गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

गुलाम वंश का सफल सुल्तान : इल्तुमिश

भारतीय इतिहास में दर्ज इल्तुतमिश का नाम उन सफल शासकों में शुमार है, जिन्हें कभी भी किसी पुरानी रीति के चलते अपने भविष्य को खतरे डालना गवारा नहीं था। इल्तुतमिश ने अपने जीवन जहां एक ओर सफल योद्धा की तरह अपनी जीत का परचम लहराते हुए अपना साम्राज्य-विस्तार किया। वहीं दूसरी ओर स्थापत्य-कला व अन्य प्रशासनिक सुधारों से जनता का प्रिय शासक भी कहलाया। 



चौकोर बॉक्सनुमा पत्थर की कटाई और उसपर बारीक नक्काशियों की साज-सज्जा के साथ कुरान में लिखी बातों को उकेरना। इस कला को आज के समय में एक इमारत का रूप दे पाना वाकई मुश्किल है। आज से करीब आठ सौ साल पहले, जब ना तो आज की तरह आधुनिक मशीनें हुआ करती थी और न तकनीक, उस समय कठोर पत्थरों पर शानदार नक्काशी करके विशाल इमारत खड़ा कर देना अजूबा ही तो है। और ये अजूबा मुझे देखने को मिला दिल्ली के क़ुतुब मीनार काम्प्लेक्स में बनी इल्तुतमिश की कब्र के रूप में। जिसे उन्होंने अपनी मृत्यु के एक साल पहले बनवाया था। ऐसा भी माना जाता है कि भारत में बनने वाली यह पहली इस्लामिक कब्र है।
सैकड़ों साल पहले बनी यह नायाब कब्र हमेशा इस शासक के बारे में जानने के लिए हमारी जिज्ञासा बढ़ाती है। इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत में गुलाम वंश का एक ऐसा सफल शासक था, जिसने इतिहास में अपनी एक अलग पहचान बनाई। गुलाम वंश के संस्थापक क़ुतुब-बिन-ऐबक के दामाद इल्तुतमिश 1211 इस्वी से लेकर 1236 इस्वी तक शासन किया। इल्तुतमिश को सिंहासन तो मिला लेकिन साथ में मिली कई सारी कठिनाइयां और लोगों का विरोध। अचानक मौत हो जाने के कारण कुतुबद्दीन ऐबक अपने किसी उत्तराधिकारी का चुनाव नहीं कर सका था। इसलिए लाहौर के तुर्क अधिकारियों ने कुतुबद्दीन ऐबक के विवादित पुत्र आरामशाह को लाहौर की गद्दी पर बैठाया, पर दिल्ली के तुर्को सरदारों और नागरिकों के विरोध के बाद कुतुबद्दीन ऐबक के दामाद इल्तुतमिश को दिल्ली आमंत्रित करके राज्यसिंहासन पर बैठाया गया। इस तरह ऐबक वंश के बाद इल्बारी वंश का शासन शुरू हुआ।

