाई कर रही थी। उसने बताया कि वह अपनी बनाई एक डाक्यूमेंट्री दिल्ली में होने वाले फिल्म महोत्सव में प्रदर्शित करने जा रही है। मैंने  उससे पूछा कि यह किस विषय पर है, तो आस्था ने बताया कि यह एक ऐसे महिला की कहानी है, जिसने अपने जीवन में दो रुपए की कमाई से 500 करोड़ रुपए तक की कंपनी चलाने तक का सफर तय किया है।

  मुझे यह कहानी काल्पनिक फिल्म जैसी लगी। बनारस से दिल्ली तक पहुंचने में अभी काफी वक्त था और मैं उस  महिला के बारे में जानना चाहती थी। आस्था ने बताया कि उसने काफी शोध करने के बाद यह फिल्म बनाई है। उसके पास उस महिला के बारे में तथ्यात्मक जानकारी थी। ट्रेन में नेटवर्क की समस्या के कारण मैंने गूगल की बजाय आस्था से ही उस शख्सियत के बारे जानना बेहतर समझा। मेरे आग्रह पर उसने बताना शुरू किया -

  ‘महाराष्ट्र के अकोला जिले में एक छोटा-सा गांव रोपरखेड़ा है। वहीं एक दलित परिवार में कल्पना सरोज का जन्म हुआ। उनके पिता हवलदार थे। छोटे-से पुलिस क्वार्टर में कल्पना अपने माता-पिता, दो भाई, दो बहन, दादा-दादी और चाची के साथ रहती थीं। पिता के 300 रुपए के मासिक वेतन पर पूरे परिवार का खर्च चलता। कल्पना घर के पास ही सरकारी स्कूल में पढ़ने जाती थीं। जहां उन्हें दलित होने पर अपने शिक्षकों और सहपाठियों की उपेक्षा का शिकार होना पड़ता। शाम को स्कूल से लौटने के बाद उन्हें गोबर उठाने और खेतों का काम करने के साथ चूल्हे के लिए लकड़ी चुनने भी जाना पड़ता था। 

  कल्पना के गांव में लड़कियों को जहर की पुड़ियाकहा जाता था और उनसे निज़ात पाने के लिए लड़कियों की शादी छोटी उम्र में कर दी जाती थी। जब कल्पना 12 साल की थीं और सातवीं कक्षा में पढ़ती थीं, तब उनकी शादी उनसे उम्र में बड़े लड़के से करवा दी गई। शादी के बाद वे मुंबई चली गर्इं। वहां उनकी हालत दयनीय थी। एक इंटरव्यू में कल्पना जी ने कहा - मेरे ससुराल वाले मुझे खाना नहीं देते, बाल पकड़ कर बेरहमी से मारते, जानवरों से भी बुरा बर्ताव करते। कभी खाने में नमक को लेकर मार पड़ती, तो कभी कपड़े साफ ना धुलने पर धुनाई हो जाती.....।

  उनकी हालत दिन-प्रतिदिन बदतर होती जा रही थी। एक दिन पिता उनसे मिलने आए। कल्पना की बुरी दशा देख कर उनको अपने साथ गांव लेकर चले गए, पर मायके में भी आस-पड़ोस और नाते-रिश्तेदारों के तानों ने उनका जीना मुश्किल कर दिया। एक दिन इन सबसे तंग आकर उन्होंने आत्महत्या करने की कोशिश की, लेकिन किस्मत को शायद कुछ और मंजूर था। उनकी जान बच गई। इसके बाद उन्होंने सोचा कि जब कुछ करके मरा जा सकता है, तो इससे अच्छा ये है कि कुछ करके जिया जाए।

 फिर उन्होंने कई जगह नौकरी पाने की कोशिश की, लेकिन कम शिक्षा और छोटी उम्र की वजह से उन्हें कहीं काम नहीं मिल पाया। इसके बाद उन्होंने अपने चाचा के पास मुंबई जाने का फैसला किया। उन्होंने कल्पना जी को एक कपड़ा मिल में काम दिलवा दिया। वहां उन्हें धागा काटने के दो रुपए महीने मिलते थे। इसके बाद उन्होंने सिलाई-मशीन से काम शुरू किया, तो उनकी तनख्वाह बढ़ा कर सवा दो रुपए महीने कर दी गई।  

