शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

अर्थों का अनर्थ करते फ़िल्मी-पोस्टर

लव,सेक्स,धोका और बदला...इन चार दीवार के बीच एक लड़की की कहानी पर 2012 में विवेक अग्निहोत्री के निर्देशन में बनी  फिल्म-Hate Story।ये कहानी है एक सशक्त महिला पत्रकार की,जो एक बड़े उद्योगपति के लव,सेक्स और धोका में बुने जाल में फसाई जाती है,जिससे वो बुरी तरह मानसिक और शारीरिक रूप से जख्मी होती है,और तथाकथित सभ्य इस समाज में रहने के लिए हर ज़रूरी चीज़-इज्ज़त,घर,रिश्ते और प्यार को खो बैठती है।इस साजिश का बदला लेने के लिए वो शहर की बड़ी वेश्या बनती है और एक पल में उस उद्योगपति के फैले बड़े बाजारू साम्राज्य को खत्म कर देती है।ये फिल्म समाज के ऐसे चमकते इन इज्ज़तदार अंधेरों को उजागर करती है,जहाँ लोग अपने इगो को संतुष्ट करने के लिए किसी भी हद तक चले जाते है। प्यार,विश्वास और रिश्तों को उन्हें सरे बाज़ार नीलाम करने ज़रा भी देर नहीं लगती। लेकिन अफ़सोस के बात ये है कि रिश्तों का सौदा करने वाले हर बार भूल जाते है कि-"जब औरत अपनी इज्ज़त बेचने को उतारू हो जाती है तो वो किसी भी मर्द खरीद सकती है'(फिल्म के एक डायलॉग में)।ये फिल्म महिला के एक सशक्त रूप को उजागर करती है।
                    जुलाई,2014 में विशाल पाण्डेय के निर्देशन में आई-Hate Story-2....ये कहानी है एक ऐसी लड़की की जो एक बड़े नेता के एक तरफे प्यार का शिकार होती है। अपनी ताकत के दम पर नेता लगातार उसका शोषण कर उसे जिंदा लाश बना देता है। जिसका मानना होता है कि-"औरत को जात और दुश्मन को उसकी औकात जितनी जल्दी बता दो अच्छा है, बाबा कहा करते थे"(फिल्म के डायलाग में)।एक दिन जिन्दा लाश बनी उस लड़की को अपनी अँधेरी जिंदगी में आशा की एक किरण दिखती है,जब उसे किसी से सच्चा प्यार होता है। लेकिन उसका प्यार सनकी नेता का शिकार हो कर दम तोड़ देता है। अपना सब कुछ गवां देने के बाद लड़की अपनी चुप्पी तोड़ती है और नेता की हत्या कर देती है। लड़की नेता को गोली मारते समय कहती है-"पागल कुत्ता और आवारा हाथी दोनों बंदूक की गोली के लिए बने है,काश ये तेरे बाबा ने बताया होता"।पिछली बार की तरह इस बार भी फिल्म ने सशक्त महिला के किरेदार को बखूबी उजागर किया है।
महिला सम्बंधित सम्वेदनशील मुद्दे पर बनी इस फिल्म के पोस्टर इसकी संवेदना को खत्म कर देते है और दर्शकों के समक्ष इसकी छवि 'हॉट-फिल्म'(सामान्य भाषा में-गन्दी फिल्म)के तौर पर प्रस्तुत करती है।फिल्म जगत में प्रचार के इन पैतरों का प्रयोग यूँ तो दर्शकों को आकर्षित करके पैसे कमाने के लिए होता है। लेकिन हर बार की इस तरह बिज़नेस करने वाली व महिला-केन्द्रित संवेदनशील मुद्दे पर बनी ये फिल्मे अपने पोस्टरों पर महिलाओं का ऐसा चित्रण कर देती है की ये संवेदना से हटकर अशलील फिल्म की सूची में शुमार हो जाती है। इनदोनों फिल्मों के पोस्टरों कइ साथ एक और बात कॉमन है -कि महिला किरेदार पर जब अत्याचार शिखर पर पहुँचता है तब वो इस बात का विरोध करती है,जो बेहद निराशाजनक है।आशा है अगली बार फिल्म में,कहानी की मुख्य महिला किरदार अत्याचार को शिखर में पहुचने से और जिन्दा लाश बनने से पहले इसका विरोध करें।

स्वाती सिंह


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