फ़रवरी, 1229 में बग़दाद के ख़लीफ़ा से इल्तुतमिश को सम्मान में ‘खिलअत’ और प्रमाण पत्र से नवाज़ा गया। ख़लीफ़ा ने इल्तुतमिश के जीते सभी क्षत्रों की पुष्टि कर दी। साथ ही ख़लीफ़ा ने उसे 'सुल्तान-ए-आजम' (महान शासक) की उपाधि भी दी।
इल्तुतमिश पहला तुर्क सुल्तान था, जिसने पहली बार शुद्ध अरबी सिक्के चलवाये। उसने सल्तनत काल में दो ख़ास सिक्के 'चाँदी का टका' (लगभग 175 ग्रेन) और 'तांबे' का ‘जीतल’ चलवाया। इल्तुतमिश ने सिक्कों पर टकसाल के नाम अंकित करवाने की परम्परा को भी शुरू किया। इल्तुतमिश ने ‘इक्ता व्यवस्था’ का प्रचलन किया और राजधानी को लाहौर से दिल्ली स्थानान्तरित किया।इसके साथ ही, स्थापत्य कला के तहत इल्तुतमिश ने कुतुबुद्दीन ऐबक के निर्माण कार्य को पूरा करवाया। जिसमें दिल्ली में स्थित कुतुबमीनार का काम महत्वपूर्ण है। जिसे इल्तुतमिश ने पूरा करवाया। और भारत में सम्भवतः पहला मक़बरा निर्मित करवाने का श्रेय भी इल्तुतमिश को दिया जाता है। इल्तुतमिश ने बदायूँ की जामा मस्जिद और नागौर में अतारकिन के दरवाज़ा का निर्माण करवाया। ‘अजमेर की मस्जिद’ का निर्माण इल्तुतमिश ने ही करवाया था।
इल्तुतमिश ने अपने जीवन जहां एक ओर सफल योद्धा की तरह अपनी जीत का परचम लहराते हुए अपना साम्राज्य-विस्तार किया। वहीं दूसरी ओर स्थापत्य-कला व अन्य प्रशासनिक सुधारों से जनता का प्रिय शासक भी कहलाया। लेकिन इल्तुतमिश के उत्तराधिकार के संबंध में लिए गए फैसले के लिए आज भी उन्हें न केवल याद किया जाता है, बल्कि वास्तविक रूप में एक दूरगामी सोच वाला सफल शासक भी माना जाता है। इल्तुतमिश ने रज़िया सुल्तान को अपना उत्तराधिकारी बनाया, जो भारत की पहली मुस्लिम शासिका बनी। अपने अंतिम दिनों में इल्तुतमिश अपने उत्तराधिकार के सवाल को लेकर चिन्तित था। इल्तुतमिश के सबसे बड़े पुत्र नसीरूद्दीन महमूद की, जो अपने पिता के प्रतिनिधि के रूप में बंगाल पर शासन कर रहा था, 1229 ईस्वी में मौत हो गई। सुल्तान के बाकी बेटे शासन कार्य के लिए योग्य नहीं थे। नतीजतन इल्तुतमिश ने अपनी मृत्यु शैय्या पर से अपनी पुत्री रज़िया को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
भारतीय इतिहास में दर्ज इल्तुतमिश का नाम उन सफल शासकों में शुमार है, जिन्हें कभी भी किसी पुरानी रीति के चलते अपने भविष्य को खतरे डालना गवारा नहीं था। कर्म को सर्वोपरि रखने वाले इन्हीं शासकों की देन है जो आज से सैकड़ों-हजारों साल पहले हमारे समाज में कई सकारात्मक परिवर्तनों ने अपनी जगह बनाई। शायद यही वजह है कि इन शासकों के नाम न तो इतिहास के पन्नों से कभी ओझल हो पाते है और न इनकी बनाई इमारतें हमारे शहर से।

स्वाती सिंह





मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

दास्तां एक सच्चे देशभक्त की: मदन लाल ढींगरा

एक दिन स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों के बारे में पढ़ते वक़्त एक ऐसे क्रांतिक्रारी के बारे में जाना, जिन्हें जानकर ख्याल आया कि यूँ तो हमारी किताबों में स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों की फेहरिस्त बहुत लंबी है और उनमें से कई चुनिन्दा सेनानियों के बारे में हम जानते भी है। पर दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता संग्राम के कई ऐसे सेनानी भी है जिनके नाम तक से हम ठीक तरीके से वाकिफ़ नहीं है। मदन लाल ढींगरा इन्हीं नामों में से एक है। वह एक महान क्रान्तिकारी थे। स्वतंत्र  भारत  के निर्माण के लिए देश के कई शूरवीरों ने हंसते-हंसते अपने जान की बाजी लगा दी थी, उन्हीं महान शूरवीरों में ‘अमर शहीद मदन लाल ढींगरा’  का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखे जाने योग्य हैं। देश की आज़ादी के लिए मदन लाल ढींगरा ने अपने जीवनभर कठिनाईयों का सामना किया। लेकिन वह अपने मार्ग से विचलित न हुए और स्वाधीनता के लिए फांसी पर झूल गए।

मदन लाल ढींगरा का जन्म सन् 1883 में पंजाब के एक संपन्न हिंदू परिवार में हुआ था। उनके पिता सिविल सर्जन थे और अंग्रेज़ी रंग में पूरे रंगे हुए थे; लेकिन उनकी माताजी बहुत ही धार्मिक एवं भारतीय संस्कारों से परिपूर्ण महिला थीं। उनका परिवार अंग्रेजों का विश्वासपात्र था। जब मदन लाल को पहली बार  भारतीय स्वतंत्रता सम्बन्धी क्रान्ति के आरोप में  लाहौर के एक विद्यालय से निकाल दिया गया, तभी उनके परिवार ने मदन लाल से नाता तोड़  लिया। जिसके बाद, मदन लाल को एक क्लर्क रूप में, एक तांगा-चालक के रूप में और एक  कारखाने में श्रमिक के रूप में काम करना पड़ा। वहाँ उन्होंने एक यूनियन (संघ) बनाने का प्रयास किया; पर वहां से भी उन्हें निकाल दिया गया। कुछ दिन उन्होंने मुंबई में भी काम किया। अपनी बड़े भाई से विचार विमर्श करने के बाद वे सन् 1906 में उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड गये जहां 'यूनिवर्सिटी कॉलेज' लन्दन  में यांत्रिक प्रौद्योगिकी में प्रवेश लिया। इसके लिए उन्हें उनके बड़े भाई  और इंग्लैंड के कुछ राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओं से आर्थिक सहायता मिली। लंदन में वह विनायक दामोदर सावरकर और श्याम जी कृष्ण वर्मा जैसे कट्टर देशभक्तों के संपर्क में आए।