  इसी बीच उनके पिता की नौकरी किसी कारणवश छूट गई और उनका पूरा परिवार उनके साथ मुंबई रहने लगा। इस दौरान गरीबी के कारण वे अपनी बीमार बहन का इलाज नहीं करवा पाई और उसका देहांत हो गया। यह सब देख कर कल्पना ने गरीबी को अपने जीवन से मिटाने का निश्चय किया। उन्होंने अपने छोटे-से घर में कुछ सिलाई मशीनें लगवार्इं और 16-16 घंटे काम करना शुरू किया, लेकिन इससे उन्हें ज्यादा पैसे की बचत न हो पा रही थी। इसलिए उन्होंने अपना कारोबार शुरू करना चाहा, लेकिन इसके लिए बड़ी पूंजी की ज़रूरत थी। उन्होंने सरकार से पचास हज़ार रुपए का कर्ज लेने की योजना बनाई मगर बिचौलियों की धोखाधड़ी से तंग आकर उन्होंने कुछ लोगों के साथ मिल कर एक संगठन बनाया, जो लोगों को सरकारी योजनाओं के बारे में बताता था और कर्ज दिलाने में मदद करता था। धीरे-धीरे यह संगठन प्रसिद्ध हो गया। समाज के लिए निस्वार्थ भाव से काम करने के कारण कल्पना जी की पहचान कई बड़े लोगों से हो गई।

  इसके बाद उन्होंने महाराष्ट्र सरकार की महात्मा ज्योतिबा फुले योजना के अंतर्गत पचास हजार रुपए का कर्ज लिया और 22 साल की उम्र में फर्नीचर का व्यापार शुरू किया। इसमें उन्हें काफी सफलता मिली और फिर कल्पना जी ने एक ब्यूटी पार्लर खोला। इसके बाद उन्होंने स्टील फर्नीचर के एक व्यापारी से विवाह कर लिया, पर वे 1989 में एक पुत्री और एक पुत्र का भार उन पर छोड़ इस दुनिया से चले गए।

 अपनी पहचान बना चुकीं कल्पना को कमानी ट्यूब्स नाम की कंपनी चलाने का मौका मिला जो कर्ज में थी। यह एक मुश्किल काम था, लेकिन उन्होंने नवीनीकरण करते हुए कंपनी की हालत बदल दी। वे कहती हैं, ‘मैं यहां काम करने वालों को न्याय दिलाना चाहती थी। मैं कर्मचारियों की स्थिति समझ सकती थी जो अपने परिवार के लिए भोजन जुटाना चाहते थेआज कमानी ट्यूब्स 500 करोड़ रुपए से अधिक मूल्य की एक बढ़ती हुई कंपनी है।

  इस उपलब्धि के लिए कल्पना जी को 2013 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। कोई बैंकिंग पृष्ठभूमि न होते हुए भी सरकार ने उन्हें भारतीय महिला बैंक के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स में भी शामिल किया।

  आस्था ने बताया कि वह कल्पना सरोज पर आधारित अपनी इस फिल्म को एक एनजीओ के ज़रिए उन तमाम बच्चों और महिलाओं तक पहुंचाने का काम करेगी, जिनके पास बेहतर जिंदगी के साधन उपलब्ध नहीं हैं। कल्पना जी कहानी के जरिए हम गरीबी और हालात से निराश लोगों को जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा दे पाएंगे।

  सचमुच, कल्पना जी की यह कहानी कल्पना से भी परे है। मैंने आस्था को उसके इस नेक और रचनात्मक काम के लिए शुभकामनाएं दी। इस तरह उस दिन एक प्रेरणादायक शख्सियत से रू-ब-रू होने का मेरा एक यादगार सफर बन गया।  


