गुरुवार, 28 अगस्त 2014

पेशेवरों का शिकार 'भगाणा की निर्भयाए'


23 मार्च 2014 को भगाणा में, जाट बिरादरी के कुछ लोगों ने चार नाबालिग लड़कियों का बलात्कार किया। पीड़िताओं के परिजनों ने, जब मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुडा से गुनाहगारों को फ़ास्टट्रैक कोर्ट के जरिए जल्द सज़ा दिलाने की मांग की, तो बदले में उन्हें पुलिस की लाठियां मिली। इसके बाद,16 अप्रैल को हरियाणा के पूर्व बसपा नेता वेदपाल तंवर ने पीड़िताओं के परिजनों को दिल्ली आकर सरकार से न्याय की गुहार लगाने की नसीहत दी। परिजनों ने भी सोचा की अगर सरकार के पास जा कर न्याय की गुहार लगाई जाएगी तो हो सकता सुनवाई जल्दी हो। उम्मीद की ये किरण लिए परिजन दिल्ली पहुंचे।
दिल्ली के जन्तर-मन्तर को धरना देने के लिए चुना गया। धरने के शुरूआती दिनों में,वेदपाल तंवर के साथ अनीता भारती(लेखिका व् समाजिक कार्यकर्ता),प्रमोद रंजन(सलाहकार व् सम्पादक) व जितेन्द्र यादव(जे.एन.यू के शोध छात्र) ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। धरने को एक बड़े आन्दोलन का रूप देने के लिए बकायदा योजनाबद्ध तरीके से'भगाणा संघर्ष समिति' का गठन भी किया गया। इन सब में,नेशनल कन्फ़ेडरेशन आफ दलित आर्गेनाइजेशन(नेक्डोर) नाम के एनजीओ ने भी हिस्सा लिया। जिनके मालिक का नाम अशोक भारती था।
संघर्ष की इस लड़ाई का आगाज़ जितना ज़ोरदार था,दुर्भाग्यवश ये यथास्थान भी उतनी ही ज़ोरदार तरीके से पहुंचा। जैसे-जैसे चीज़े सही मार्ग की ओर बढ़ने लगी,वैसे-वैसे सारे पेशेवर अपने प्रदर्शन में जुट गये और प्रदर्शन सफल ना होने पर धीरे-धीरे पीछे होते गये। नेतृत्व करने को लेकर इन पेशेवरों का बिखराव शुरू हुआ। सबसे पहले,अशोक भारती और वेदपाल तंवर ने नेतृत्व करने की मांग की और बागडोर ना मिलने पर चलते बने।
फिर बारी आई,अनीता भारती की उन्होंने ने अपने फेसबुक पर पोस्ट डाली कि 'इस आन्दोलन में कई एनजीओ काम कर रहे है' और इसके बाद वो पीछे हो गई। जितेन्द्र यादव ने हवाला दिया कि आन्दोलन में मजदूर विगुल दस्ता हो गया है।फिर क्या वो भी चलते बने। प्रमोद रंजन ने भी मई में नेतृत्व करने की मांग कि और परिजनों के ना मानने पर बात गाली-गलौच तक पहुँच गई और वो पीछे हो गए।
इन सब के बाद,एंट्री होती है दुसाध प्रकाशन के सर्वेसर्वा एचएल दुसाध की। उन्होंने एक किताब निकालने की राय दी। परिजनों की सहमति पर एक बार फिर अपनी सफल आजमाइश के लिए प्रमोद रंजन,जितेन्द्र यादव और एचएल दुसाध किताब के सम्पादक बने। किताब आई जिसका नाम रखा गया 'भगाणा की निर्भयाए'।इसकी 200 प्रतियाँ पीडिताओं को भी दी गई और कहा गया कि जो भी उनसे मिलने आये उन्हें वे ये किताबें बेचे। जिन्हें ये तक पता नहीं कि,उनके बारे में किताब में क्या लिखा है ?खुद किताब की दुकान बना दी गई। किताब से होने वाले लाभ का बराबर बटवारा भी किया गया।जिसमे आधा हिस्सा पीडिताओं को और आधा सम्पादक टीम को जाना था।
एक तरफ,पेशेवर इन निर्भयाओं का शिकार करते रहे। वहीं दूसरी तरफ, फेसबुक के बड़े-बड़े हाकाओं ने भी इस मुद्दे पर जमकर लिखा और फिर अपने धर्म का पालन करते हुए,कुछ दिन बाद दूसरे मुद्दे की तरफ मुड़ गए। 'तहलका' में इस मुद्दे पर आई रिपोर्ट के बाद आन्दोलन के सभी अगुओं ने मीडिया के भरपूर प्रयोग से अपना शुद्धिकरण करने में जुट गए।
आज से दो साल पहले16 दिसम्बर,2012 को दिल्ली में हुई गैंगरेप की घटना से एक ऐसे जनांदोलन का आगाज हुआ,जिसने न केवल दिल्ली की सत्ता का तख्ता-पलट कर दिया।बल्कि देश की तमाम निर्भयाओं को न्याय के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करने का हौसला भी दिया।
इसी हौसले को लिए न्याय की उम्मीद में हरियाणा से ये पीड़िताये और उनके परिजन दिल्ली आए। लेकिन अफ़सोस,अभी तक उन पीड़िताओं की ना कोई सुनवाई हुई ना ही मीडिया को ये दिखाई पड़ी। जो आज भी जन्तर-मन्तर पर अपने परिजनों के साथ ये उम्मीद लिए बैठी है कि कभी तो उनकी गुहार इस बर्फीली सत्ता के कानों तक पहुचेगी और उन्हें न्याय मिलेगा।

स्वाती सिंह


1 टिप्पणी:

  1. बे आबरू अब मै हो चुकी
    अस्मिता अपनी खो चुकी
    समाज के ठेके दारो से
    मदद की आस अब खो चुकी
    बैठी हूँ चौराहे पे न्याय की आस खो ही चुकी

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