सावरकर ने उन्हें हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया। ढींगरा 'अभिनव भारत मंडल' के सदस्य होने के साथ ही 'इंडिया हाउस' नाम के संगठन से भी जुड़ गए। जो उस समय भारतीय विद्यार्थियों के लिए राजनीतिक गतिविधियों का आधार था। इस दौरान सावरकर और  ढींगरा के अलावा ब्रिटेन में पढ़ने वाले अन्य बहुत से भारतीय छात्र भारत  में खुदीराम बोस, कनानी दत्त, सतिंदर पाल और कांशीराम जैसे देशभक्तों को फांसी दिए जाने की घटनाओं से गुस्से में थे। इस घटना के बाद मदन लाल ढींगरा ने अंग्रेजों से बदला लेने की ठानी। 1 जुलाई 1909 को 'इंडियन नेशनल एसोसिएशन' के लंदन में आयोजित वार्षिक दिवस समारोह में बहुत से भारतीय और अंग्रेज़ शामिल हुए। ढींगरा भी इस समारोह में अंग्रेज़ों को सबक सिखाने के उद्देश्य से गए थे। अंग्रेज़ों के लिए भारतीयों से जासूसी कराने वाले ब्रिटिश अधिकारी सर कर्ज़न वाइली ने जैसे ही हाल में प्रवेश किया तो ढींगरा ने रिवाल्वर से  उसपर चार गोलियां दाग़ दीं। कर्ज़न को बचाने की कोशिश करने वाला पारसी  डॉक्टर कोवासी ललकाका भी ढींगरा की गोलियों से मारा गया। कर्ज़न वाइली को गोली मारने के बाद मदन लाल ढींगरा ने अपने पिस्तौल से अपनी हत्या करनी चाही; पर उन्हें पकड़ लिया गया।

23 जुलाई को ढींगरा के प्रकरण की सुनवाई पुराने बेली कोर्ट, लंदन में हुई। अदालत में उन्होंने कहा कि उन्हें कर्जन वाइली को मारने का कोई अफसोस नहीं है क्योंकि वह भारत में राज कर रहे अमानवीय ब्रिटिश शासन की मदद करता था। ढींगरा को इस मामले में फांसी की सजा सुनाई गई। उनको मृत्युदण्ड दिया गया और 17 अगस्त  सन् 1909 को फांसी दे दी गयी।

फैसले के बाद उन्होंने कहा कि देश के लिए अपने जीवन का बलिदान करते हुए मुझे गर्व है। मदन लाल ढींगरा  को 17 अगस्त 1909 को फांसी पर लटका दिया गया। फांसी पर चढ़ाए जाते समय उनके चेहरे पर डर का कोई भाव नहीं था और वह  हंसते-हंसते फंदे पर झूल गए। ढींगरा पर पक्षपातपूर्ण ढंग से मुकदमा चलाया गया । ब्रिटिश सरकार ने उन्हें वकील तक मुहैया नहीं कराया। इतना ही नहीं, उनकी लाश को न तो उनकी भारतभूमि नसीब हुई और न ही हिंदू रीति-रिवाज से उनका अंतिम संस्कार किया गया।  

स्वाती सिंह

मंगलवार, 29 सितंबर 2015

फ़रीद खां से बना शेरशाह: दास्तां एक कुशल शासक की

        
          शेरशाह को न तो एक कुशल शासक के गुण वंशानुगत मिले थे और न ही किसी राजवंश का तमगा उसे विरासत में मिला। लेकिन उसने अपने जीवन के लिए कार्यस्थल वही चुना जहां का सत्ताधिकारी उसे बनना था। अपने जीवन से लेकर अपनी मृत्यु तक हर क्षेत्र में अपने सशक्त व्यक्तित्व को कायम रखने में वह एक कुशल व सफल शासक साबित हुआ।  

कुछ दिन पहले जब मैं अपने शहर की सड़कों पर घूमने निकली तो सड़क की खस्ता हालत देखकर मन में ख्याल आया कि कितना समय लग जाता है हमारी सरकारों को ये सड़कें बनाने में। और सालभर से भी कम समय में इनका हाल बेहाल होने लगता है। ऐसे में आज से कई सौ साल पहले बनी ग्रांड ट्रंक रोड का आज भी बने रहना एक अजूबा ही तो है। जिसे एक शासक ने अपने मात्र पांच साल के शासन में बनवाया था। इस सड़क की मजबूती उस शासक के प्रतिभाशाली व्यक्तित्व की दास्तां हमें साझा करने के लिए हमेशा प्रेरित करती है। 