स्वाती सिंह 

बुधवार, 3 अगस्त 2016

विकास का जीवन-आदर्श : बाबर अली

 सबसे छोटा हेडमास्टर 

आज के समय में जब हम सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं और जीवन को सफल बनाने की दौड़ में भागते रहते हैं, ऐसे में बाबर अली जैसे बच्चे भी हैं जो देश और समाज के लिए एक मिसाल हैं। बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले का यह लड़का सरकारी स्कूल में पढ़ता है और स्कूल न जाने वाले ग्रामीण बच्चों को खुद पढ़ाता है। आज उसके स्कूल में सैकड़ों बच्चे तालीम हासिल कर रहे हैं। वह दुनिया का सबसे छोटा हेडमास्टर है। उससे बेहतर जीवन-आदर्श आजकल के बच्चों के लिए भला कौन हो सकता है?



स्कूल के दिनों में मैं सुबह सात बजे बस अड्डे पर पहुंच जाती थी। तब मेरे स्कूल का समय साढ़े सात बजे से था।अपने घर से बस अड्डे तक जाते समय एक मैदान में कई बच्चों को मैं खेलते हुए देखती तो मुझे आश्चर्य होता कि क्या ये पढ़ने नहीं जाते जो स्कूल के समय यहां खेलने आ जाते है? मेरे मन में यह एक बड़ा सवाल था। 
 एक दिन घर के पास रहने वाली आशा आंटी से मैंने उनके बारे में पूछ ही लिया। उन्होंने बताया कि ये सभी बच्चे पास के एक गांव से आते हैं। गरीबी के कारण ये स्कूल नहीं जाते क्योंकि इनके लिए पढ़ाई से ज्यादा जरूरी अपने परिवार की मदद करना है। इनमें से कोई दिनभर माता-पिता के साथ र्इंट-पत्थर का काम करता है, तो कोई चाय की दुकान पर लोगों को चाय पिलाता है। इनका समय इन्हीं कामों में बीत जाता है। इसलिए ये बच्चे सुबह यहां आकर अपना मन बहला लेते है। उनके घर में किसी ने स्कूल का मुंह नहीं देखा। 

 यह जान कर मुझे बहुत दुख हुआ। तभी मैंने सोच लिया कि एक दिन मैं ऐसे बच्चों को जरूर पढ़ाऊंगी। जब तक स्कूल में पढ़ाई चलती रही, तब तक इतना वक्त नहीं मिल पता था कि इस बारे में सोच भी पाऊं, पर जब कॉलेज की पढ़ाई शुरू हुई, तो शाम को मैं अपने घर के आसपास के बच्चों को पढ़ाने लगी। शुरू में चार से पांच बच्चे पढ़ने आते थे, लेकिन धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती गई।

 इनमें कई बच्चे ऐसे थे जिन्होंने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा था, मगर पढ़ाई के प्रति उनकी लगन गजब की थी। एक दिन मैंने सभी बच्चों को अपने जीवन-आदर्श पर एक निबंध लिख कर लाने के लिए कहा। अगले दिन बच्चों ने अपने-अपने लिखे निबंध मुझे दिखाए। जिसमें किसी के आदर्श गांधीजी थे, तो किसी के चाचा नेहरू। मगर विकास का जीवन-आदर्श सबसे अनूठा था। उसने अपने निबंध में लिखा था -

