आजकल धर्म-बाज़ार के दो बड़े नाम शंकराचार्य और साईं बाबा मंहगाई की तरह सुर्खियों में है। शंकराचार्य ने साईं बाबा की धार्मिक दुकान की शुद्धता पर प्रश्न खड़े कर दिए,जिससे साईं बाबा के समर्थकों ने विरोध करना शुरू कर दिया।धर्म-बाज़ार में एक-दूसरे को कुचल कर आगे बढ़ने की प्रवित्ति ने धर्म की वास्तविक परिभाषा को इतिहास के पन्नों तक सीमित कर दिया। सदियों पहले मानव-जीवन को व्यव्स्तिथ रूप से संचालित करने के लिए धर्म की खोज की गई। ग्रंथो में 'अपने कर्तव्यों के उचित निर्वहन को 'धर्म बताया गया। लेकिन समय के साथ-साथ धर्म की यह परिभाषा भी परिवर्तित होती गई। यूँ तो धर्म का आविर्भाव मानव-जीवन को व्यव्स्तिथ करने के लिए हुआ था। लेकिन आज उसी धर्म के नाम पर समाज में विभाजन और अव्यव्स्त्था की प्रक्रिया शुरू हो गई।
मनुष्य के विचारों की विविधता ने विभिन्न धर्मों को जन्म दिया। आज पुरे विश्व में इक्कीस बड़े धर्म है। इन धर्मो की मूल जड़ तो एक है लेकिन स्वरूप एक-दूसरे से अलग है। धर्मो के इन्ही भिन्न स्वरूपों में मानव-सभ्यता गुम होती दिख रही है,जहाँ उनका जीवन विभिन्न बाह्य-आडम्बर और धर्म के प्रति डर तक सीमित रह गई है।
धर्म के इस तकनीकी और चमकदार स्वरूप में बाह्य आडम्बरो की भरमार है। धर्म के इस स्वरूप को लोगों ने डर से अपनी जीवन -शैली में लागू कर लिया। वास्तव में जो धर्म उनके आत्म से कोसों दूर रह गया। आज धर्म के आधार पर सत्ता,समाज और संरचना का निर्धारण होने लगा है,जिनका मूल आधार डर और आडम्बर है।
ऐसा नहीं है की धर्म के इस आडम्बर का कभी विरोध नहीं हुआ। अनेक समाज-सुधारकों ने इसका विरोध किया और वास्तविक धर्म को परिभाषित किया। लेकिन कुछ समय बाद इनके विचार भी आडम्बर की डरावनी चादर में लिपट कर नए धर्म में तब्दील हो गई।
मानव-सभ्यता के लिए यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है ,कि जिस धर्म का निर्माण मानव -सभ्यता के मार्गदर्शन के लिए हुआ था। लेकिन आज वह विभिन्न आडम्बरों की तकनीकी दुकान बन चुका है।इतना ही नहीं,इन आडम्बरों की पैदाइश रहे शंकराचार्य ,आशाराम,निर्मल तथा साईं जैसे नाम एक-दुसरे की धर्म-आडम्बर की दुकान बंद करने में तूले है।
मनुष्य के विचारों की विविधता ने विभिन्न धर्मों को जन्म दिया। आज पुरे विश्व में इक्कीस बड़े धर्म है। इन धर्मो की मूल जड़ तो एक है लेकिन स्वरूप एक-दूसरे से अलग है। धर्मो के इन्ही भिन्न स्वरूपों में मानव-सभ्यता गुम होती दिख रही है,जहाँ उनका जीवन विभिन्न बाह्य-आडम्बर और धर्म के प्रति डर तक सीमित रह गई है।
धर्म के इस तकनीकी और चमकदार स्वरूप में बाह्य आडम्बरो की भरमार है। धर्म के इस स्वरूप को लोगों ने डर से अपनी जीवन -शैली में लागू कर लिया। वास्तव में जो धर्म उनके आत्म से कोसों दूर रह गया। आज धर्म के आधार पर सत्ता,समाज और संरचना का निर्धारण होने लगा है,जिनका मूल आधार डर और आडम्बर है।
ऐसा नहीं है की धर्म के इस आडम्बर का कभी विरोध नहीं हुआ। अनेक समाज-सुधारकों ने इसका विरोध किया और वास्तविक धर्म को परिभाषित किया। लेकिन कुछ समय बाद इनके विचार भी आडम्बर की डरावनी चादर में लिपट कर नए धर्म में तब्दील हो गई।
मानव-सभ्यता के लिए यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है ,कि जिस धर्म का निर्माण मानव -सभ्यता के मार्गदर्शन के लिए हुआ था। लेकिन आज वह विभिन्न आडम्बरों की तकनीकी दुकान बन चुका है।इतना ही नहीं,इन आडम्बरों की पैदाइश रहे शंकराचार्य ,आशाराम,निर्मल तथा साईं जैसे नाम एक-दुसरे की धर्म-आडम्बर की दुकान बंद करने में तूले है।
स्वाती सिंह
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