सूर साम्राज्य का संस्थापक शेरशाह सूरी भारतीय इतिहास में दर्ज एक ऐसा शासक है जिसने अपने मात्र पांच साल के शासन में एक मज़बूत नगरीय व्यवस्था स्थापित कर दी। शेरशाह का जन्म सासाराम शहर में हुआ था। उनका असली नाम फ़रीद खां था। बचपन में एक शेर को मारने के बाद से उन्हें शेरशाह के नाम से पुकारा जाने लगा। शेरशाह ने अपनी पढ़ाई जौनपुर से पूरी की। इसके बाद बिहार के स्वघोषित स्वतंत्र शासक बहार खान लोहानी के दरबार में चले गए। लेकिन कुछ सालों में शेरशाह ने बहार खान का समर्थन खो दिया। बहार खान की मौत के बाद शेरशाह नाबालिग राजकुमार के संरक्षक और बिहार के राज्यपाल के रूप में लौट आया। बिहार का राज्यपाल बनने के बाद उन्होंने प्रशासन का पुनर्गठन शुरू किया और बिहार के मान्यता प्राप्त शासक बन गया। साल 1539 में शेरशाह को चौसा की लड़ाई में हुमायूं को हराकर शेरशाह ने अपने सूर राजवंश की नींव रखी।शेरशाह सूरी एक कुशल सैन्य नेता के साथ-ही-साथ योग्य प्रशासक भी था।

उन्होंने ने अपनी दूरदर्शी सोच के आधार पर जिन नागरिक और प्रशासनिक संरचनाओं का निर्माण करवाया वो आगे चलकर आने वाले मुगल राजवंश के लिए एक मज़बूत नींव साबित हुई। शेरशाह ने तीन धातुओं की सिक्का प्रणाली की शुरुआत की जो मुगलों की पहचान बनी। देश में पहला रुपया भी शेरशाह के शासन में जारी हुआ। जो आज के रुपया का अग्रदूत था। उन्होंने ग्रैंड ट्रंक रोड का निर्माण करवाया जो उस समय सड़क-ए-आज़म के नाम से जानी जाती थी। इसके साथ ही, भारत में डाक प्रणाली का विकास भी शेरशाह के शासनकाल में हुआ।शेरशाह एक शानदार रणनीतिकार था। इसके साथ ही, उसने खुद को सक्षम सेनापति और प्रतिभाशाली प्रशासक की कसौटी में खरा उतारकर एक नया इतिहास रचा। 1540-1545 के मात्र पांच साल के शासन में अपने साम्राज्य विस्तार के साथ देश को ऐसी नगरीय व्यवस्था देना जो आज की आधुनिक सोच की नींव बनी।

वास्तव में ये काम मिसाल के तौर पर स्थापित कोई महान शख्सियत ही कर सकती है।22 मई 1545 में चंदेल राजपूतों के खिलाफ़ लड़ते हुए शेरशाह सूरी की कालिंजर किले की घेराबंदी के दौरान एक बारूद विस्फोट से मौत हो गई। अपने जन्मस्थान सासाराम में शेरशाह ने अपने जीवनकाल में ही अपने मकबरे का काम शुरू करवा दिया था। गृहनगर सासाराम में स्थित ये मकबरा एक कृत्रिम झील से घिरा हुआ है। शेरशाह का ये निर्माण कार्य भी उसकी दूरदर्शिता को दर्शाता है कि किस तरह उसने अपने आज से लेकर अपने कल तक के अस्तित्व को बनाए रखने का जिम्मा खुद उठाया। चाहे वो नगरीय व्यवस्था बनाकर हो या फिर जीवित रहते अपना मकबरा बनवाना हो।

  स्वाती सिंह 

रविवार, 6 सितंबर 2015

तिरंगे में लहराई वो संघर्ष-दास्तां


ब्रिटिश शासन के दौरान भारतवासी दासता से जकड़े माहौल में अपना जीवन गुजारने के लिए मजबूर थे लेकिन उस दासता में भी कैद की दोहरी दासता की जिंदगी गुजारती थी - उस समय की महिलाएं समाज में धनी परिवार की महिलाएं अगर अच्छी तालीम हासिल कर भी लें, फिर भी उनके पास ऐसा कोई मंच नहीं था जहां वे अपने विचारों को रख सकें और न ही समाज में उन्हें और उनके विचारों को वो महत्ता दी जाती थी जिससे वे अपने लिए, अपने विचारों के लिए मंच बना सके|