    ‘मेरा जीवन-आदर्श बाबर अली है। उसे अक्तूबर 2009 में बीबीसी की तरफ से दुनिया का सबसे छोटा हेडमास्टरका खिताब दिया गया। तब वह सिर्फ 16 साल का था। बाबर का स्कूल उसके घर से करीब 12 किलोमीटर दूर है। वहां रिक्शे सिर्फ दस किलोमीटर तक ही जाते हैं। बाकी दो किलोमीटर की दूरी वह पैदल तय करता है। बाबर के घर में ऐसा कोई नहीं था जो कभी स्कूल गया हो, पर उसके माता-पिता चाहते हैं कि वह पढ़-लिख कर एक अच्छा इंसान बने।
  बाबर के घर के आसपास कई बच्चे गरीबी और गांव के पास स्कूल न होने की वजह से नहीं पढ़ पाते थे और छोटी सी उम्र में दूसरों के घरों और खेतों में काम करते। इससे उन्हें इतना पैसा नहीं मिलता कि वे अपने लिए एक किताब भी खरीद सकें। 
  बाबर ने इन्हीं बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। उसका घर इतना बड़ा नहीं था कि वह किसी बड़े कमरे में सबको पढ़ा सके। उसके घर के पीछे एक बड़ा बरामदा था, जहां इन बच्चों को वह पढ़ाने लगा। दिनभर स्कूल में अपनी पढ़ाई करने के बाद शाम को बाबर ने इन बच्चों के लिए छोटे-से स्कूल की तरह एक शुरुआत की। अब यहां करीब आठ सौ छात्र पढ़ रहे हैं। ये सभी बच्चे दिनभर अपना काम खत्म करने के बाद यहां आकर पढ़ाई करते हैं। 
 बाबर किसी बड़े स्कूल में नहीं पढ़ता। वह भी मेरी तरह एक सरकारी स्कूल में पढ़ रहा है। वह स्कूल में पढ़ाए गए सभी पाठ को मन लगा कर याद कर लेता है और फिर अपने स्कूल के बच्चों को पढ़ाता है। बाबर अपने साथ-साथ इतने सारे बच्चों को शिक्षा दे रहा है, जिसकी व्यवस्था उसके गांव में नहीं है।  
  बाबर ने अपनी इस मुहिम के बारे में बताया कि शुरू में तो मैं अपने दोस्तों के साथ सिर्फ पढ़ाई का खेल करता था, लेकिन फिर महसूस किया कि इस तरह तो बच्चे कभी लिखना-पढ़ना नहीं सीख सकेंगे। उन्हें पढ़ाना मेरा फर्ज है।’  
  बाबर की इस पहल से उस क्षेत्र की साक्षरता दर बढ़ी  है और उसे इसके लिए कई इनाम भी मिले हैं। बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में रहने वाले बाबर की कहानी मेरे जीवन से मिलती-जुलती है। जिस तरह उसने अपनी सभी मुश्किलों को पार कर मिसाल कायम की है, मैं भी उसी तरह अपने घर के आसपास के बच्चों को भी पढ़ा कर उन्हें आगे बढ़ने में मदद करना चाहता हूं.........।

  सातवीं कक्षा में पढ़ने वाला विकास स्वभाव से जितना शर्मीला है, पढ़ाई में उतना ही गंभीर। उसका यह निबंध दिल को छू गया। मैंने उससे पूछा कि उसे बाबर अली के बारे में इतना सब कुछ कैसे मालूम? तब उसने बताया कि पिछले महीने जब मैं सभी बच्चों को कंप्यूटर में इंटरनेट चलाना सिखा रही थी, तब उसने दुनिया के सबसे छोटे हेडमास्टरको सर्च किया और उसे बाबर अली के बारे में पता चला। उसके बारे में सभी जानकारियों को अपनी कॉपी में लिख लिया था।

  बाबर की कहानी जानने के बाद विकास ने भी अपने घर के आसपास के पांच बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया है। 

 आज के समय में जब हम सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं और जीवन को सफल बनाने की दौड़ में भागते रहते हैं, ऐसे में बाबर अली जैसे बच्चे भी हैं जो देश और समाज के लिए एक मिसाल हैं। बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले का यह लड़का सरकारी स्कूल में पढ़ता है और स्कूल न जाने वाले ग्रामीण बच्चों को खुद पढ़ाता है। आज उसके स्कूल में सैकड़ों बच्चे तालीम हासिल कर रहे हैं। वह दुनिया का सबसे छोटा हेडमास्टर है। उससे बेहतर जीवन-आदर्श आजकल के बच्चों के लिए भला कौन हो सकता है?