अच्छे दिन आने से पहले बनारस में सीवर की सफाई करते वक्त पंकज की मौत हो गयी। पंकज एक मैला ढुलाई करने वाला था।हमारे सभ्य समाज के लिए ये बहुत ही शर्म की बात है कि आज भी मैला ढोने की वजह से लोगों की मौत हो रही है। सामाजिक कार्यकर्त्ता एस.आनंद के अनुसार आज भी हमारे समाज में प्रतिदिन मैला ढोने की वजह से एक व्यक्ति की मौत होती है।
31 मार्च,2014 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने मैला ढुलाई करने वालों के पक्ष में अपना ऐतिहासिक फैसला दिया। और इस फैसले ने मैला ढुलाई करने वालों की स्तिथि में सुधार की उम्मीद की एक किरण दिखा दी। सर्वोच्च न्यायालय ने यह आदेश दिया कि 1993 से अब तक जितने भी लोगों की मौत सीवर की जहरीली गैस और मल की सफाई करने से हुई है उन सभी के परिवारों को 10 लाख रुपए का मुआवज़ा दिया जाएगा। इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने रेलवे लाइन में मैला सफाई करने की प्रणाली को जल्द ही खत्म करने का आश्वाशन दिया।
आज भी हमारे समाज में मैला ढोने और गंदे मलों की सफ़ाई करने वालों की स्तिथि बहुत दयनीय है। ये काम अमूमन दलितो के ही हिस्से में है। आमतौर पर इन्हें भारत में गुजरात,उत्तर प्रदेश,मध्य प्रदेश,राजस्थान और अन्य प्रदेशों में देखा जा सकता है,जहाँ वे मल साफ़ करने,नाली व् सीवर की सफाई करने में लगे रहते हैं। उत्तर प्रदेश का कसेला गाँव हो या फिर मध्य प्रदेश का देवास जिला,आज भी मेहतर जाति के लोगों को मैला ढोकर ही अपनी दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करना पड़ता है। क्यूंकि इनकी जाति के लोगों को किसी और पेशे से अपना पेट पालने की इज्जाजत हमारा सभ्य समाज नहीं देता।सदियों से,मैला ढोने का ये अमानवीय पेशा भारत में जाति-व्यवस्था की नींव पर कथित ऊची जातियों के द्वारा निचली श्रेणी पर जबरन लाद दिया गया। इस कुप्रथा से पीड़ित दलितों को हमारी सामाजिक व्यवस्था में अछूत माना जाता है। इतना ही नहीं, शारीरिक और सामाजिक रूप से समाज के ताने-बाने से भी इन्हें पृथक रखा गया है।21वीं शताब्दी के'शाइनिंग इंडिया'की ये एक ऐसी सच्ची तस्वीर है,जिसमें कालिख पुतीहुईहै। सरकारी आकड़ों के मुताबिक, वर्तमान समय में कुल 3,40,000 लोग मैला ढुलाई करते हैं।
यूँ तो,समय-समय पर इस अमानवीय प्रथा पर रॊक लगाने के लिए कई वैधानिक प्रयास किए गए।मैला ढुलाईकर्ताओं के रोजगार और सूखे शौचालयों के निर्माण के लिए 1993 में कानून पारित किया गया। इसके बाद,2012 में मैला ढुलाईकर्ताओं के रोजगार और पुन:प्रतिस्ठा स्थापित करने के लिए कानून लागू किया गया,जिसके लिए कुल 4,825 करोड़ रुपए का बजट भी पास हुआ। लेकिन सामाजिक कार्यकर्ताओं के विभिन्न शोध, इस बजट के खर्च-क्षेत्र का पता न लगा सके।
इसके साथ ही इन दोनों कानूनों की कई कमियाँ भी सामने आई। इनमें मैला ढुलाई करने वालों के रोजगार और पुन:प्रतिस्ठा स्थापित करने की बात तो कही गई। लेकिन इसकी क्रियान्वयन-प्रणाली का कोई भी स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया। और ना ही इनमें पहले से मैला-ढुलाई करने वालों और सीवर के जहरीली गैस से मरने वालों के लिए किसी भी प्रकार की मदद का जिक्र किया गया। इस तरह ये आधे-अधूरे वैधानिक प्रयास राज्य-मशीनरी के जाल में फँस कर पूरी तरह पीड़ित दलितों से कोसों दूर रह गए।
अब देखना है कि अच्छे दिन लाने के वादे पर बनी सरकार से समाज के हाशिए पर जीने वाले इस वर्ग की कितनी उम्मीद पूरी होती है।
स्वाती सिंह
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