लेकिन जब साल 1907 में स्टुटगार्ड (जर्मनी) की सरजमीं के ‘अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद सम्मेलन’ में तिरंगा फहराकर उन्होंने आत्मविश्वास के साथ सभी भारतवासियों को संबोधित करते हुए कहा - यह भारतीय स्वतंत्रता का ध्वज है। इसका जन्म हो चुका है। हिन्दुस्तान के युवा वीर सपूतों के रक्त से यह पहले ही पवित्र हो चुका है। यहाँ उपस्थित सभी महानुभावों से मेरा निवेदन है कि सब खड़े होकर हिन्दुस्तान की आज़ादी के इस ध्वज की वंदना करें| तब सभा में मौजूद सभी लोगों की नज़रें उनपर आ टिकी और वे अपनी जगह खड़े होकर ध्वज की वंदना करने लगे|

ये न तो कोई क्रांतिकारी परिवार से थी और न ही किन्हीं हालातों से मजबूर होकर वे क्रांतिकारी बनीं| चौबीस सितंबर साल 1861 में बंबई के एक धनी पारसी परिवार में जन्मी भारतीय मूल की फ्रांसीसी नागरिक भीकाजी कामा स्वभाव से ही समाजसेवी थी तमाम ऐशो-आराम में पली-बढ़ी कामा को यूँ तो कभी भी दासता के जीवन-संघर्ष का सामना नहीं करना पड़ा, लेकिन इसके बावजूद वे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य से देश को आज़ाद करवाने की लड़ाई में आजीवन शामिल रही|

मैडम कामा की अंग्रेजी भाषा पर अच्छी पकड़ थी| बचपन से ही वो सच्ची देशभक्त थी| उन्हें राजनीतिक मुद्दों पर बात करना बेहद पसंद था| कामा की शादी एक अमीर सामाजिक कार्यकर्ता व वकील रुस्तम केआर कामा से हुई| विचारधारा के आधार पर वे दोनों बिल्कुल अलग थे| केआर कामा जहां ब्रिटिश शासन को सही मानते थे, वहीं भीकाजी इसकी सख्त विरोधी थी|

साल 1896 में जब देश में प्‍लेग फैला तो अपनी जान की परवाह किए बगैर भीकाजी ने मरीजों की भरपूर सेवा की और स्‍वतंत्रता की लड़ाई में बढ़-चढ़कर हिस्‍सा लिया। बाद में वो लंदन चली गईं और उन्‍हें भारत आने की अनुमति नहीं मिली। लेकिन देश से दूर रहना उनके लिए संभव नहीं हो पाया और वो फिर से अपने वतन लौट आईं। सामाजिक कार्यों में अत्यधिक व्यस्त रहने की वजह से उनका स्वास्थ बिगड़ गया, जिसके उपचार के लिए उन्हें 1902 ई में इंग्लैण्ड जाना पडा। वहाँ वे 'भारतीय होम रूल समिति' की सदस्या बनी श्यामजी कृष्ण वर्मा ने उन्हें 'इण्डिया हाउस' के क्रांतिकारी दस्ते में शामिल कर लिया गया|

मैडम कामा ने श्रेष्ठ समाज सेवक दादाभाई नौरोजी के यहां भी सेक्रेटरी के पद पर कार्य किया। उन्होंने यूरोप में युवकों को एकत्रकर स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए मार्गदर्शन किया और ब्रिटिश शासन के बारे में जानकारी दी। मैडम कामा ने लंदन में पुस्तक प्रकाशन का काम भी शुरू किया। उन्होंने विशेषत: देशभक्ति पर आधारित पुस्तकों का प्रकाशन किया। 

वीर सावरकर की ‘1857 चा स्वातंत्र्य लढा’ (1857 का स्वतंत्रता संग्राम) पुस्तक प्रकाशित करने के लिए उन्होंने सहायता की। मैडम कामा ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए क्रांतिकारियों को आर्थिक सहायता के साथ ही अनेक प्रकार से भी सहायता की।

मैडम कामा ने 1905 में अपने सहयोगी विनायक दामोदर सावरकर और श्यामजी कृष्ण वर्मा की मदद से भारत के ध्वज का पहला डिजाइन तैयार किया| ये तिरंगा तब वैसा नहीं था, जैसा हमें आज दिखाई देता है| भारत के इस पहले झंडे में हरा, केसरिया और  लाल रंग के पट्टे थे। लाल रंग यह शक्ति का प्रतीक है, केसरिया विजय का और  हरा रंग साहस उत्साह का प्रतीक है। उसी तरह  8 कमल के फूल भारत के 8 राज्यों के प्रतीक थे। वन्दे मातरम् यह देवनागरी अक्षरों में झंडे के बीच में लिखा था। इसे आज भी पुणे के मराठा और केसरी लाइब्रेरी में सुरक्षित रखा गया है| साल 1907 में जर्मनी के स्ट्रटगार्ड नामक जगह पर अंतरराष्ट्रीय साम्यवादी परिषदसंपन्न हुई थी। इस परिषद के लिए कई देशों के हजारों प्रतिनिधी आए थे। उस परिषद में मैडम भीकाजी कामा ने साड़ी पहनकर भारतीय झंडा हाथ में लेकर लोगों को भारत के विषय में जानकारी दी। इसके बाद से उन्हें ‘क्रांति-प्रसूता’ कहा जाने लगा|

