मंगलवार, 26 अगस्त 2014

मीडिया का बाज़ार

लोक को तंत्र से जोड़ने का काम करने वाले 'मीडिया' को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है'।लेकिन आज मीडिया की स्तिथि देखकर ये स्तम्भ खोखला मालूम पड़ता है। मीडिया ने प्रारंभ से ही, संविधान द्वारा प्रद्क्त'स्वतन्त्रता के अधिकार'को अपने पक्ष में करते हुए पूरी निष्ठा के साथ अपने पाठ्यक्रम में इसका बाकायदा व्याख्यान किया। लेकिन जब ये पाठ्यक्रम जमीनी हकीकत से कोसों दूर,एजेंडा-सेटिंग और टेक्नोलॉजी के उपयोग से ख़बर बनाने की कला सिखाने पर जोर देते है, तो मूल-कर्तव्यों की बात पर मीडिया की यादाश्त और व्याख्यान के दायरे बेहद कमज़ोर दिखते है।मीडिया के जिस कैमरे को देश की तथाकथित विकसित व आधुनिकता की चादर में घुटते वर्गों को उजागर करना था। आज वो कैमरे ग्लैमर की चकाचौध की चमक बटोरने में मस्त है। मीडिया के जिस माइक को समाज में वर्षो से गूंगे घोषित वर्गों की आवाज बनना था,वो आज अपने खरीदारों की बेतुकी बयानबाजी बटोरने में व्यस्त है। मसाला खबरों से बढ़ती टीआरपी की बढती आंच पर मीडिया की सिकती रोटियों ने मीडिया के मतलब को ही पूरी तरह पलट कर रख दिया है।दुःख की बात ये है कि 'मीडिया-मसाला' की इस दुनिया में,सबसे ज्यादा मरण उन पत्रकारों की है जो पूरी निष्ठा के साथ मीडिया से लोक और तन्त्र को जोड़ने का काम रहे है। उन पत्रकारों को यूँ तो हमेशा आधे पेट से अपना काम चलाना पड़ता है,इतना ही नहीं, बेरोजगारों की कतार में इन्हें शामिल होने में ज्यादा देर नहीं लगती। कुल मिलाकर इन्हें पूरा भुगतान करना होता है एक सच्चे पत्रकार होने का।
भारत की लोकतांत्रिकता के लिए ये बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि,वर्षो पहले जिस मीडिया से स्वतन्त्रता-आन्दोलन का सफल आगाज हुआ था। आज वो मीडिया अपने खरीदारों की खरीद पर हरसंभव खबर बनाने वाली तकनीकी दुकान बन चुकी है।

स्वाती सिंह


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