दो रुपए की कमाई से अपनी जिंदगी शुरू करने वालीं कल्पना सरोज ने बहुत संघर्ष किया है। आज वे जिस मुकाम पर हैं, वहां पहुंचना सबके लिए आसान नहीं। सही मायने में वे इस देश की किशोरियों के लिए जीवन-आदर्श हैं। समय के साथ अपनी पहचान बना चुकीं कल्पना को कमानी ट्यूब्स नाम की कंपनी चलाने का मौका मिला जो कर्ज में डूबी थी। मगर उन्होंने नवीनीकरण करते हुए इसकी हालत बदल दी। आज कमानी ट्यूब्स 500 करोड़ रुपए से अधिक मूल्य की बढ़ती हुई कंपनी है।
इंटरनेट
पर मैंने ट्रेन का स्टेटस चेक किया। पता चला कि ट्रेन समय पर चलेगी। उस दिन मेरी
किस्मत अच्छी थी। रास्ते में कहीं ट्रैफिक जाम नहीं दिखा। मैं समय पर स्टेशन पहुंच
गई। वाराणसी स्टेशन पर वह ट्रेन सिर्फ दस मिनट के लिए रुकती थी। इसलिए मैं बिना
समय गंवाए तुरंत अपनी सीट पर जा पहुंची। मेरे सामने वाली सीट पर पहले से एक लड़की
बैठी थी। उसे देख कर मैंने मुस्कुरा कर उसका अभिवादन किया। उसने भी मुस्कुराते हुए
मेरे अभिवादन को स्वीकार किया। ट्रेन निर्धारित समय पर चल पड़ी।
उस लड़की ने पूछा कि आप दिल्ली जा
रही हैं? मैंने जवाब दिया - जी। ......और आप? उसने कहा - हां, मैं भी वहीं जा रही हूं। धीरे-धीरे
हमारी बातों का सिलसिला शुरू हुआ।
उसका
नाम आस्था था और वह लखनऊ की रहने वाली थी। संयोग से वह भी मेरी तरह बीएचयू की
छात्रा थी। आस्था दृश्य-कला से एमएफए की पढ़ाई कर रही थी। उसने बताया कि वह अपनी
बनाई एक डाक्यूमेंट्री दिल्ली में होने वाले फिल्म महोत्सव में प्रदर्शित करने जा
रही है। मैंने उससे पूछा कि यह किस विषय पर है, तो
आस्था ने बताया कि यह एक ऐसे महिला की कहानी है, जिसने अपने
जीवन में दो रुपए की कमाई से 500 करोड़ रुपए तक की कंपनी
चलाने तक का सफर तय किया है।
मुझे
यह कहानी काल्पनिक फिल्म जैसी लगी। बनारस से दिल्ली तक पहुंचने में अभी काफी वक्त
था और मैं उस महिला के बारे में जानना चाहती थी। आस्था ने बताया कि उसने
काफी शोध करने के बाद यह फिल्म बनाई है। उसके पास उस महिला के बारे में तथ्यात्मक
जानकारी थी। ट्रेन में नेटवर्क की समस्या के कारण मैंने गूगल की बजाय आस्था से ही
उस शख्सियत के बारे जानना बेहतर समझा। मेरे आग्रह पर उसने बताना शुरू किया -
‘महाराष्ट्र
के अकोला जिले में एक छोटा-सा गांव रोपरखेड़ा है। वहीं एक दलित परिवार में कल्पना
सरोज का जन्म हुआ। उनके पिता हवलदार थे। छोटे-से पुलिस क्वार्टर में कल्पना अपने
माता-पिता, दो भाई, दो बहन, दादा-दादी और चाची के साथ रहती थीं। पिता के 300 रुपए
के मासिक वेतन पर पूरे परिवार का खर्च चलता। कल्पना घर के पास ही सरकारी स्कूल में
पढ़ने जाती थीं। जहां उन्हें दलित होने पर अपने शिक्षकों और सहपाठियों की उपेक्षा
का शिकार होना पड़ता। शाम को स्कूल से लौटने के बाद उन्हें गोबर उठाने और खेतों का
काम करने के साथ चूल्हे के लिए लकड़ी चुनने भी जाना पड़ता था।
कल्पना
के गांव में लड़कियों को ‘जहर की पुड़िया’ कहा जाता था और उनसे निज़ात पाने के लिए लड़कियों की शादी छोटी उम्र में कर
दी जाती थी। जब कल्पना 12 साल की थीं और सातवीं कक्षा में
पढ़ती थीं, तब उनकी शादी उनसे उम्र में बड़े लड़के से करवा दी
गई। शादी के बाद वे मुंबई चली गर्इं। वहां उनकी हालत दयनीय थी। एक इंटरव्यू में
कल्पना जी ने कहा - मेरे ससुराल वाले मुझे खाना नहीं देते, बाल
पकड़ कर बेरहमी से मारते, जानवरों से भी बुरा बर्ताव करते।
कभी खाने में नमक को लेकर मार पड़ती, तो कभी कपड़े साफ ना
धुलने पर धुनाई हो जाती.....।
उनकी
हालत दिन-प्रतिदिन बदतर होती जा रही थी। एक दिन पिता उनसे मिलने आए। कल्पना की
बुरी दशा देख कर उनको अपने साथ गांव लेकर चले गए, पर मायके