वह अपने क्रांतिकारी विचार अपने समाचारपत्र ‘वंदे मातरम्’ और ‘तलवार’ के माध्यम से लोगों तक पहुंचाती थी| उनकी लड़ाई दुनियाभर के साम्राज्यवाद के खिलाफ़ थी| मैडम कामा के सहयोगी उन्हें भारतीय क्रांति की माता मानते थे, जबकि अंग्रेज उन्हें खतरनाक क्रांतिकारी, अराजकतावादी क्रांतिकारी और ब्रिटिश विरोधी कहते थे| यूरोप के समाजवादी समुदाय में मैडम कामा प्रसिद्ध थी| यूरोपीय पत्रकार उन्हें भारतीय राष्ट्रीयता की महान पुजारिन कहकर बुलाते थे|

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान उन्हें काफ़ी कष्ट झेलने पड़े। भारत में उनकी सम्पत्ति जब्त कर ली गई। उन्हें एक देश से दूसरे देश में लगातार भागना पड़ा। वृद्धावस्था में वे भारत लौटी और 13 अगस्त, 1936 को बम्बई (वर्तमान मुम्बई) में गुमनामी की हालत में उनका देहांत हो गया।
यूँ तो मैडम कामा को इस दुनिया से रुखसत हुए कई साल बीत चुके है, लेकिन आज भी भारतीय स्वतंत्रता की इस महान शख्सियत की संघर्ष-दास्तां देश के तिरंगे में लहराती है|
स्वाती सिंह  




शुक्रवार, 10 जुलाई 2015

देवी ही तो थी वो

उस दौर में जब पति की मृत्यु होने पर पत्नियाँ अपने जीवन को उसकी चिता पर जिन्दा जलाकर खत्म कर देती थी। ऐसे दौर में  उनका एक कुशल शासिका के तौर पर शासन की बागडोर सम्भलना उनके सशक्त व्यक्तित्व का परिचायक है।






दुनिया में कभी भी कोई चीज़ ज़्यादा दिनों तक स्थायी नहीं रहती है। 'परिवर्तन' प्रकृति का नियम है। जो इस दुनिया का एक सच है। एक सच ये भी है कि वर्तमान के हर सवाल का जवाब हमें हमेशा हमारा बीता हुआ कल ही देता है। वो बीता हुआ कल जिसकी जगह आज एक नए परिवर्तन ने ले ली है। भारतीय इतिहास में भी कई ऐसी शख्सियत रहीं है, जो समाज में उन बड़े परिवर्तनों की कर्णधार बनी जिनकी चमक आज भी हमें रोशनी देती है| जिन्होंने इतिहास में अपनी एक अलग पहचान बनाई और अपने कर्तव्यों से इतिहास के पन्नों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है।

ऐसी शख्सियतें यूँ तो दुनिया को कुछ समय बाद अलविदा कह देती है। लेकिन उनके विचार और कार्य हमेशा उन्हें समाज में जिंदा रखते है| ऐसी ही शख्सियतों में से एक है - अहिल्याबाई साहिबा होल्कर।                     

रानी अहिल्याबाई का ताल्लुक भारतदेश के उस प्रान्त से है, जिस प्रान्त की पहचान भारतीय इतिहास के पन्नों पर मोटे स्वर्णिम अक्षरों में वर्णित सशक्त महिला महारानी लक्ष्मीबाई से की जाती है। यानी की मध्य प्रदेश। अहिल्याबाई का जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के चौण्डी नामक स्थान में मकोजी शिन्दे के घर हुआ। जब वे 10 साल की थी, तब उनका विवाह इतिहास-प्रसिद्ध सूबेदार मल्हारराव होल्कर के पुत्र खंडेराव से किया गया। खेलने-कूदने की नन्हीं उम्र में उन्हें उस रिश्ते में बाँध दिया गया, जिसका मतलब तक वो खुद नहीं जानती थी। विवाह के बाद अहिल्याबाई मालवा (वर्तमान में, मध्य प्रदेश) की रानी बनी। 29 वर्ष की उम्र में उनके पति का स्वर्गवास हो गया।