में भी आस-पड़ोस और नाते-रिश्तेदारों के तानों ने उनका जीना मुश्किल कर दिया। एक
दिन इन सबसे तंग आकर उन्होंने आत्महत्या करने की कोशिश की, लेकिन
किस्मत को शायद कुछ और मंजूर था। उनकी जान बच गई। इसके बाद उन्होंने सोचा कि जब
कुछ करके मरा जा सकता है, तो इससे अच्छा ये है कि कुछ करके
जिया जाए।
फिर
उन्होंने कई जगह नौकरी पाने की कोशिश की, लेकिन कम शिक्षा और
छोटी उम्र की वजह से उन्हें कहीं काम नहीं मिल पाया। इसके बाद उन्होंने अपने चाचा
के पास मुंबई जाने का फैसला किया। उन्होंने कल्पना जी को एक कपड़ा मिल में काम
दिलवा दिया। वहां उन्हें धागा काटने के दो रुपए महीने मिलते थे। इसके बाद उन्होंने
सिलाई-मशीन से काम शुरू किया, तो उनकी तनख्वाह बढ़ा कर सवा दो
रुपए महीने कर दी गई।
इसी
बीच उनके पिता की नौकरी किसी कारणवश छूट गई और उनका पूरा परिवार उनके साथ मुंबई
रहने लगा। इस दौरान गरीबी के कारण वे अपनी बीमार बहन का इलाज नहीं करवा पाई और
उसका देहांत हो गया। यह सब देख कर कल्पना ने गरीबी को अपने जीवन से मिटाने का
निश्चय किया। उन्होंने अपने छोटे-से घर में कुछ सिलाई मशीनें लगवार्इं और 16-16
घंटे काम करना शुरू किया, लेकिन इससे उन्हें
ज्यादा पैसे की बचत न हो पा रही थी। इसलिए उन्होंने अपना कारोबार शुरू करना चाहा,
लेकिन इसके लिए बड़ी पूंजी की ज़रूरत थी। उन्होंने सरकार से पचास हज़ार
रुपए का कर्ज लेने की योजना बनाई मगर बिचौलियों की धोखाधड़ी से तंग आकर उन्होंने
कुछ लोगों के साथ मिल कर एक संगठन बनाया, जो लोगों को सरकारी
योजनाओं के बारे में बताता था और कर्ज दिलाने में मदद करता था। धीरे-धीरे यह संगठन
प्रसिद्ध हो गया। समाज के लिए निस्वार्थ भाव से काम करने के कारण कल्पना जी की
पहचान कई बड़े लोगों से हो गई।
इसके
बाद उन्होंने महाराष्ट्र सरकार की महात्मा ज्योतिबा फुले योजना के अंतर्गत पचास
हजार रुपए का कर्ज लिया और 22 साल की उम्र में फर्नीचर का
व्यापार शुरू किया। इसमें उन्हें काफी सफलता मिली और फिर कल्पना जी ने एक ब्यूटी
पार्लर खोला। इसके बाद उन्होंने स्टील फर्नीचर के एक व्यापारी से विवाह कर लिया,
पर वे 1989 में एक पुत्री और एक पुत्र का भार
उन पर छोड़ इस दुनिया से चले गए।
अपनी
पहचान बना चुकीं कल्पना को कमानी ट्यूब्स नाम की कंपनी चलाने का मौका मिला जो कर्ज
में थी। यह एक मुश्किल काम था, लेकिन उन्होंने नवीनीकरण करते
हुए कंपनी की हालत बदल दी। वे कहती हैं, ‘मैं यहां काम करने
वालों को न्याय दिलाना चाहती थी। मैं कर्मचारियों की स्थिति समझ सकती थी जो अपने
परिवार के लिए भोजन जुटाना चाहते थे’ आज कमानी ट्यूब्स 500
करोड़ रुपए से अधिक मूल्य की एक बढ़ती हुई कंपनी है।
इस
उपलब्धि के लिए कल्पना जी को 2013 में पद्मश्री से सम्मानित
किया गया। कोई बैंकिंग पृष्ठभूमि न होते हुए भी सरकार ने उन्हें भारतीय महिला बैंक
के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स में भी शामिल किया।
आस्था
ने बताया कि वह कल्पना सरोज पर आधारित अपनी इस फिल्म को एक एनजीओ के ज़रिए उन तमाम
बच्चों और महिलाओं तक पहुंचाने का काम करेगी, जिनके पास
बेहतर जिंदगी के साधन उपलब्ध नहीं हैं। कल्पना जी कहानी के जरिए हम गरीबी और हालात
से निराश लोगों को जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा दे पाएंगे।
सचमुच,
कल्पना जी की यह कहानी कल्पना से भी परे है। मैंने आस्था को उसके इस
नेक और रचनात्मक काम के लिए शुभकामनाएं दी। इस तरह उस दिन एक प्रेरणादायक शख्सियत
से रू-ब-रू होने का मेरा एक यादगार सफर बन गया।
स्वाती सिंह
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