कम उम्र में विवाह हो जाने के कारण अहिल्याबाई अपनी शिक्षा-दीक्षा पूर्ण न कर सकी। विवाह से पहले उनके पिता ने गुरु की भूमिका निभायी। उन्होंने अहिल्याबाई को शासन व जीवन-सम्बंधित विभिन्न चुनौतियों का सामने करने का गुण सिखाया। वह एक कुशल योद्धा और तीरंदाज भी थी| पति का साथ छूटने के बाद अहिल्याबाई ने अपना संयम बनाए रखा और अपने ससुर यानी कि मल्लहारराव से अच्छे शासन के दांवपेंच सीखती रहीं| मल्लहारराव की मृत्यु के बाद अहिल्याबाई ने मालवा का शासन संभाला और करीब तीस तीस वर्षों तक मालवा में शासन किया। 42 वर्ष की आयु में उनके पुत्र का स्वर्गवास हो गया। जिसके बाद वे पूरी तरह अकेली हो गई। लेकिन एक कुशल शासक की तरह उन्होंने कभी-भी अपनी व्यक्तिगत समस्याओं को अपनी प्रजा के बीच नहीं आने दिया।                

अहिल्याबाई का शासनकाल भारतीय इतिहास में वर्णित एक स्थायी शासनकाल माना जाता है। जहां की स्थिति एकसमान रही। न बेहद युद्ध, न साम्राज्य का ज़्यादा विस्तार और न किसी तरह की आपदा। उन्होंने अपने शासनकाल में अपने साम्राज्य में सुख-शान्ति और विकास को कायम रखा। उन्होंने मालवा प्रान्त में इंदौरे नामक शहर की स्थापना करवायी। अहिल्याबाई ने विधवाओं के पक्ष में कई सुधार-कार्य किए। उन्होंने दत्तक-पुत्र की प्रथा को मान्यता दिया। इसके साथ ही साथ उन्होंने जनता के लिए भारत के अलग-अलग भागों में कई मंदिरों और  धर्मशालाओं का निर्माण करवाया| कलकत्ता से बनारस तक सड़क, बनारस में अन्नपूर्णा का मंदिर, गया में विष्णु मंदिर भी बनवाया| जनता के लिए नलकूपों और सराय  भी बनवाना । कहा जाता है कि अहिल्याबाई शिव की भक्त थी और उन्होंने विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया था|      

इंदौर में देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी है। आज अहिल्याबाई की पहचान भी इसी विश्वविद्यालय से की जाती है| ठाणे में बच्चों के लिए अहिल्याबाई देवी होल्कर उद्यान की भी स्थापना की गयी। उन्होंने शिक्षा की महत्ता और समाज की मूलभूत ज़रूरतों को पूरा करने पर विशेष ध्यान दिया। अहिल्याबाई की इसी प्रजापालक- नीति और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर प्रजा उन्हें देवी समझने लगी थी। इतना ही नहीं, उनके नाम के आगे देवी लगाया जाने लगा। इंदौर में प्रतिवर्ष भाद्रपद कृष्णा चतुर्दशी के दिन अहिलयोत्सव होता चला आया है।     

13 अगस्त 1775 में अहिल्याबाई ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। लेकिन उनके विचार और इतिहास में उनकी विशिष्ट पहचान आज भी इस शख्सियत को जिन्दा रखे हुए है।
उस दौर में जब पति की मृत्यु होने पर पत्नियाँ अपने जीवन को उसकी चिता पर जिन्दा जलाकर खत्म कर देती थी। ऐसे दौर में अहिल्याबाई का एक कुशल शासिका के तौर पर शासन की बागडोर सम्भलना उनके सशक्त व्यक्तित्व का परिचायक है।

ऐसी आत्मशक्ति और आत्मविश्वास को देखकर उस समाज का इन्हें देवी मान लेना कोई आश्चर्य की बात नहीं। अपने दुखों को भूलकर प्रजा का ख्याल रखना और समाज के हर तबके की ज़रूरत व विकास के लिए आवश्यक स्रोंतों को उपलब्ध कराना और वो भी एक महिला के हाथों, वास्तव में ये  किसी न किसी चमत्कारिक शक्ति के ही सूचक लगते है। और जिनके पास ये शक्ति हो उन्हें 'देवी' ही तो कहा जाता है।


स्वाती सिंह

शनिवार, 6 जून 2015

महाराजा सयाजीराव गायेकवाड़ : देश के सुदृण भविष्य- निर्माता

भारत में अंग्रेजों ने लगभग सौ सालों तक शासन किया। व्यापार करने आए ये विदेशी जब भारत की सम्पन्नता से अवगत हुए तो व्यापार से इनकी नीयत हट कर यहां अपने सत्ता ज़माने की होने लगी। धीरे-धीरे इन विदेशियों ने अर्थ के दम पर यहां की सत्ता हथियाने का काम शुरू कर दिया। ये बात भारतीयों को नागवार गुजरी और नतीज़न सन् 1857 की क्रांति के साथ भारतीयों ने अपने विरोध की आवाज को बुलन्द किया। सन् 1857 की क्रांति ने लगभग नब्बे वर्षों के लम्बे संघर्ष के बाद 1947 में आज़ादी प्राप्त की। इन नब्बे वर्षों का हर एक दिन भारतीय इतिहास में एक नए अध्याय के रूप में जुड़ा। जब भारतभूमि, जहां कई विभूतियों के जन्म की साक्षी बनी तो वहीं दूसरी ओर, इसने रक्त, बलिदान और देशभक्ति की कई घटनाओं को भी समेटा।
    
          11 मार्च , 1863 भारतीय इतिहास के उन महत्वपूर्ण दिनों में से एक है जब भारतभूमि एक ऐसी राजवाड़े खानदान में जन्मे एक ऐसे विभूति की साक्षी बनी, जिन्होंने शासन के साथ-साथ आज़ादी के लिए संघर्षरत अपने देश के सुदृण भविष्य की नींव रखी। जिनका नाम सयाजीराव- ||| गायेकवाड़ था।नासिक के मालेगाव तहसील जिले के कवलाना ग्राम में सयाजीराव का जन्म एक मराठा परिवार में हुआ। इनके पिता काशीराव गायेकवाड़ थे। सयाजीराव को 27 मई 1875 को महारानी जमनाबाई ने गोद लिया और 16 जून 1875 को सयाजीराव सिंहासनारूढ़ हुए। सयाजीराव ने सन् 1875 से 1939 तक बड़ौदा में शासन किया। ये काल बड़ौदा के उज्जवल भविष्य की ओर दौड़ता स्वर्णिम काल माना जाता है।

       सयाजीराव ने बड़ौदा को समय के साथ कदम से कदम मिला कर चलने के लिए सदृण नींव का निर्माण किया। उन्होंने बड़ौदा में बैंक की स्थापना करवाने और टैक्सटाइल व्यापार को बढ़ावा देने में अदभुत योगदान दिया। लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में सयाजीराव का योगदान अविस्मरणीय है। उन्होंने अपने शासन काल में अर्थव्यवस्था के साथ-साथ भविष्य के सबसे अनिवार्य तत्व शिक्षा के क्षेत्र में कार्य कर मिशाल कायम की। भारतीय इतिहास में अनिवार्य व मुफ़्त प्राथमिक शिक्षा पेश करने वाले ये पहले शासक थे। उन्होंने हर जिले व गांवों में पुस्तकालयों का निर्माण करवाया, जिससे शिक्षा का ज़्यादा से ज़्यादा प्रसार हो सके। शिक्षा के अंर्तगत उन्होंने संस्कृत के प्रचार, विचारधारा की शिक्षा, धार्मिक शिक्षा और कला क्षेत्र को बढ़ावा देने पर विशेष ध्यान दिया।

        उनका मानना था कि विचारधारा की शिक्षा से जहां लोगों में तार्किक सोच का सृजन होता है वहीं दूसरी ओर कला के माध्यम से प्रभावी अभिव्यक्ति की जा सकती है। सयाजीराव ने देश के विभिन्न शिक्षा केंद्रों में अपना आर्थिक योगदान दिया। इनकी कार्य-प्रणाली और दूरगामी सोच से प्रभावित होकर इन्हें फ़रज़न्द-ए-खास-दौलत-ए-इंग्लिशिया की उपाधि दी गई। इसके साथ-साथ एशिया के बड़े विश्वविद्यालयों में शुमार काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की केंद्रीय पुस्तकालय का नाम भी सयाजीराव के नाम पर रखा गया।

      यूँ तो सयाजीराव ने 6 फ़रवरी, 1939 को दुनिया को अलविदा कह दिया। लेकिन उनके द्वारा अपने शासन काल के अंतर्गत किये गए कार्य उन्हें अविस्मरणीय बनाते है। सयाजीराव द्वारा बैंक ऑफ बड़ौदा की स्थापना, भारत में सर्वप्रथम स्टेट रेलवे- गायकवाड़ बड़ौदा स्टेट रेलवे की स्थापना , बड़ौदा में भव्य सयाजी बाग़ की स्थापना और शिक्षा के क्षेत्र में वर्तमान को सही दिशा में अपने भविष्य अग्रसरित करने वाले मील के पत्थरों का निर्माण उन्हें आज भी जीवन्त किये हुए।

स्वाती सिंह